Thursday, 18 April 2013

जहां से मैं निकला हूं वहां पहाड़ में जरूर आज भी एक जगह खाली होगी : मंगलेश डबराल


समकालीन हिंदी कविता/साहित्य जगत पर जब चर्चा करनी होगी तो कवि मंगलेश डबराल के नाम के बगैर यह अधूरी रह जायेगी. साथ ही हिंदी पत्रकारिता के पिछले कुछ दशकों का अगर उसके उतार-चढ़ावों के साथ रेखाचित्र खींचा जाएगा तो भी इसके चढ़ाव की रेखाओं में मंगलेश जी की कलम की स्याही को अलग ही पहचाना जा सकेगा. यहाँ हमारे सहयोगी अंकित फ़्रांसिस ने मंगलेश जी से उनके गृहराज्य उत्तराखंड, समकालीन साहित्य और देश-दुनिया के हालातों पर तफसील से बातचीत की है. मूलतः यह साक्षात्कार साप्ताहिक अखबार 'दि संडे पोस्ट' के एक विशेषांक के लिए लिया गया था. वहां इसका संपादित अंश प्रकाशित हुआ था. praxis में हम यह पूरा साक्षात्कार दे रहे हैं. 'दि संडे पोस्ट' का आभार...
-संपादक  

"...मैं सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर वहां पहाड़ में आज भी एक खाली जगह होगी।.."

उत्तराखंड से बात शुरू करते हैं, जहाँ से आप आते हैं. नए राज्य गठन को इन बारह सालों बाद किस तरह देखते हैं आप?

https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhw8HdIr-s_XkihaB0hsS3o8vQXKW_50t8JbfaN_1ZNLFvsfl6-ga_1eMJcZhx3dy00jlkHCKQKKgzrPqJg7m-BA5aAX0TiMQcmDnzQ21mZyD9u7VGGkaUampK67PC1YvjW9Z2eocHW285s/s1600/ac-manglesh-dabral1.gifमंगलेश- मेरा ये मानना है कि जब तक हम उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र की तरह माने जाते थे तो हमारी एक अलग पहचान थी और वो थी पर्वतीय क्षेत्र की पहचान। उत्तराखंड के एक अलग राज्य बन जाने से पहली दुर्घटना ये हुई है कि वो अब ‘पर्वतीय राज्य’ नहीं रह गया है। जनसँख्या आधारित नए परिसीमन ने पहाड़ी क्षेत्र की अस्मिता पूरी तरह ही नष्ट कर दी है। पहाड़ी इलाकों से उत्तराखंड के तराई क्षेत्र या उधमसिंह नगर और हरिद्वार जैसे राज्य में दो अनचाहे मैदानी जिलों में जो पलायन हुआ है उसने एक तरफ तो गाँवों को जनसँख्या विहीन किया है वहीँ दूसरी तरफ इन जगहों का जनसँख्या घनत्व बढ़ाया है। वहीँ अन्य मैदानी इलाकों से भी उत्तराखंड के मैदानी इलाके की तरफ जो लोग आये हैं उनसे भी इन इलाकों की जनसँख्या बढ़ी है। इस पर जनसँख्या आधारित परिसीमन ने फिर से पहाड़ की राजनीतिक स्थिति उत्तरप्रदेश वाली ही कर दी है। 

आप पहाड़ के गांवों में जाकर देखिए कि गांव के गांव खाली हैं। मकानों पर ताले लटके हुए हैं। लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं चूंकि वहां उनके लिए कुछ है ही नहीं। हमारी सरकार की उपेक्षा के चलते खेती चौपट हो गई है। इन्होंने न तो खेती के तरीके बदले और न ही पहाड़ के किसानों को किसी तरह के उन्नत बीज दिए। आज तक किसान वही पुरातन हल और बैल के सहारे काम चला रहे हैं। इसी के चलते किसानों ने खेती छोड़ दी और सभी शहरों की ओर भागने लगे। या फिर दिया तो मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना), जिसमें किसानी छोड़ों और मजदूर बन जाओ। आपने इससे एक समय अच्छे से खेती कर गुजर-बसर करने वाले किसानों को एक झटके में दिहाड़ी मजदूरों में बदल दिया। हमारी परंपरागत जमीन बंजर होती जा रही है। संस्कृति पर बात करें तो उत्तराखंड की संस्कृति तेजी से विलुप्त हो रही है। हमारे लोकगीत नष्ट होते जा रहे हैं लेकिन इस ओर किसी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। आपके सामने एक पूरी ऐसी पीढ़ी है जो पहाड़ से पलायन कर मैदान में आ चुकी है। जिसका पहाड़ से संबंध अब खत्म होता जा रहा है। मैदान में आकर पहाड़ी भी मैदानी होते जा रहे हैं।

क्या आप भी पहाड़ी बनाम मैदानी वाली लड़ाई की आरे इशारा कर रहे हैं?

मंगलेश- नहीं मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं कोई पहाड़वादी नहीं हूं। पहाड़वाद से मुझे भी घृणा है लेकिन मुझे मेरी पहाड़ी पहचान से बेहद प्रेम है। पहाड़ी पहचान और पहाड़वाद दोनों को अलग करके समझना बहुत जरूरी है। पहाडि़यों में मैदानियों के प्रति किसी तरह के पूर्वाग्रह का होना भी बहुत गलत है। पहाड़ में मैदानियों का हमेशा स्वागत होना चाहिए। पिछले दिनों से उत्तराखंड में भी जो बाहरी लोगों को भगाइये वाली प्रवृत्ति उभरकर आई है इसकी मैं घोर निंदा करता हूं। भरत झुनझुनवाला के साथ जिस तरह का व्यवहार हुआ पिछले दिनों वो भी निंदनीय है। लेकिन सरकार को चाहिए था कि परिसीमन को इस तरह किया जाता कि हर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व बना रहता। इसे क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता तो बेहतर रहता। क्योंकि पहाड़ में अपने विशेष भूगोल के चलते हमेशा से कम आबादी है जो कि इन नीतियों के चलते अब खत्म होने की कगार पर है। क्षेत्रफल के हिसाब से परिसीमन क्यों नहीं किया गया इस पर भी आगे गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

पलायन उत्तराखंड गठन के बाद भी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। उधर सरकार पलायन को विकास की प्रक्रिया का तर्क बता खारिज कर देती हैकहां गलती हो रही है?

मंगलेश- देखिए दिक्कत ये है कि विकास का जो मॉडल अप्लाई किया जा रहा है उसमें पहाड़ और मैदान को एक मान लिया गया है। जिस मॉडल से देहरादून में विकास का सपना देखा जा रहा है उसी सपने को पहाड़ के सुदूर गांवों पर भी लाद दिया जा रहा है। हमने स्थानीय मॉडल विकसित ही नहीं किए हैं। आप टिहरी में इतना बड़ा बांध बनाते हैं जो कि पूरे क्षेत्र को ही निगलने का सबब बन सकता है। क्यों आप छोटे बांध बनाने पर राजी नहीं हैंबहुत सी ऐसी गाड़ हैं जिन पर सफलता से छोटे बांध बना सकते हैं। लेकिन चूंकि ये परियोजनाए विशाल नहीं होंगी तो आप और बनाने वाली कंपनियों को मुनाफखोरी का मौका नहीं मिल पायेगा। इसी के चलते न तो पॉलिटिकल पार्टी और न ही कंस्ट्रक्शन कंपनियों की इसमें रुचि है। ये कंपनियां चाहती हैं कि किसी एक जगह पर बड़ी परियोजना बने जिससे उनकी बचत ज्यादा हो और काम कम हो।

इन्हीं सब नीतियों के चलते उत्तराखंड के कई प्राकृतिक संसाधन बेकार जा रहे हैं। सरकार खामोश है क्योंकि अगर वो बोलती है तो कई बड़ी निजी कंपनियों के इनसे हित प्रभावित होते हैं। दरअसल इन राजनीतिज्ञों और कंपनियों के हित भी आपस में जुड़े हुए हैं। हमें ये समझना चाहिए कि ये जो तथाकथित विकास है वो किस के पक्ष में हो रहा है। आप मुट्ठी भर लोगों को दिन पर दिन अमीर बना कर आम आदमियों का विकास नहीं कर सकते।

सवाल ये है कि क्या पलायन कर रहे आदमी तक विकास पहुंच रहा हैमैं आपको बता दूं कि पलायित आदमी का विकास नहीं हो रहा है उल्टे उनकी छोड़ी जगहों पर बाहर के लोग जमीनें खरीद रहे हैं। आप पिछले कुछ सालों के आंकड़े देंखे तो पता चलेगा कि पहाड़ के पहाड़ खरीदे-बेचे जा रहे हैं। और सिर्फ पहाड़ का ही ये हाल नहीं है यहां से बाहर झांकिए तो पता चलता है कि देश में मुट्ठी भर लोगों तक ही विकास सिमटता जा रहा है।

इसी के चलते उत्तराखंड आज एक पहाड़ी राज्य नहीं रह गया है। जबकि आप देखिए बराबर में ही हिमाचल है और पंजाब से अलग होने के बाद उसने अपनी पहाड़ी राज्य की पहचान को बनाए रखा है। हिमाचल आज इसी वजह से समृद्धि की ओर बढ़ रहा है क्योंकि उसने सबसे पहले अपने मूल नागरिकों की ओर ध्यान दिया। उत्तराखंड की असफलता का प्रमुख कारण अब तक यह रहा है कि जिन लोगों ने मतलब कि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और उत्तराखंड क्रांति दल ने राज्य आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई वो राज्य विभाजन के बाद गठन में कोई भूमिका नहीं निभा सके।

आज उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी तो हाशिए पर है और उक्रांद का हाल किसी से छिपा नहीं है। तमाम उत्तराखंड के बुद्धिजीवी या आंदोलनकारी जिनकी वजह से आंदोलन मुमकिन हुआ उन्हें आज कोई पूछता नहीं। इन्हीं में से एक ग्रुप ने उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी बनाई है लेकिन सब इतने अलग-थलग है कि बदलाव संभव नहीं हो पा रहा है। दरअसल जो सारी बुराईयां उस समाज में व्याप्त थी वो इन दलों में भी आ गई और इनकी ये गत हुई।

इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि पिछले बारह सालों में जो भी सरकारें आईं भाजपा या कांग्रेस की उन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी डर के काम किया। आप देखिए कि पिछले बारह सालों में धार्मिक पर्यटन के अलावा किसी भी और चीज को बढ़ावा नहीं दिया गया है। उत्तराखंड में सिर्फ सरकार के चमचे अफसरों की पौबारह रही है और आज भी है।

अफसरशाही को बनाए रखने के लिए ही आज भी राजधानी देहरादून में बनी हुई है। बावजूद इसके कि देहरादून का हाल बहुत ही खराब हो चुका है। आज देहरादून में अथाह भीड़ हैपांव रखने तक की जगह नहीं है। आज देहरादून इतना फैल गया है जो कि कल्पना से परे है। आप सबकुछ केन्द्रीकृत करते जा रहे हैं। इसी के चलते उत्तराखंड की संस्कृति को भारी नुकसान हुआ है। इसकी चिंता किसी को नहीं है। किसी ने भी कोई ऐसी योजना नहीं बनाई जिससे उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मीबुद्धिजीवीरंगकर्मीलेखककविशिल्पकारचित्रकार या वहां के जागर लगाने वाले और वहां के ढोल-नगाड़े बजाने वाले को कोई फायदा हुआ हो।

आप देखिए कि उत्तराखंड साहित्य परिषद ही कितने समय तक वहां निष्क्रिय रही उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। आज भी उसकी सक्रियता नाम मात्र ही ही दिखाई पड़ती है। सब मिला के बारह वर्षों का लेखा-जोखा यही है। अब बताइए कि राज्य बनाने से ही क्या हासिल हुआ?

आपको आपत्ति किन पर हैबाहर से जो लोग आकर उत्तराखंड में बस रहे हैं उनपर या पहाड़ से जो लोग मैदान में बस रहे हैं उन पर?

मंगलेश- आज पहाड़ और राज्य के बाहर के दोनों लोग उत्तराखंड के मैदानी इलाकों की भीड़ बढ़ा रहे हैं। दरअसल उत्तराखंड बनने के बाद भी राज्य में पहाड़ी और मैदानी संस्कृति में बड़ा अंतर था। आज चूंकि पहाड़ी लोग मैदान की तरफ भाग रहे हैं तो पहाड़ी संस्कृति पर संकट व्याप्त हो गया है। दूसरी तरफ खाली हो रहे पहाड़ों को मैदानी लोग खरीदते जा रहे हैं।

आप हाल-फिलहाल में खुद को पहाड़ से किस तरह जोड़ कर रख पाते हैं?

मंगलेश- इस तरह जोड़ कर रख पाता हूं कि मैं सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर आज भी वहां पहाड़ में एक खाली जगह होगी।

कभी वो खाली जगह दोबारा भरने का इरादा है?

मंगलेश- देखिए मेरे जीवन में काफी संघर्ष रहा खासकर अजीविका के लिए। मेरी शिक्षा भी अधूरी ही छूट गई थी। तब तक मैं मार्क्सवाद के भी संपर्क में आ गया था। मार्क्सवाद का अध्ययन करने से एक ये गलतफहमी भी हो जाती है कि भई अब क्या पढ़ेंगेअब तो हमें सबकुछ आता हैहम इस दुनिया में क्या और क्यों होता है सब जान चुके हैं तो क्या फायदा पढ़ने का। इसी के चलते पढ़ाई भी छूट गई। इसी कारण अजीविका के लिए पत्रकारिता भी करनी पड़ी। बहरहाल उम्मीद करता हूं कि मैं वापिस लौटूंगा।

आपने मार्क्सवाद का जिक्र किया तो पिछले दस सालों में खासकर कुछ अमेरिकी चिंतक इस दौर को एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी’ का दौर कहकर प्रचारित कर रहे हैं। इसे किस तरह देखते हैं?

मंगलेश- ये जो विचारधाराओं के फ्रेम टूटने की बात है तो हां बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसा हुआ है और पिछले कई वर्षों से कुछ अमेरिकी चिंतक ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी वाली बात रट रहे हैं। दरअसल वो लोग सिर्फ आइडियोलॉजी ही नहीं इसे एंड आॅफ हिस्ट्री और एंड ऑफ़ सिविलाइजेशन भी कह रहे हैं। उनका कहना है कि आने वाले समय में सिर्फ एक ही सभ्यता बची रहेगी। खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद से यह बात और जोर-शोर से कही जाने लगी कि अमेरिका ही सबकुछ है और वही बचा रहेगा।

लेकिन अमेरिकी विचारधारा क्या है वो सब जानते है कि वो बाजार है। दरअसल आर्थिक नवउदारवाद ही इन सब चीजों को अपने अनुसार नियंत्रित कर रहा है। यही बाजार को चला रहा हैसत्ता परिवर्तन कर रहा हैसरकारें चला रहा हैबगावत कर रहा है। यही यह प्रचारित कर रहा है कि विचारधाराएं समाप्त हो गई हैं। जब तक सोवियत संघ था चाहे जैसा भी था बचा-कुचाटूटा-फूटा तब तक यह बात कहने का साहस उसमे नहीं था। तब दुनिया बइपोलर थी और अमेरिका अकेली शक्ति नहीं था। जिस दिन सोवियत संघ का पतन हुआ उसी दिन हेनरी किसिंगर का एक लेख बड़े जोर-शोर से छपा। उस लेख में था कि जिस चर्च का निर्माण अमेरिका कर रहा था वो अब पूरा हो चुका है और अब पूरी दुनिया को इसमें आकर सिर झुकाना चाहिए। सिर्फ एक ध्रुवीय हो जाने के कारण ही वो एक विचारधारा इतनी हावी है।

लेकिन आप देखिए कि विचारधारा का अंत तो नहीं हुआ इसका उदाहरण लैटिन अमेरिका है। लैटिन अमेरिका के बारह देश इस समय वामपंथी हैं। यूरोप के लिथुवानिया और लातविया में अभी-अभी कम्युनिस्टों की जीत हुई है। यूरोप में सोशल डेमोक्रेट्स चुन कर आए हैं बड़े पैमाने पर। दूसरी तरफ यूरोप में पूंजीवाद जिस अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है वो इतना भीषण है कि लोग उससे छुटकारा पाने के लिए भी वामपंथ की ओर आ रहे हैं। आक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की राजनीति हांलाकि बहुत डिफाइन नहीं है लेकिन अपने लक्षणों में वो भी एक वामपंथी आंदोलन ही है। चाहे ये कम्युनिस्ट आंदोलन नहीं है।

अगर वो लोग कह रहे हैं कि ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी है तो हमें नारा देना चाहिए बैक टू आइडियोलॉजी। और मै तो कहना चाहूंगा कि स्थिति जैसी है वैसे में तो ‘वी मस्ट गो टू आइडियोलॉजी’ से ही हमें ताकत मिलेगी और इसी से हम अपना स्वप्न फिर से पा सकते हैं। आप ये समझिए कि ये सच है कि समाजवादी सत्ताएं भी भ्रष्ट हो गई थीं। माना कि सोवियत संघ भी भ्रष्ट हो गया होगा लेकिन सत्ताओं के भ्रष्ट हो जाने से आइडियोलॉजी भ्रष्ट नहीं हो जाती। आज भी मार्क्सवाद ने मनुष्यों के जितने सवालों का जवाब दिया है उतने जवाब कोई आइडियोलॉजी नहीं दे पायी है। तमाम उत्तराधुनिकता फेल हो गई है। उत्तराधुनिकतावाद का भी वही हिस्सा बचा रह गया जो वामपंथ के ज्यादा करीब था। उत्तराधुनिकतावाद ने ताकत की जो चीड़-फाड़ और विवेचना की है वो वामपंथी विवेचना ही है। वामपंथ की बहुत सी चीजे आपको उत्तरआधुनिकतावाद में मिलती हैं। मैं ये मानता हूं कि मार्क्सवादी विचारधारा की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी क्योंकि इसमें कुछ ऐसी चीजे हैं जैसे कि आर्थिक संबंध ही सामाजिक संबंधों का डिफाइन करते हैं और मानव संबंधों की भी राजनीति होती है। इससे बड़ा कोई सूत्र नहीं है किसी भी विचारधारा में।

उत्तराखंड के संदर्भ में वामपंथी आंदोलन की क्या भूमिका रही है?

मंगलेश- उत्तराखंड में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन बहुत पहले ही हो चुका था और प्रजामंडल आंदोलन में बहुत से कम्युनिस्ट भी शामिल थे। तेलाड़ी में भी श्रीदेव सुमन और हमारे एक कम्युनिस्ट साथी शहीद हुए थे फिलहाल नाम याद नहीं आ रहा इसके लिए मुझे माफ करें। तो काफी समय से वामपंथी आंदोलन वहां मौजूद रहा है। मेरे खुद के दो जीजा वहां वामपंथी आंदोलन में शामिल रहे हैं। उत्तरकाशी और टिहरी में इन लोगों ने ही आंदोलन की नींव रखी। लेकिन जैसी हालत बाकी देश में है कम्युनिस्ट पार्टियों की वैसी ही यहां भी है।

कम्युनिस्टों की इस हालत की प्रमुख वजह क्या रही हैं?

मंगलेश- उन्होंने समाजवाद का स्वप्न देखना छोड़ दिया है। अब रह गया है कि कुछ सीट जीत लीजिए जब चुनाव आएं तो या किसान आंदोलन चलाइए। लेकिन जो मूलभूत समस्या है वो यही है कि लोग जमीन ही छोड़ चुके हैं। किसानी में ही किसी की कोई दिलचस्पी रही नहीं। ऐसे में सारा किसान आंदोलन किसानों के विस्थापन और पुनर्वास तक ही सिमट कर रह गया है। बस इन्हीं जगहों पर कम्युनिस्ट पार्टियां उत्तराखंड और पूरे देश में भी काम कर रही हैं। उत्तराखंड में तराई के क्षेत्रों में सितारगंज के पास पुनर्वास के लिए और भी जहां जमीन खतरे में हैं वहां पार्टी काम कर रही है। लेकिन जाहिर है कि जो राजनीति आ गई है वही उनपर भी हावी है। हमारे यहां जातिवाद बहुत प्रबल है अभी तक आप ब्राह्मण और राजपूत से ही बाहर नहीं आ पाए। सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसे बढ़ावा दिया है।

क्या कम्युनिस्ट पार्टियों में भी जाति समस्या है?

मंगलेश- नहीं कम्युनिस्ट पार्टी में तो मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ा। हां कांग्रेस और भाजपा ने इसे खूब बढ़ावा दिया है। यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे कम्युनिस्ट पार्टियां अभी तक नहीं सुलझा पायी हैं। किसान खेती छोड़ रहे हैं तो बुनियादी विरोधभास खत्म होता जा रहा तो ऐसे में आप क्या आंदोलन चलायेंगे। आप आदिवासियों को साथ लेकर आंदोलन चला सकते थे लेकिन उनमें भी उस चेतना का अभाव है अभी। पिछले दिनों इन सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ने की बात की और टिहरी उपचुनाव साथ ही लड़ा। हिमाचल में भी यही प्रयोग अपनाया जा रहा है। शिमला में अभी दो प्रशानिक सीटें कम्युनिस्ट पार्टियों के पास है। इस तरह की घटनाएं उम्मीद जगाती ही हैं। तो अगर सभी पार्टियां साथ आकर लड़े तो थोड़ी सी आशा जगती है। दूसरी बात कि खासकर पहाड़ में कम्युनिस्ट पार्टियों के पास कोई बड़ा नेता रह नहीं गया। फिलहाल बी आर कौसवाल हैंविद्या सागर नौटियाल चले गएकमलाराम नौटियाल थे वो भयंकर रूप से बीमार चल रहे हैं [कॉ. कमलाराम नौटियाल का भी पिछले दिनों निधन हो गया है (सं०)]। इसी के चलते आज कोई बड़ा नेता रह नहीं गया है। नौजवानों की ओर देखा जाए तो वे करियर बनाने में लगे हुए हैं जो कि एक बड़ी समस्या है।

राज्य आंदोलन में उक्रांद और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की बड़ी भूमिका रही। आज उक्रांद के टूटने से केन्द्र की तरह ही उत्तराखंड में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। इन हालातों में उत्तराखंड के राजनीतिक भविष्य को किस तर से देखते हैं?

मंगलेश- चुनावी राजनीति का जो भविष्य है वही भविष्य और हश्र उत्तराखंड का भी है। वैसे भी चुनावी राजनीति का भविष्य होता ही क्या है। आने वाले किसी भी चुनाव में चाहे वो लोकसभा हो या किसी राज्य के विधानसभा चुनाव या उत्तराखंड की ही बात करे तो सिर्फ स्थानीय फैक्टर ही काम करेंगे। केन्द्र में तो बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के कोई भी पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती। सपाबसपाबीजदएआईडीएमके और टीएमसी की भूमिका बढ़ती जायेगी। उत्तराखंड में बसपा और सपा जल्दी ही भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जायेंगी। जातिगत राजनीति के खिलाडि़यों का भविष्य वहां भी उज्जवल है। मैं इसे उम्मीद की तरह नहीं बोल रहा हूं लेकिन ये आशंका है। कांग्रेस और भाजपा की अभी भी उत्तराखंड में स्थिति मजबूत है। क्योंकि यहां इनका परंपरागत वोट बैंक जैसे कि कांग्रेस का ब्राह्मण और भाजपा का ठाकुर खिसका नहीं है।

उत्तराखंड की मिट्टी से जुड़े रचनाकारों का साहित्य में क्या योगदान रहा?

मंगलेश- उनका योगदान निश्चय ही बहुत उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है। आप सुमित्रा नंदन पंत से शुरू करें और चंद्र कुंवर बड़थ्वालबृजेन्द्र लाल शाहपीतांबर दत्त बड़थ्वालवीरेन डंगवाल और राजेश सकलानी को देंखे या इनके अलावा और भी कई बड़े नाम है जैसे विद्या सागर नौटियाल हैं इन सभी ने साहित्य में अभूतपूर्व योगदान दिया। कई ने तो नये मानदंड स्थापित किए। आप चंद्र कुंवर बड़थ्वाल को देंखे वे पंत जी के समय में इतनी आधुनिक कविता लिख रहे थे। आप अब पढ़ते हैं तो आपको आश्चर्य होता है कि उनकी इतनी आधुनिक दृष्टि उस समय में थी। तो उत्तराखंड के लेखकों का योगदान बहुत ही ऐतिहासिक और प्रशंसनीय रहा है। इसके अलाव जो आज भी लिख रहे हैं उत्तराखंड में जैसे कि सुभाष पंतराजेश सकलानीविजय गौड़ आदि अब भी काफी उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। मैं आपको बता दूं कि सिर्फ साहित्य लेखन ही नहीं इतिहासजनजातीय और अन्य क्षेत्र के लेखनों में भी पहाड़ के लोगों ने काफी योगदान दिया है। इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि उनके पास रचनाकर्म और संस्कृति की एक समृद्ध विरासत रही है। आप अगर गिनने बैठे तो मनोहर श्याम जोशीहिमांशु जोशी और पंकज बिष्ट जैसे और भी सैंकड़ों नाम निकलते ही जायेंगे। लेकिन मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि इसका ‘उत्तराखंड’ नाम के इस नए पर्वतीय राज्य से कोई संबंध नहीं है। ये सभी लोग इस राज्य गठन से बहुत पहले से लिख रहे हैं इसमें इसका कोई योगदान नहीं है।

सुमित्रा नंदन पंत के अलावा किस उत्तराखंड के कवि का योगदान सबसे ज्यादा रहा है?

मंगलेश- चन्द्रकुंवर बड़थ्वाल बहुत बड़े कवि हैं। इससे पहले कुमाऊं में गुमानी, और गढ़वाल में  मौलाराम आदि भी हुए हैं। वैसे स्पष्ट कर दूं कि मैं चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल को पंत जी से ज्यादा बड़ा कवि मानता हूं। बड़थ्वाल ज्यादा बड़े कवि हैं और कई मायनो में हमारे लिए ज्यादा जरूरी हैं। इसके बाद लीलाधर जगूड़ीवीरेन डंगवालराजेश सकलानी आदि का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

आपने चन्द्र कुवर बड़थ्वाल जी का जिक्र किया। क्या आपको नहीं लगता कि उन्हें जो स्थान मिलना चाहिए था वो नहीं मिला?

मंगलेश- इसके कई कारण रहे। पहला तो ये कि उनका निधन काफी कम उम्र लगभग तीस-पैंतीस के रहे होंगे तभी हो गया था। दूसरी बात ये कि वो पहले लखनऊ में थे फिर अपने गांव चले आए। यहां आए तो उन्हें ट्यूबरोक्यूलोसिस हो गया। तब टीबी का कोई इलाज था नहीं। इसी के कारण उनकी मृत्यु भी हुई। हां मैं मानता हूं कि उनकी उपेक्षा हुई । उनके संग्रह भी ज्यादा नहीं आ पाए और आलोचकों ने उनपर उस समय ज्यादा विचार भी नहीं किया। उस समय छायावाद का जोर था और बड़थ्वाल छायावाद से भी उभरकर आगे आ गये थे। निराला से पत्र व्यवहार था उनका। उन्होंने छायावाद को तो लगभग छोड़ ही दिया था। उस समय निराला के अलावा सिर्फ चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल ही थे जिन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया।

एक और नाम है जिनकी उपेक्षा की गईशैलेश मटियानी!

मंगलेश- शैलेश जी और मेरा तो बहुत ही दोस्ताना संबंध रहा है। हां ये सच है कि उनकी उस समय काफी उपेक्षा की गई। लेकिन पहाड़ के बड़े लेखकों में शामिल हैं। मनोहर श्याम जोशीशैलेश मटियानीविद्यासागर नौटियालराधाकृष्ण कुकरेतीरमाप्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी काफी लोग हैं जिन्होंने अच्छी कहानियां लिखी।

आप के शुरू के दो कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन’ और घर का रास्ता’ को छोड़ दें तो आप पर आरोप है कि आपकी बाद की कविताओं में पहाड़ पीछे छूटता गया।

मंगलेश- दरअसल हम जो देखना चाहते हैं वो ढूंढ ही लेते हैं। ऐसा कुछ नहीं है जो आप कह रहे हैं। मेरा बाद का एक संग्रह है आवाज भी एक जगह है’ में पहाड़ की उपस्थिति काफी है। इस संग्रह में पहाड़ के दो लोगों पर कविता है। एक ढोलवादक थे केशव अनुरागी और एक लोककवि थे गुणानंद पथिक जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य थे। गुणानंद जी वहां रामलीला आदि में भी हारमोनियम बजाया करते थे और मेरे पिता जी को भी हारमानियम उन्होंने ही सिखाया था। उसमें मोहन थपलियाल की मृत्यु पर भी कविता है। मोहन थपलियाल और पंकज बिष्ट दो उल्लेखनीय कहानीकार हैं पहाड़ के। मेरे इस संग्रह में पहाड़ लौटा है फिर से और मेरा जो नया संग्रह आने वाला है उसमें भी पहाड़ की अच्छी-खासी उपस्थिति देखने को मिलेगी आपको। लेकिन मैं एक बात मानता हूं कि मेरी कवितओं में पहाड़ मसलन उस तरह नहीं आता है जिस तरह जगूड़ी या बड़थ्वाल जी की कविताओं में है। इसका एक कारण ये है कि मेरी कविताओं में पहाड़ और मैदान का द्वंद ज्यादा है। इसमें इन दोनों क्षेत्रों की टकराहट ज्यादा महत्व रखती है। जैसे पहाड़ी नदी जब मैदान में आती है तो उसका बहाव अचानक रुक जाता है। आप ऋषिकेश जैसी जगहों पर जाकर देखिए वहां गंगा का पहाड़ीपन मिटा नहीं है लेकिन उसका मैदानीपन शुरू हो जाता है। तो जहां उसका पहाड़ीपन खत्म हो रहा है और मैदानीपन शुरू हो रहा है उस जगह के पानी में एक अजीब सी टकराहट है। लगता है कि जैसे पहाड़ी जो पानी है वो उसी गति से आगे बढ़ने के लिए जोर लगा रहा है लेकिन मैदानी भूगोल उसे रोक रहा है। यही अजीब सी टेंशन है मेरी कविताओं में।

तो क्या यह आप ही के भीतर जारी मैदान में पहाड़ी बने रहने का संघर्ष है?

मंगलेश- हां कहा जा सकता है कि ये वही जिद है। लेकिन आपको बता दूं कि मैं देहरदून आ गया था 1980 के आस-पास और देहरादून के बाद यहीं नीचे की ओर आता गया। उसके बाद तो पहाड़ जाता रहा लेकिन लौटा नहीं। तो इस तरह का तनाव शायद मेरी कविताओं में है। एक और बात कि मेरी कविताओं में पहाड़ के वर्तमान से ज्यादा उनकी स्मृति अधिक है। लेकिन स्मृति असल में कोई स्मृति नहीं होती है। अतीत कोई अतीत नहीं होता।  अतीत भी मनुष्य का वर्तमान ही होता है क्योंकि उसके भीतर ही कहीं रहता है।

उत्तराखंड का फणीश्वरनाथ रेणु किसे मानते हैं?

मंगलेश- हालांकि इस तरह की तुलना करना मुझे पसंद नहीं है। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि शैलेश मटियानी जी का महत्वपूण योगदान है। अगर ऐसी तुलना की जाय तो रेणु जी भी बिहार के शैलेश मटियानी होंगे।

अपने करीब किन रचनाकरों को पाते हैंकिन युवा रचनाकारों में संभावना देखते हैं?

मंगलेश- बहुत से लोग हैं जैसे कि कवियों में प्रभातव्योमेश शुक्लशिरीष कुमार मौर्यनीलेश रघुवंशीअनुज लगुन और मनोज कुमार झा हैं। कहानीकारों में योगेन्द्र आहूजा और चंदन पांडे जैसे लोग हैं जो कि काफी संभावनाशील हैं। 

उत्तराखंड या पहाड़ शब्द जब आपके कानों में पड़ता है तो ऐसे कौन से दृश्य या यादें हैं तो आज भी पहले की तरह ताजा हैं और आंखों के सामने घूम जाती हैं?

मंगलेश- हालांकि काफी अद्भुत प्रश्न है पर हां मेरे गांव की यादें है जो आज भी वैसे ही ताजा हैं। जिनके दृश्य आज भी एकदम स्पष्ट हैं। जैसे पहला कि मैं अपने बचपन में गांव में बहुत धूप सेंकता था। आज भी वही बिंब मेरे दिमाग में जिंदा है कि औंधा लेटे हुए अपनी पीठ पर मैं सूर्य को महसूस कर रहा हूं। दूसरी मुझे वे बूढ़े याद हैं जो अपने चश्में से बीड़ी सुलगाया करते थे। सूरज की धूप से वे जब बीड़ी सुलगा लेते थे तो ये मुझे बड़ा चमत्कार लगता था कि अचनाक धुंआ कहां से उठने लग गया। तीसरा महिलाओं का घास-लकड़ी लाना मेरी स्मृति में एकदम स्पष्ट है। जब शाम को मैं अपने पिताजी के साथ वापिस लौटता था तो बीस-पच्चीस महिलाएं पूरा दल बना करके बोझा लिए हुए लौटती थीं। अब चूंकि वो चप्पलें आदि नहीं पहने होती थीं तो उनके चलन से जो धम-धम की आवाज पैदा होती थी वो आज भी मेरे भीतर मुझे महसूस होती है। वहीं से मुझे आज भी प्रेरणा मिलती है कि अगर श्रम किया जाय तो धरती भी हिलती है। उस धम-धम की आवाज में मैं धरती को हिलता हुआ महसूस करता था।  पहाड़ की औरतें अथाह श्रम करती हैं। इसी पर मैने एक कहानी लिखी थी जिसमें जब लड़की पहाड़ से शादी कर मैदान आती है तो वो महीने भर तक सोती है। चूंकि मैने पाया कि उन्हें मैदान आकर ही अपनी थकान उतारने का मौका मिल पाता है। इसी से मैंने सीखा और अपने जीवन में मैं लगातार श्रम करता आया हूं। मैंने अपने जीवन में कभी मुफ्त की रोटी नहीं तोड़ी।  

Tuesday, 9 April 2013

बलात्कार और यौन हिंसा की समस्या : क्या होगा असल हल?

डॉ. मोहन आर्या

"...बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है।..."

Les Demoiselles d'Avignon (1907)
by 
Pablo Picasso
दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुआ जनाक्रोश, वर्मा कमेटी की प्रशंसनीय सिफारिशें, उनके क्रियान्वयन वाले अध्यादेश के बारे में हुई बहसें, बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड और उनके बधियाकरण की मांग आदि बातें बलात्कार और यौन उत्पीड़न के विषय में जायज भावुक अतिरेक के इतर जाकर समस्या को और गहरे समझने की मांग करती है। कठोर कानून की मांग महिलाओं की समुचित सुरक्षा व्यवस्था की मांग आदि बेहदजरूरी मांग जनसमूहों द्वारा उठाई जा रही हैं। कुछ समझदार व्यक्ति और समूह महिलाओं को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। कठोर कानून, यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों में त्वरित और समयबद्ध प्रक्रिया की व्यवस्था महिलाओं की समुचित सुरक्षा की व्यवस्था आदि उपाय अत्यावश्यकीय होते हुए भी फौरी कार्यवाहियां ही हैं। 

समाज की मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज का निर्माण ही मुख्य मुद्दा है। परंतु ये होगा कैसे? मानसिकता में बदलाव शून्य में नहीं हो सकता और नहीं बलात्कार की घटनाओं से पैदा हुई भावुकतापूर्ण सहानुभूति ही समाज की मानसिकता में बदलाव की ठोस बुनियाद हो सकती है। क्योंकि ये सहानुभूति उस विस्तृत और शक्तिशाली पितृसत्तात्मक ढांचे और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसके चलते पुरूष मानसिकता पैदा होती है। दरअसल यौन हिंसा और बलात्कार तो पितृसत्तात्मकता और अन्य वर्चस्वशाली ताकतवर व्यवस्थाओं के चलते पुरूषों द्वारा महिलाओं पर किए जाने वाले अनगिनत अत्याचारों में से केवल एक है। बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है। 

अशान्त क्षेत्रों में सशस्त्रबलों द्वारा किए गए जाने वाले बलात्कारों, दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ दबंगों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, में पित्रसत्तात्मकता के साथ वर्चस्व की अन्य श्रेणियां मसलन नस्लीय घृणा, जाति व्यवस्था, संप्रभु का राजनीतिक वर्चस्व आदि भी गुंथे हुए दिखाई देते हैं। उपर्युक्त किस्म के बलात्कारों के साथ ही सांप्रदायिक दंगों के समय बड़े पैमाने पर होने वाले बलात्कार, विरोधी समुदाय को सबक सिखाने के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इसके अलावा यौन उत्पीड़न और बलात्कार के कई मामलों में महिलाओं के परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ौसियों का शामिल होना दिखाता है अन्यथा सामान्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आचरण है। जो अपने संस्थागत वर्चस्व के चलते मौके का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं बलात्कार को उसके सही रूप में पितृसत्तात्मकता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है।

बलात्कार दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की पैदाइश है

यूँ तो मानव समाज में पाए जाने वाले तमाम अपराध जैसे चोरी, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार आदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में गलत सामाजिक व्यवस्था और दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों के ही परिणाम हैं परंतु यौन हिंसा या बलात्कार अन्य किसी भी अपराध या प्रवृत्ति से आधारभूत रूप में भिन्न है। जहां अन्य अपराध या प्रवृत्तियां प्रकृति में मनुष्येत्तर प्राणियों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रियांओं के रूप में बेहद स्वनियंत्रित स्वरूप में मौजूद रहते हैं और प्राणियों के अस्तित्व और जीवन संघर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाई देते हैं वहीं बलात्कार सामान्यतया किसी भी मनुष्येत्तर प्राणिजाति में नहीं पाया जाता है। कुछ नगण्य अपवादों को छोड़ते हुए बहुत ही सामान्य प्रेक्षणों और प्रकृति विज्ञान की सामान्य समझ के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठाया जा सकता है कि बलात्कार केवल मनुष्य समाज में पाया जाने वाला घोर अप्राकृतिक अपराध है और आत्महत्या (जिसे अपराध की श्रेणी से हटाया ही जाना चाहिए) के अलावा एक मात्र ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई प्राकृतिक जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता है। 

यहां कई लोग तर्क दे सकते हैं कि बलात्कार पुरूषों की अनियंत्रित यौनइच्छा का परिणाम है जो कि विशुद्ध नैसर्गिक और प्राकृतिक कारणों से है और इसी तर्क की बुनियाद पर बलात्कार को रोकने के लिए कुछ बेहद गैरजिम्मेदाराना सुझाव दिए जाते हैं, मसलन वैश्यावृत्ति को वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता देना और किशोरावस्था के तुरंत बाद ही अथवा किशोरावस्था में ही विवाह करा के सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध कराना। परंतु ऐसा कतई नहीं है जिन देशों में वैश्यावृत्ति वैध है वहां बलात्कार की घटनाएं नहीं होती हैं या फिर विवाहित पुरूष बलात्कार में शामिल नहीं होते हैं। विवाह या वैश्यावृत्ति द्वारा सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध होने पर भी पुरूष बलात्कारी होता है। अमूमन होता भी है। देखा गया है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें लिप्त पुरूष विवाहित होते हैं। विवाह संस्था के भीतर होने वाले यौन शोषण को शामिल कर लें (जैसा कि वाजिब रूप में वर्मा समिति की सिफारिश है) तो विवाहित पुरूषों का बहुत बड़ा हिस्सा यौन हिंसा में लिप्त पाया जाएगा। 

अतः वैश्यावृत्ति को वैधता प्रदान करना और जल्दी विवाह जैसे उपाय बलात्कार और यौन उत्पीड़न को रोकने में सफल तो होंगे ही साथ ही ये उस वर्चस्वशाली व्यवस्था को और मजबूत बनाएंगे जिससे पुरूष को बलात्कार करने का औचित्य और साहस मिलता है। क्यूंकि जल्दी विवाह और वैश्यावृत्ति दोनों से ही स्त्री की पुरूष पर निर्भरता अधिक स्थाई होती है।

पुनः लौटते हैं बलात्कार के कारण के रूप में पुरूषों की अनियंत्रित यौनेच्छा की ओर। यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि यौनेच्छा तो प्रकृति के विस्तार का आधार है। जो कि अनियंत्रित रूप में मनुष्येत्तर प्राणियों में भी पाई ही जाती है। परंतु प्रकृति में यौनेच्छा नर और मादा की संयुक्त यौनेच्छा और सामान्य सहवास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यदि नर या मादा में से किसी एक की यौनेच्छा नहीं है तो प्रकृति में सहवास या इस स्थिति में कहें तो बलात्कार हो ही नहीं सकता। साथ ही प्राकृतिक चयन और जैवविकास की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते प्रकृति में मादा को नर के चयन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है। अर्थात प्रकृति में मादा के सहवास के लिए तैयार ना होने पर सामान्य सहवास हो ही नहीं सकता। और मादा के सहवास के लिए तैयार होने पर भी अपने लिए उपयुक्त साथी के चयन का अंतिम अधिकार भी मादा के पास होता है। नर केवल शारिरिक बल के आधार पर ऐसी मादा से सहवास नहीं कर सकता जिसकी उस समय यौनेच्छा ना हो और यौनेच्छा हो भी (जैसा कि मदकाल में होता है) तो नर को अन्य नरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके मादा के वैयक्तिक चयन (जो कि वास्तव में प्रजाति की जैवविकासीय प्रवृत्ति ही है) के पैमानों पर खरा उतरना होता है। (ऐसा प्रकृति में शुक्राणुओं और अंडाणुओं की संख्या के बीच भारी अंतर के कारण होता है) इसके उपरांत ही यौनेच्छा अपने स्वाभाविक परिणाम अर्थात सहवास तदोपरांत संतानोत्पत्ति तक पहुंच पाती है। 

अब यहां तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य ने अपने यौन व्यवहार को मनुष्येत्तर प्राणियों की तुलना में काफी विकसित किया है। और इसे संतानोत्पत्ति तक सीमित नहीं रखा है। साथ ही मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा प्रकृति के अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है। (हांलाकि ऐसा कुछ अन्य प्राणी जातियों में भी होता है।) जहां तक यौनव्यवहार को संतानोत्पत्ति तक सीमित ना रखने वाली बात है तो प्रकृति को इससे कोई  फर्क नहीं पड़ता कि यौन व्यवहार को उसके कर्ता या माध्यम द्वारा अपने लिए किस रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है भले ही यौन व्यवहार मात्र-मात्र यौन आनंद के लिए किया उसके मूलभूत उद्देश्य और परिणाम की प्राकृतिकता का जैव वैज्ञानिक स्वरूप अपरिवर्तित रहता है, तो यह एक सामाजिक परिघटना है कि बलात्कार में यौन व्यवहार में वर्चस्व के एक औजार के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है और यौन परिपक्वता के बाद महिलाएं जैव-वैज्ञानिक तौर पर किसी भी समय सामान्य शारिरिक संबंधों के लिए तैयार रहती हैं परंतु एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य का यौन व्यवहार हारमोनल के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी है। और इसीलिए मनुष्य के शारिरिक विषय में जैववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर ही महिलाओं के साथी के चयन का विशेषाधिकार समाप्त नहीं हो जाता है। और जटिल मानव समाज में महिला की सहमति ही इस चयन के विशेषाधिकार का मानवोचित रूप है। 

ऊपर की सारी कवायद का मेरा उद्देश्य यही दिखाना है कि बलात्कार प्राकृतिक जगत में ना पाई जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं। इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस तरह बलात्कार सभ्यता का संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरूषों द्वारा किए जाते हैं। इसके लिए क्यों संपूर्ण मानव समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए। दरअसल बलात्कार अपनी अप्राकृतिकता के कारण उतना घृणित नहीं है जितना कि सामाजिक उत्पत्ति और सामजिक परिणामों के कारण।  इस बात को और समझने के लिए हम अनियंत्रित यौनेच्छा के तर्क की ओर पुनः लौटते हैं। अनियंत्रित यौनेच्छा तो महिलाओं की भी हो सकती है। क्या होगा यदि आनियंत्रित यौनेच्छा के वशीभूत होकर कोई महिला किसी असहाय पुरूष के साथ बलात्कार करे। बलात्कार के इस कृत्य का कोई सामाजिक कारण नहीं होगा परंतु इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे और पुरूष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? हो सकता है पुरूष इसे अपने वैयक्तिक चयन के अधिकार का अतिक्रमण मानकर अप्रसन्नता प्रदर्शित करे और शारिरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आहत भी हो। परंतु इस कृत्य के सामाजिक परिणामों की ओर गौर कीजिए, पुरूष अधिक से अधिक कुछ छोटे अंतराल तक उपहास का पात्र बन सकता है। हो सकता है उसे खुशनसीब का दर्जा भी दिया जाय। इस घटना के कोई मनोवैज्ञानिक और शारिरिक दुष्परिणाम हो भी तो इसके दूरगामी सामाजिक परिणाम उस पुरूष के प्रतिकूल नहीं होंगे। परंतु जब बलात्कार महिला के साथ किया जाता है तो यह बलात्कार के रूप में पुरूषों द्वारा महिला के सहमति के अधिकार का अतिक्रमण उन्हें शारिरिक या मनोवैज्ञानिक रूप से चोट पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बलात्कार का वीभत्स रूप तो महिला के लिए बलात्कार के बाद सामने आता है और सारी उम्र उस महिला के जीवन पर छाया रहता है। शील भंग की दकियानूसी और घटिया सामाजिक अवधारणा महिला के सामाजिक जीवन को नष्ट कर देती है। बलात्कार की शिकार महिला के विवाह में कई दिक्कतें आती हैं अथवा विवाहित महिलाओं को कई बाद उनके पतियों द्वारा त्याग दिया जाता है। वो महिला किसी भी सामाजिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है। बलात्कार की शिकार स्वयं होने के बावजूद वो एक किस्म के अपराधबोध या हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। और उसे हमेशा अपनी पहचान छिपाकर रखनी पड़ती है। उसके सामान्य सामाजिक जीवन जीने की संभावना न के बराबर है इसलिए सूर्यनेल्ली प्रकरण में यौन हिंसा की शिकार द्वारा यह कहा गया कि दिल्ली में वीभत्स बलात्कार कांड की शिकार छात्रा की मौत होना उस छात्रा के लिए अच्छा ही हुआ। इस सबके कारण मनोवैज्ञानिक और शारिरिक न होकर मूलरूप में सामाजिक हैं।

स्त्री के द्वारा पुरूष के बलात्कार और पुरूष के द्वारा स्त्री के बलात्कार के सामाजिक परिणाम एक दूसरे से बहुत ही अलग हैं। इस तरह लिंग निर्धारण के समय का प्राकृतिक संयोग महिला के लिए एक सामाजिक दुर्घटना बनकर रह जाता है। चूंकि प्राकृतिक जगत में किसी खास लिंग का होना किसी दुर्घटना का कारण नहीं होता है इसी रूप में मनुष्य सभ्यता पशुओं से बदतर है। साथ ही महिलाओं द्वारा पुरूषों पर बलात्कार के नगण्य मामले ही प्रकाश में आए हैं। तो अनियंत्रित यौनेच्छा का तर्क पुनः खारिज होता है। अब यदि कोई प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं है और समाज में है तो इसके कारण प्राकृतिक से अधिक सामाजिक होने चाहिए। बलात्कार करते समय पुरूष की मस्कुलैनिटी ही निर्णायक कारक दिखती है। परंतु इस शारीरिक बल के पीछे निश्चित रूप से वे संस्थागत् बल कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो कि हमारे समय में पुरूषों को प्राप्त है। 

हमारी सभ्यता, मूल्य, संस्कृति हर तरह से पुरूषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं। जब मैं हमारी सभ्यता मूल्य या संस्कृति का जिक्र करता हूं तो इसका तात्पर्य केवल भारतीय सभ्यता या संस्कृति से नहीं है यह सर्वलौकिक मानवीय सभ्यता का सामान्य अनुभव है। अब यह तर्क दिया जा सकता है कि लगभग सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में बलात्कार को गलत माना गया है और इसके उपचार के लिए कई नैतिक नियम और सजाएं भी तय की गई हैं। परंतु जैसा कि पहले कहा गया है कि बलात्कार को पितृसत्ता और वर्चस्व की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करके एक अकेली घटना के रूप में नहीं समझा जा सकता है। यह सांस्कृतिक ढांचा जो कि तथकथित नैतिक नियमों और सजाओं/बहिष्कारों आदि के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है उस भौतिक ढांचे की बिल्कुल अनदेखी करता है या यह कहें कि जानबूझकर उसे बनाए रखता है जिसपर स्त्री और पुरूष के संबंध और समाज में उनकी स्थिति निर्धारित होती हैं। समाज के भौतिक सामातिक संबंधों में स्त्री के दोयम दर्जे की हैसियत को बनाए रखते हुए यदि उसकी सुरक्षा के तथाकथित नैतिक नियम बनाए जाएंगे तो ये नियम असफल ही हो जाएंगे भले ही कितनी भी कठिन सजाओं का प्रावधान किया जाय। और इस तरह के नियमों का खामियाजा स्त्रियों को ही अधिक भुकतना पड़ता है। सभी जानते हैं कि बलात्कार होने पर सबसे पहले महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन पर ही लक्ष्मण रेखाएं लाघने का आरोप लगाया जाता है। समाज में स्त्री पुरूष की स्थिति के विषय में हमारा सांस्कृतिक ढांचा गलत बुनियाद पर खड़ा है। और कुछ मातृसत्तात्मक और आदिम संस्कृतियों को छोड़कर ऐसा सभी संस्कृतियों में हुआ है। चूंकि वह भौतिक बुनियाद ही स्त्री विरोधी है जिस पर सांस्कृतिक ढांचा टिका है इसीलिए यह सांस्कृतिक ढांचा भी स्त्री विरोधी है। 

अब समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरूष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब सम्पदा कम थी तो सम्पत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था। साथ ही मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि सम्पत्ति गोत्र के भीतर ही रहें स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी। 

एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथ बच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवतः बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरूष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाईयों और बहिनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरूष का दर्जा महत्वपूर्ण हुआ पुरूष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरूष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे। इस तरह पैत्रक वंशानुक्रम और पैत्रक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रैडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में माक्र्स लिखते हैं, ‘‘मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोड़ने के लिए परंपरा में खोट निकालता है।’’ 

एंगेल्स आगे लिखते हैं, मातृसत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरूष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरूष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों मंे नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा। पर वह दूर नहीं हुई।’’

इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पित्रसत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। इसी भौतिक आधार पर वह मूल्य प्रणाली पैदा होती है जिसके कारण पुरूष स्त्री के शरीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है और स्त्री से बिना शर्त समर्पण की उम्मींद करता है। इसने स्त्री को असहाय बनाकर रख दिया है। यह पित्रसत्तात्मक वर्चस्व अकेले या अन्य वर्चस्वशाली संस्थाओं के साथ मिलकर स्त्री के यौन संबंधों में सहमति के अधिकार को समाप्त करता है। 

धर्म, व्यक्तिगत नैतिकता, पूंजीवादी राज्य और कानून की नाकामी

यद्यपि हम धर्म एवं सांस्कृतिक ढांचे की बलात्कार को रोकने के संबंध में नाकामी की चर्चा कर चुके हैं। परंतु समाज में धर्म के व्यापक प्रभाव और मूल्य प्रणाली के निर्माण में इसकी भूमिका को देखते हुए यह विस्तृत जांच की मांग करता है। धर्म अपने दार्शनिक और आद्यात्मिक स्वरूप में जहां विश्व की समस्याओं का समाधान उन समस्याओं के भौतिक मूल की अनदेखी करके प्रस्तुत करता है वहीं अपने सामाजिक स्वरूप में धर्म ना केवल यथास्थितिवाद का पोषक है बल्कि स्वयं भी एक शोषक वर्चस्वशाली ढांचा तैयार करता है। धर्म एक तरफ तो अनुयायियों को व्यक्तिगत् नैतिकता की सतही अवधारणा देता है जिसे वह बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने का माध्यम मानता है। वहीं दूसरी ओर व्यापक संहिंताएं तैयार कर स्त्रियों की परतंत्रता को सुनिश्चित करता है। और इन संहिताओं का प्रभाव निश्चित तौर पर धर्म की नैतिकता की अव्यवहारिक मांग से अधिक पड़ता है। 

साथ ही धर्म कई बार स्त्रियों की अधीनता का इस्तेमाल समाज में वर्चस्व के अन्य ढांचों को बनाए रखने के लिए करता है। धर्म की स्त्रियों के विषय में दी गई व्यवस्थाओं और उनके कार्यात्मक अनुभवों से स्पष्ट है कि धर्म हमेशा से स्त्री विरोधी रहा है। यहां पर आदिम तथा मातृसत्तात्मक समाजों की धार्मिक रीति रिवाज, टोटमवाद इत्यादि की बात नहीं की जा रही है परन् धर्म के बहुराष्ट्रीय व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है। हिंदू धर्म को ही लें तो इसकी तमाम समाजिक संहिंताएं स्त्री विरोधी हैं। मनुस्मृति शूद्रों की गुलामी के साथ साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। चूंकि ब्राह्मणवाद की तथाकथित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों को गुलाम बनाए रखना आवश्यक था। 

डा0 अंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक  5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरूष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। साथ ही मनु ने विधुर पुरूष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरूष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरूष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरूष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री ना मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरूषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति 2-213)। स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे यौनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्यु पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र ना रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही सुंदर हो या असुंदर पुरूष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं। 

हिंदु धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदु धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पित्रसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी है। अन्य धर्मों की स्थिति भी इस संदर्भ में अच्छी नहीं है। इस्लाम में स्त्री को स्वाभाविक तौर पर ही पुरूष के संरक्षण में रहने योग्य माना गया है- ‘पुरूष महिलाओं के पोषक और संरक्षक हैं उन विशिष्टताओं के आधार पर जो ईश्वर ने एक व्यक्ति को दूसरे पर दी हैं।’ (कुरान 4/34 संदर्भ इस्लाम सिद्वांत और स्वरूप, जफर रज़ा)

ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट शाखा में पूंजीवादी प्रभाव के तौर पर स्त्रियों के संदर्भ में कुछ खुलापन अवश्य नज़र आता है। परंतु इसकी वही सीमाएं हैं जो पूंजीवादी समाज की सीमाएं हैं। इस पर अलग से चर्चा की जाएगी। ईसाई धर्म की कैथोलिक शाखा में कौमार्य की अवधारणा पर विशेष जोर दिया गया है। इतिहास है कि कैथोलिक शाखा के मठाधीशों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वतंत्र विचार वाली स्त्रियों को मृत्युदंड समेत कठोर सजाएं दी गई। बौद्ध धर्म पर अवश्य ही सिद्धांत के तौर पर स्त्री और पुरूष के भेद का निषेध किया गया है। कई स्थानों पर बुद्ध ने स्वयं कहा है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरूष का कोई भेद नहीं है और वे स्त्रियों की अपेक्षा किसी भी तरह से पुरूषों को विशेष नहीं मानते (अंगुत्तर निकाय 8ः2ः2ः1)। एक स्थान पर बुद्ध कहते हैं पुत्री, पुत्र से अधिक योग्य हो सकती है (संयुत्त निकाय)। परंतु साथ ही बुद्ध स्त्री और पुरूष की सामाजिक हैसियत के भौतिक आधार को परिवर्तित करने के प्रति सचेत नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए वे कन्याओं को यह उपदेश देते हैं कि उन्हें पति से पहले सोकर उठने वाली और पति के बाद में सोने वाली होना चाहिए और काम करने वाली और चीजों को व्यवस्थित करने वाली होना चाहिए। (उग्ग्ह सुतंत अंगुत्तर निकाय) 

इस तरह चूंकि सभी धर्म (बौद्ध धर्म कुछ सीमा तक) स्त्री को पुरूषों से निम्न और प्राकृतिक तौर पर निर्भर मानते हैं अतः धर्म और उसके नैतिक नियमों का सांस्कृतिक ढांचा कभी भी पुरूष वर्चस्व के खिलाफ नहीं जाएगा। इसलिए धर्म बलात्कार को रोकने के लिए तो कुछ नहीं कर सकता साथ ही यौन नैतिकता के इसके नियम किस तरह स्त्रियों के ही खिलाफ जाते हैं इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। 

पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता: स्त्री बनाम आधुनिकता

राज्य कानून के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रया स करजा है परंतु इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण है राज्य कम से कम पूंजीवादी राज्य पितृसत्तात्मकता और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। परंतु हां पूंजीवादी समाज व्यवस्था में सामंती जकड़ के ढीले होने से स्त्रियों के प्रति नजरिए में कुछ हद तक बदलाव जरूर आता है। पूंजीपादी राज्य और कानून पुरूष वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाता तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि पूंजीवादी राज्य को अपने कृत्य काफी सीमित रखने होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं तक पूंजीवादी राज्य की पहुंच उसके अपने अंतर्निहित चरित्र के कारण गलत सामाजिक संबंधों के उन्मूलन की हद तक होती ही नहीं है। साथ ही यदि कुछ सुधारात्मक कानून लाए भी जाएं तो उनका व्यापक विरोध भी होता है। याद करें हिंदु समाज में स्त्री पुरूष समानता के लिए अंबेडकर द्वारा किए गए हिंदु कोड बिल का क्या हश्र हुआ था। और किसी तरह कानून ले भी आया जाए जैसा कि हिंदु कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में लाकर किया गया तो उसे लागू करने के क्या औजार राज्य के पास हैं। 

राज्य अपने आप को कानून बनाने तक सीमित रखता है। कानूनों से जुड़ा कोई वाद न्यायालय के समक्ष आने पर ही कानून लागू होता है। स्त्री को उत्तराधिकार दिलाने के लिए राज्य कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं चलाता क्योंकि यह राज्य की प्राथमिकता में ही नहीं है। साथ ही समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से अधिक और कई मायनों  मंे अधिक ताकतवर हैं। अतः कानून बनाने की कवायद औपचारिकता मात्र रह जाती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। पूंजीवादी राज्य विधि के स्रोत के रूप में परंपरा को स्वीकार करता है।  इसी आधार पर कई समुदायों के पर्सलन लाॅ, विवाह व्यवस्था, तलाक आदि के प्रावधानों को राज्य स्वीकारता है। इन व्यवस्थाओं में स्त्री की स्थिति प्रथम दृष्टया ही दोयम दर्जे की होती है। उस समुदाय विशेष की स्त्री के उन व्यवस्थाओं से शोषण को रोकने के लिए राज्य कुछ नहीं करता है। राज्य की एजेंट अर्थात सरकार किसी बड़े समुदाय की नाराजगी झेलने के लिए किसी राजनैतिक कारणों से तैयार नहीं रहती है और सामान्यतया उदासीन और कभी कभी तो प्रतिक्रियावादी भूमिका में नजर आती है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी की सरकार ने जो कृत्य किया उसे आजादी के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकरों पर राज्य द्वारा किया गया सबसे बड़ा कुठाराघात माना जाना चाहिए। 

समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कितनी ताकतवर हैं इसका उदाहरण हरियाणा सरकार की खाप पंचायतों की असंवैधानिक अधिकारिता के सामने घुटने टेकने से जाहिर होता है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी होगी जैसा कि उपर्युक्त मामले में दिखाई देता है तो राज्य भी पंगु हो जाता है। पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता का सबसे बड़ा कारण है स्त्री पुरूष संबंधों की उस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के प्रति उसकी अंतर्निहित अनिच्छा जिसके विषय में फ्रेड्रिक एंगेल्स के विचारों की हम चर्चा कर चुके हैं। पूंजीवादी कानून उत्तराधिकार की पित्रसत्तात्मकता को नष्ट नहीं करता बल्कि उसमें स्त्रियों को भी विधि के माध्यम से हिस्सा दिलाने का प्रयास करता है। (यह स्थिति भी केवल वास्तविक पूंजीवादी देशों में ही है।) चूंकि पुरूषों का सामाजिक वर्चस्व कायम रहता है इसलिए यह कवायद कभी अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। 

अक्सर कहा जाता है कि जैसे जैसे आधुनिकता शिक्षा और तकनीक का प्रसार होगा स्त्री की स्वतंत्रता भी बढ़ती जाएगी। परंतु इस आधुनिकता की वही अंतर्निहित सीमाएं हैं जो कि पूंजीवादी समाज की हैं। आधुनिकता की एक अन्य समस्या स्त्रियों के विषय में इसका विकृत दृष्टिकोण भी है। सामंती समाज यदि स्त्री को ढकी हुई उपभोग की चीज मानता है तो आधुनिक पूंजीवादी समाज उसे उपभोग की खुली हुई चीज मानता है। यह सही है कि स्त्रियां सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं आधुनिकता ने स्त्रियों को अवसर प्रदान किए हैं परंतु इसने पुरूषों का स्त्रियों के प्रति दृश्टिकोण को बदल दिया है ऐसा कतई नहीं है। आधुनिकता और स्त्री आजादी के विषय में लिव इन रिलेशन का जिक्र करना समीचीन होगा। यह सामान्य समझदारी पर आधारित संबंध है परंतु इसके नतीजों के अंतिम नुकसान यदि कोई हों तो स्त्रियों को ही उठाने पड़ते हैं। और कभी कभी तो यह संबंध पुरूष स्त्रियों को धोखे में रखकर मात्र शारिरिक आवश्यकताओं के लिए ही बनाते हैं। इस आधुनिकता में कितने अंतर्विरोध हैं इसका प्रमाण पश्चिमी समाजों में हाईमैनोप्लास्टी का बढ़ता चलन है। क्या आधुनिकता के पास पुरूषों के कौमार्य की पुनस्र्थापना का आग्रह है? 

क्या है रास्ता?

हमने बलात्कार और यौन उत्पीड़न से बात शुरू की थी परंतु ये घटनाएं स्त्री-पुरूष की सामाजिक स्थितियों के साथ इस तरह गुथी हैं कि पितृसत्तात्मकता के नष्ट हुए बगैर ये बने ही रहेंगे। 

1. पितृसत्ता की समाप्ति आवश्यक है

एंगेल्स ने स्त्री पुरूष के बीच के वर्ग विभाजन के आधार के रूप में पितृसत्ता की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति के पितृसत्तात्मक स्वरूप को नष्ट करना आवश्यक है। परंतु पितृसत्ता का विकल्प क्या हो सकता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था इसकी जगह ले सकती है? असल में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अपने अंतर्विरोधों के कारण ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ था। अतः मातृसत्ता पितृसत्ता का विकल्प नहीं हो सकती। सही कदम तो होगा कि उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति का स्वरूप ही न रहे। अतः संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक हो। जब संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक होता है तो स्त्री-पुरूष के संबंध बेहद स्वाभाविक एवं वर्चस्व रहित होते हैं। इसका उदाहरण प्रकृति से तादाम्य के साथ रहने वाली वे जनजातियां हैं जिनके समाज में संपत्ति का स्वरूप सामुदायिक होता है। इन समाजों में स्त्रियां उत्पादन प्रणाली में अपने योगदान के अनुंरूप और समाज के पुरूष सदस्य के समान ही अधिकार और स्वतंत्रता का आनंद उठाती हैं। इस तरह की आदिम और घुमंतू जनजातियों में स्त्री पुरूष भेद बेहद कम और बलात्कार जैसी घटनाएं भी नगण्य होती हैं। संपत्ति के निजी स्वरूप और उत्तराधिकार प्रणाली से ही स्त्री की गुलामी की शुरूआत हुई थी। अतः इस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के साथ ही यह गुलामी भी वास्तविक रूप से नष्ट होगी। कई लोग संपत्ति के सामाजिक स्वरूप वाली प्रणाली में परिवार और एकनिष्ट विवाह जैसी संस्थाओं के उन्मूलन हो जाने के खतरे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार और एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नही। होगा वरन् इनका शोषक और वर्चस्वशाली स्वरूप समाप्त होगा। जैसा कि एंगेल्स दिखाते हैं कि एकनिष्ठ विवाह निजी संपत्ति के उन्मूलन पर अधिक मजबूत होगा क्योंकि यह प्रेम और रूचियों की समानता पर आधारित होगा। यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ ही बलात्कार और यौन शोषण पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाएंगे। कुछ घटनाएं तब भी हो सकती हैं। परंतु तब पुरूष वर्चस्व की समाप्ति होगी और बलात्कार के सामाजिक परिणाम बदल जाएंगे। क्योंकि भौतिक आधार नष्ट होने से मूल्य प्रणाली भी बदल जाएगी। 

उपर्युक्त विश्लेषण की एक सीमा यह है कि इसमें सभी महिलाओं को एक ही समुदाय के रूप में प्रदशित किया गया है। महिलाएं वर्ग, जाति, रंग आदि कई वर्चस्व वाली श्रेणियों में बंटी हुई हैं अतः निजी संपत्ति के उन्मूलन का रास्ता इतना आसान नहीं। जैसा कि इस लेख की शुरूआत में ही स्पष्ट किया गया कि पितृसत्ता के साथ ही समाज की अन्य वर्चस्वशाली ढांचों के कारण महिलाएं अधिक असुरक्षित होती हैं। अतः महिला मुक्ति का प्रश्न मानव मुक्ति के अन्य प्रश्नों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। 

निजी संपत्ति के उन्मूलन का एजेंडा राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में माक्र्सवादियों का प्रमुख ऐजेंडा है और माक्र्सवादियों ने ही सही रूप में स्त्री की गुलामी की भौतिक बुनियाद को समझा है। परंतु राजनैतिक कार्यवाहियों में जेंडर के प्रश्न को माक्र्सवादियों ने उपेक्षित ही छोड़ा है। यह शुरूवात कम्युनिष्ट घोषणापत्र से ही हुई है जब माक्र्स और एंगेल्स घोषणा करते हैं कि कम्युनिष्टों पर ज्यादा से ज्यादा यह आरोप ही लगाया जा सकता है कि वे पुराने काल से चली आरही स्त्री की सर्वोपभोग्यता के गोपनीय रूप को समाप्त कर खुला कानूनी रूप देना चाहते हैं। यहां पर माक्र्स और एंगेल्स के मंतव्य पर कोई संदेह नहीं कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं परंतु ‘स्त्री की सर्वोपभोग्यता का कानूनी रूप’ ये शब्द कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जैसी महान कालजयी कृति में ना होते तो अच्छा था। ये बुर्जुआ नैतिकता का आग्रह नहीं परंतु स्त्री की ही सर्वोपभोग्यता ही क्यों पुरूष की क्यों नहीं? यह जायज प्रश्न माक्र्स से पूछा ही जाना चाहिए था। यही जेंडर का नाजुक प्रश्न है जिसपर निजी संपत्ति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध राजनैतिक कौम से अधिक समझदारी और गंभीरता की अपेक्षा है। इसे मात्र अस्मिता का प्रश्न मानने से समस्याएं हल नहीं होंगी। 

2. सेक्सिज्म का विरोध करना होगा 

यह पूंजीवादी समाज की देन है कि यौन आवश्यकताओं को उनकी प्राकृतिकताओं से कहीं अधिक महत्व दिया जा रहा है। यह कुत्सित प्रचार किया जा रहा है कि भोजन की तरह ही यौन संबंध भी जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं। यह सोच प्राकृतिकता के बजाय कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। क्योंकि भोजन के बगैर जीवन संभव नहीं है परंतु यौन संबंधों के बगैर निश्चित संभव है। क्योंकि भोजन जीवन के लिए आवश्यक है तो यौन संबंध जीवन की निरंतरता के लिए। यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरे द्वारा ब्रह्मचर्य जैसी अव्यावहारिक अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा रहा है। परंतु वर्तमान मुनाफा केंद्रित व्यवस्था। जिस रूप में यौनवाद को बढ़ावा दे रही है। उसका विरोध होना ही चाहिए क्योंकि यौनवाद अपने आधारभूत स्वरूप में ही स्त्री विरोधी है। यह यौनवाद का ही परिणाम है कि बाजार पुरूषों की उत्तेजना बढ़ाने वाले अनगिनत उत्पादों से भरा पड़ा है और इसका बाजार बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यवहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।

3. धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा

चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अतः स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविस्कार करना होगा जो मनुष्यों के भौतिक संबंधों पर आधारित हो। 

4. कानून/सुरक्षा/न्यायिक व्यवस्था में सुधार

किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीडि़त महिला की सुबूत मिलाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा। 

मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।