खटीमा, नानकमत्ता और सितारगंज छेत्र में भू माफिया पूरी तरह से सक्रिय हैं. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारु जनजाति को आबंटित जमीन पर भू-माफियाओं के कब्जे और क्रय-विक्रय भी शुरू हो चुके हैं. थारू जनजाति को कृषि के लिए सरकार द्वारा खटीमा और तराई के अन्य इलाकों में जमीन आबंटित की गयी थी. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारू जनजाति के लोगों को बांटी गयी जमीन का क्रय - विक्रय, थारू जनजाति का व्यक्ति किसी अन्य थारू व्यक्ति को ही कर सकता है, किसी अन्य व्यक्ति से नहीं. लेकिन कानून और नियमों को ताक पर रखते हुए थारुओं की जमीनों को, थारुओं से सस्ते दामों में खरीद कर गैर जनजातीय लोगों को महेंगे दामों में बेचा जा रहा है.
देश की आज़ादी के समय थारू एवं बुक्सा जनजाति के लोगों को तराई में
जमीन मुहैया कराइ गयी थी. ये जमीनें केवल खेती के लिए थी. लेकिन करीब ५० के
दशक में थारू जनजाति के लोगों ने अपनी जमीनों को गैर जनजाति के लोगों को
बेचना प्रारंभ कर दिया. जबकि लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत ये जमीनें किसी
अन्य गैर थारू व्यक्ति को नहीं बेचीं जा सकती. उस समय उत्तर प्रदेश सरकार
ने १९८१ में जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार एक्ट के तहत जनजाति के लोगों की
संपत्ति की खरीद फरोख्त पर रोक लगा दी थी. इसके बावजूद जमीन की खरीद फरोख्त
जारी रही. जमीन को खरीदने वाले लोगों में मुख्य रूप से पूर्व सैनिक ,
पंजाब और हरियाणा और अन्य जगहों से आये कृषक थे. १९८६ में केंद्र द्वारा
चलाये गए जनजाति बचाओ अभियान तहत, उत्तर प्रदेश सरकार ने चेक बंदी द्वारा
गैर थारू जनजाति के लोगों को जमीनों से बेदखल करके थारू जनजाति के लोगों को
उनकी जमीनें वापस दिलवाने की कवायद शुरू की , लेकिन गैर जनजातीय कृषकों ने
इसका विरोध किया. स्थिति को समझते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. डी.
तिवारी ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. १९९९ में एक बार फिर से उत्तर प्रदेश
सरकार ने चेक बंदी के आदेश दिए. सभी जनजातीय और गैर जनजातीय कृषकों ने
मिलकर सुधार समीति का गठन किया. २००२ में नैनीताल हाई कार्ट ने भी चेक बंदी
लागु करने के निर्देश दिए. गैर जनजातीय लोगों के विरोध के कारन २००३ में
फिर से हाई कार्ट ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. बाद में एन. डी. तिवारी के
कार्यकाल में विजय बहुगुणा की अध्यक्षयता में भूमि संसोधन समिति का गठन
कीया गया. लेकिन भूमि संशोधक समिति द्वारा भी कोई उचित हल सामने नहीं आ
पाया. तब से आज तक खटीमा और
तराई के इलाकों में थारू जनजाति की जमीनों की खरीद फरोक्त होती रही है.
लोगों के बसने और जमीन के दाम बढ़ने की वजह से भू- माफिया भी खटीमा और तराई
के अन्य इलाकों में सक्रिय हो गए. प्रशासन और भू माफियाओं की मिली भगत से
जमीनों पर अवैध कब्जे किये जाने लगे.
खटीमा शहर का अधिकांश भाग थारू लैंड में ही बसा हुआ है. थारू
जनजाति के लोग भू-माफियाओं को सस्ते दामों में अपनी जमीन बेचते हैं और
भू-माफिया उन जमीनों को २-३ गुने प्रोफिट पर बेचते हैं. प्रशासन और पुलिश की सह पर थारूओं
द्वारा जमीन न बेचने पर थारू जनजाति की जमीनों पर अवैध कब्जे भी
भू-माफियाओं द्वारा किये जा रहे हैं. विरोध करने पर डराया और धमकाया जाता
है, यहाँ तक कई लोगों की हत्याएं भी की जा चुकी है. हाल ही में नवम्बर २०११
को इसी तरह भू-माफियाओं द्वारा हत्या की घटना खटीमा में सामने आई, पुलिश
और गैर जनजातीय भू-माफियाओं की मिली भगत से अपने खेत में जुताई कर रहे कुछ
थारू जनजाति के लोगों पर निजी लाईसेसी बंदूकों से गोलियां दाग दी जिसमें २
लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और लगभग ८ लोग घायल हो गए. ये घटना उक्त
भूमि पर कब्ज़ा करने की नियत से ही सामने आयी.
आज के समय पर कानूनों को ताक पर रखते हुए थारू जनजाति के लोगों की
जमीनों को बेचा जा रहा है और अवैध कब्जे किये जा रहे हैं. थारू जनजाति की
बिना रजिस्ट्री वाली जमीनों को सस्ते दामों में खरीद कर कुछ छोटे पूंजीपति
भी पानी राइस, मैदा एवं अन्य मिलैं खड़ी कर रहे हैं. जमीन की प्लोटिंग का
अधिकांश हिस्सा थारू जनजाती की जमीनों पर ही हो रहा है. खटीमा जैसी जगहों
में जहाँ रजिस्ट्री वाली जगहें नाम मात्र ही हैं वहां थारू जनजाती की
जमीनों पर कब्जे कर और डरा धमकाकर कम दामों में खरीद फरोख्त रहे
भू-माफियाओं की चांदी ही चांदी है. प्रशासन तो पूरे देश में हर जगह नाकाम
है तो यहाँ भी प्रशासन द्वारा भू-माफियाओं पर कोई सिकंजा कसने के आसार नजर
नहीं आते. जो नीतियाँ जमीन की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए बनायीं जाती हैं
वो लागु नहीं हो पाती.. भू-माफियाओं को तराई से अच्छे हालत कहीं और मिल भी
नहीं सकते. पहाड़ों से पलायन कर रहे लोग भी खटीमा, सितारगंज आदि जगहों में
आ कर बस रहे हैं. जमीन के दाम आसमान छु रहे हैं. बिना रजिस्ट्री वाली
थारू जनजाती की सस्ती जमीनें भू-माफियाओं के व्यवसाय को बढ़ावा ही दे रही
हैं.
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