
आज उसका दफ़्तर जाने का मन नहीं था, कल से एक घबराहट ने उसके अन्दर जगह बना की थी, वह खुद भी नहीं समझ पा रहा था की ये विचित्र सी घबराहट क्या है? पर दफ्तर तो उसे जाना ही था। उसने एक सिगरेट जलाई, अपनी किताब और कुछ जरूरी सामान झोले में डाले और घर के दरवाजे बंद करके बाहर आ गया। मकान मालिक लोन में बैठा हुआ था। कुत्ता अभी भी भोंक रहा था, उसे देख कुत्ता दौड़ते हुए उसके पास चला आया और उसकी पैंट खींचने लगा। उसने कुत्ते के सर पर हाथ फ़ेरा और उसे हटाया। दफ्तर के लिए पहले ही देर हो चुकी थी। गेट से बहार आकर ऑटो लिया और सतारा (सेक्टर-17), जहाँ उसका ऑफिस था चलने को कहा।
"तुम आज फिर लेट हो गए?" उसके कलिग के मजाक के लहेजे में कहा।
वह हलके से मुस्कुराया और अपनी सीट पर बैठ गया।
"अम्बर क्या तुम्हें नहीं लगता, तुम अकेलेपन के शिकार होते जा रहे हो। तुम क्योँ अपने आप में खोये रहते हो? कोई परेशानी है तो बताओ" राकेश बोला।
" नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है, बस आजकल कहीं भी मन नहीं लगता मुझे खुद भी पता नहीं है कि मेरे साथ ऐसा क्योँ हो रहा है?" उसने जवाब दिया।
उसे समझ नहीं आ रहा था की वह राकेश कैसे बताये कि उसके अन्दर क्या उथल-पुथल मची हुयी है, कोई भी शब्द उसके पास नहीं थे ये बताने को। शायद ये भी एक उलझन ही थी उसके लिए। उसे तो कभी यहाँ होना ही न था, उसे लड़ना था, शोषकों से, पूंजीवादियों से, उसने अपने लिए वह ख्वाब नहीं देखे थे जो वह कर रहा था। उसने मीडिया इसीलिए चुना था की वो आवाज उठा सके, गरीबों के हक में और पूंजीवादी हुक्मरानों के खिलाफ़। लेकिन जल्द ही उसे पता चल गया कि आज का मीडिया भी तो पूंजीवादी है, और उसे ऐसी कोई भी जगह नहीं दिखती थी जहाँ पूंजीवाद ने अपनी जडें न जमायीं हों।
जब भी हम कभी किसी चीज़ से भागने लगते हैं तो वो चीज़ अनजाने ही हमारे साथ चलने लगती है। हमारे मन-मस्तिस्क पर भी काबू कर लेती है, उससे बचने या दूर भागने के तरीके सोचते हुए हम कब उसकी ज़द में आ जाते हैं हमें पता नहीं चलता।
"तुम्हारी मर्ज़ी मत बताओ लेकिन इस तरह मत रहा करो। लोगों से मिलो, बात करो, अपने अन्दर के एकाकीपन को दूर करने की कोशिश करो। केवल अपने काम और निजी ज़िन्दगी तक ही सीमित मत रहो।" राकेश ने कहा।
"क्या तुम्हारे पास सिगरेट है? आज में अपना पाकिट घर पर ही भूल आया" उसने बात टालने के लिए कहा।
"तुम कभी नहीं सुधरोगे" राकेश ने हँसते हुए सिगरेट का पाकिट बढाया।
उसने सिगरेट जलाई और अपना काम करने लगा।
शाम के करीब सवा छः बजे थे। वह दफ़्तर से बाहर आया। खुले आसमान की जगह हल्के-हल्के बादलों ने ले की थी, जो आसमान को अपने आगोश में लेने को आतुर दिखाई दे रहे थे। ढलती धूप कभी-कभी बादलों के बीच से निकल कर और वापस उसके आगोश में आकर लुक्का-छिप्पी खेल रही थी। मद्धिम हवा उसके कानों को छूकर ऐसे निकल रही थी जैसे रुई का फाहा उससे टकराकर निकल रहा हो।
उसने सुखना का ऑटो लिया। ऑटो में बैठते ही उसे वही जानी पहचानी घबराहट ने फिर जकड लिया। वह सोच रहा था की आज उसे सुखना जाना चाहिए या नहीं। उसे लग रहा था कि छोटी-छोटी बातों में घबराने की उसकी आदत बन गयी है। क्योँ वह हर आम आदमी की तरह नहीं रह सकता? राकेश की बात उसे बिलकुल सही लगने लगी थी। वह वाकई एकाकीपन का शिकार को रहा था। लेकिन अब नहीं, वह अब ऐसे नहीं रहेगा। उसने मन ही मन सोचा।
इन्ही ख्यालों में खोया था की उसे पता भी नहीं चला कि सुखना झील कब आई। ऑटो वाले को पैसे देकर वह झील की तरफ चले गया। झील का माहौल हमेशा की तरह खुशगवार था। वह जहाँ भीड़-भाड़ कम थी उस ओर चल पड़ा और पेड़ के नीचे की एक बेंच पर बैठ गया। अच्छी खासी भीड़ होने के बावजूद एक रहस्यमयी शांति उसके चरों और फैली हुई थी। झील की नैसर्गिता देखते ही बनती थी, झील में बतखें तैर रही थी और दूर बोटिंग करते लोग भी बतखों से ही प्रतीत होते थे। उसे लगता कि सुखना के हर एक चीज़ से उसका गहरा नाता है। कुछ देर बाद उसने अपनी किताब निकली और पढने लगा।
"हैलो अम्बर!" पीछे से आवाज आई।
"हैलो!" वह आवाज पहचान गया था। वह वर्तिका ही थी। हल्की सी घबराहट ने उसे फिर से घेर लिया।
"मैं आप ही का वेट कर रही थी, मैंने आपको आते हुए देख लिया था, हाथ भी हिलाया पर शायद आपने गौर नहीं किया" वर्तिका ने कहा।
"माफ़ कीजियेगा मैंने वाकई आपको नहीं देखा। कैसी हैं आप ?" वह बोला।
"एक दम बढ़िया" वर्तिका ने बेंच पर बैठते हुए कहा।
"आप वो दूर पहाड़ देख रहे हैं। मैं हमेशा से ही उनके बीच जाना चाहती हूँ, वहीँ रहना चाहती हूँ जिंदगी भर, इस शहरी भागमभाग से दूर शांति में।" वर्तिका ने दूर दीखते हिमांचल के पहाड़ों की ओर इशारा करते हुए कहा।
"वहां जाना किसको अच्छा नहीं लगता है? दुनिया में कोई आदमी ऐसा भी होगा भला जो वहां नहीं जाना चाहेगा।" उसने उत्तर दिया।
उसके अन्दर एक टीस सी उठ गयी थी। वो भी तो पहाड़ से ही आया था यहाँ, हालातों से मजबूर होकर। जिस शहर की तलाश में वो निकला था ये वो शहर तो नहीं था, शायद दुनिया का कोई भी शहर वो शहर नहीं। और गाँव, गाँव तो हमेशा ही विकास की राह ताकते रह जायेंगे, मूलभूत सुविधायें हो न हो, मकान जरूर बनते जायेंगे। उसने मन ही मन सोचा।
"कहाँ खो गए आप?" वर्तिका ने कहा।
नहीं, कहीं नहीं,! वो जैसे गहरी नींद से जागा।
"तो आप वहां चली क्यों नहीं जाती?" उसने पुछा।
"काश जा पाती तो यहाँ कभी भी लौट कर नहीं आती, कभी भी नहीं, लेकिन परिस्थितियों के आगे हम सब मजबूर हो जाते हैं।" वर्तिका ने कहा।
"हां, हम सब परिस्थितियों के आगे ही तो मजबूर हैं।" उसने कहा। उसकी घबराहट अब ख़त्म हो चुकी थी।
"आप करते क्या हैं?" वर्तिका ने पुछा।
"यहीं के एक लोकल न्यूज़ पेपर में काम करता हूँ।" उसने कहा। "और आप?" उसने पुछा।
"मैं थिएटर करती हूँ।" वर्तिका ने उत्तर दिया।
"अरे वाह! आपसे अब मिलते रहना पड़ेगा। मुझे थिएटर बहुत पसंद है।" उसकी आँखों में ख़ुशी का भाव दौड़ आया। उसे वाकई थिएटर पसंद था। दिल्ली में वह थिएटर जाते रहता था। उसके कुछ दोस्त भी थिएटर करते थे।
"तो आइये कभी हमारा शो देखने।" वर्तिका खुश होकर कहा।
"ज़रूर, आप बुलायेंगी तो क्यों नहीं।" उसने कहा।
"तो आइये हमारे शो में, जल्दी ही होगा शायद अगले महीने के पहले सप्ताह पर ही, 'असग़र वज़ाहत का 'जिस लाहोर नि वेख्या ओ जन्म्या ई नि'।" वर्तिका ने कहा।
वर्तिका की आँखों में उसे एक नयी चमक दिखाई दी।
"जी ज़रूर आऊंगा, ये मेरा पसंदीदा नाटकों में से एक है" उसने कहा।
"अच्छा मुझे अब चलना चाहिए।" वर्तिका ने कहा।
"ओके! फिर मुलाकात होगी।" उसने जवाब दिया।
स्ट्रीट लाइट जल उठी थी, आसमान भी बिलकुल साफ़ हो चुका था। शाम की हल्की-हल्की रौशनी रात के अँधेरे में बदल गयी थी। स्ट्रीट लाइट के मद्दिम प्रकाश में झील की तरंगों का सोंदर्य देखते ही बन रहा था, झील में तैरती नांव किनारे आ चुकी थी। उसने पाकिट से सिगरेट निकाल कर जलाई, और एक लम्बा सा कश लगाया। आज उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। कुछ हल्कापन सा महसूस हुआ उसे, जैसे कोई बंदिश टूट गयी हो। एक नए एहसास ने उसके अंदर जन्म लिया था।
क्रमश:--------