Saturday, 25 August 2012

कल आज और कल

कल आज और कल
फर्क बस इतना है कि
कल चले गया
आज चल रहा है और
कल आएगा
हमेशा की तरह वापस आएगा कल
क्या सच होगा इतिहास लौटने का मुहावरा?
तो क्या हम अपने
कल के वापस आने के इंतजार में
अपने कल को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं करें
हम खुद को ढाल लें परिस्थितियों के अनुरूप
या कोशिश करें परिस्थितियों को बदलने की
समाज तो जैसा कल था वैसा ही आज भी है
लेकिन समाज कल कैसा होगा
ये फैसला केवल हम ही कर सकते हैं
और इस कल की तस्वीर को बदलने के लिए हमें बदलना होगा अपना आज
जब आज की तस्वीर बदलेगी तभी कर पाएंगे कल्पना
हम कल के बदलने की
और समाज के बदलाव की
बदलाव तो हमेशा से ही रही है जरूरत दुनिया की
पर हम तो ये सोचते आये हैं की
वक़्त फिर लौटेगा
कल फिर आयेगा
हमें क्यों जरूरत आन पढ़ती है कल के वापस आने की?
क्यों हम अपना आज नहीं संवार सकते?
इतना अच्छा भी कल नहीं रहा है हमारा कि
 उसके वापस आने का इंतज़ार किया जाये
जिस दिन हम बंद कर देंगे अपने
बीते कल कि पैरवी करना तो
हमारे आने वाले कल को सवारने से क्या कोई रोक सकेगा?
और आने वाला कल भी हमेशा
बीता हुआ कल ही बनता है.

Sunday, 12 August 2012

उपेक्षित गंगोलीहाट.

गंगोलीहाट को तहसील बने तकरीबन 23-24 साल हो गए होंगे पर गंगोलीहाट के हालातों में शायद ही कोई परिवर्तन आया होगा. रोड , पानी, रोज-मर्रा की जरूरतों के मामले में गंगोलीहाट हमेशा से ही पिछड़ा था, अभी भी पिछड़ा है और पिछड़ता ही जा रहा है. अगर हम रोडों की बात करैं तो गंगोलीहाट की रोडों के हाल जग जाहिर हैं, पानी की समस्या ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है. चुनाओं के समय वादों कि पोटली लेकर आये ये नेता चुनाओं के बाद कहाँ चले जाते हैं? विकास के नाम पर वोट मांगने वाले इन नेताओं को अपनी जेब भरने से फुर्सत मिलती तो क़स्बे के विकास के बारे में भी कुछ सोचते. करीब 15000 कि आबादी वाले गंगोलीहाट क़स्बे में नगर पंचायत अभी तक नहीं बन पायी है. अगर बमुश्किल सरकार से ऐसी कोई योजना आती भी है तो ये दो कोड़ी के नेता वो भी पास नहीं होने देते.  सड़कों के डामरीकरण और चौड़ीकरण के लिए सरकार से कुछ पैसा आ भी जाता है तो सड़कों के निर्माण के नाम पर सड़कों के बीच गड्ढों में कच्चे डामर के टल्ले लगा दिए जाते हैं. पिछले १ साल से रामेश्वर से राइआगर तक का रोड के चौडीकरण का काम ठप पड़ा है. गंगोलीहाट से राइआगर तक का करीब १८ किमी. का रास्ता तय करने में करीब एक से डेढ़ घंटा लगना आम बात है. अगर मुख्य सड़कों के इतने बुरे हाल हैं तो, क़स्बे की सड़कों के हाल या होंगे? ये कहना मुश्किल है. 

                उत्तराखंड में पिछली सरकार के पेयजल मंत्री भी गंगोलीहाट के ही मूल निवासी हैं. अपने कार्यकाल में उन्होंने क़स्बे के लिए कुछ नहीं किया. पानी कि परियोजना पिछले कई सालों से अधर में लटकी हुई है, पूरे क़स्बे में पानी के साधन केवल कुछ एक हैण्डपम्प ही हैं. औरतों को पानी के लिए सुबह-शाम कई कि मी. दूर तक हैण्डपम्प पर जाना पड़ता है. जाड़ों में ही लोगों का पानी के बिना बुरा हाल हो जाता है, तो गर्मियों के क्या कहने? कई बार तो रात-रात भर हैण्डपम्प के पास अपनी बारी का इंतजार करती महिलाएं दिखती हैं, फिर भी पानी मिले या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं. दिन भर खेतों में काम करने वाली महिलाओं को रात में भी पानी के कारण दो घडी चैन नहीं मिल पता. हमारे मंत्रियों को इन समस्याओं से इतर लोगों की शादियों, बच्चों का नामकरण इत्यादि में जाने से फुर्सत नहीं मिलती. अगर कोई आम आदमी इनके पास अपने क्षेत्र से जुडी समस्याएँ लेकर जाता है तो ये जनाब घर से ही गायब हो जाते हैं. दोष विकल्फिनता का ही है, जिसने इन अराजकों को सत्ता के गलियारे तक पहुँचाया.
                 इन तेईस सालों में गंगोलीहाट का नाम केवल अवैध शराब तस्करी के लिए ही आगे आया. सन 2006  में शराब की दुकानें बंद करवाने को गंगोलीहाट में एक आन्दोलन हुआ, जनता का पूर्ण समर्थन आन्दोलन को था, एक महिला आन्दोलनकरी से बलात्कार की घटना ने इस आन्दोलन की आग में घी का काम किया और आन्दोलन सफल भी रहा जिसके फलस्वरूप गंगोलीहाट में शराब की दुकानें बंद करवा दी गयी. पर गंगोलीहाट में शराब की तस्करी अपने पैर फ़ैलाने लगी. पहले पिथोरागढ़ और बेरीनाग इत्यादि जगहों से शराब की तस्करी होने लगी. बाद में हरियाणा और पंजाब से तक अवैध शराब आने लगी. जिस शराब को आदमी 200 ₹ में पीता था, वोही शराब उसे 500 ₹ में मिलती थी. कुछ लोग कच्ची शराब बनाकर बेचने लगे. जो लोग कल तक २ वक़्त की रोटी खाने में असमर्थ थे, वो ही लोग शराब की तस्करी की बदोलत चोपहिया वाहनों में घुमने लगे. प्रशासन क्योँ अपने हाथ में हाथ धरे बैठा रहा? बात साफ़ जाहिर है की हमारे प्रशासन की नियत ही में कुछ खोट रहा होगा. ऐसा तो नहीं हो सकता की प्रशासन को इस बात की खबर ही नहीं थी की गंगोलीहाट जैसे छोटे से क़स्बे में तस्करी ने अपनी जडें जमा ली हैं. ऐसा कहने में मुझे कोई झिझक नहीं की प्रशासन की इन तस्करों से जरूर कोई सांठ-गांठ होगी. सच्चाई भी यही है. प्रशासन अगर कार्यवाही करता तो गंगोलीहाट में तस्कर कभी अपने पाँव नहीं फैला पाते. अब फिर से गंगोलीहाट में कुछ १ महीने पहले शराब के ठेके खुल गए हैं. कभी शराब की दुकानें बंद करने के लिए आन्दोलन किये गए बाद में वही आनदोलन दुकानें खुलवाने के लिए हुए. पिछले ६ सालों से तस्करी के जाल में फंसे गंगोलीहाट में दोबारा से ठेके खुलवाने को तो क्षेत्रीय लोग, जनप्रतिनिधि आन्दोलन करने लगे, पर कोई भी तस्करी को रुकवाने के प्रयासों में सामने नहीं आया. क्या फायदा ऐसे आन्दोलन का जो सफल होकर भी सफल नहीं हो पाया. अगर शराब का ठेका खुलवाना ही था तो बंद करवाने को आन्दोलन क्योँ किया?

               अंधविश्वास गंगोलीहाट के बुजुर्गों से लेकर नयी पीढ़ी तक फैला है, क़स्बे का हर एक आदमी अंधविश्वास की चपेट में फंसा हुआ दिखाई  देता है . बलि प्रथा अब तक गंगोलीहाट में अपने पैर फैलाये बैठी है. 21 वीं सदी में भी गंगोलीहाट जैसे कस्बों के लोगों में बलि प्रथा जैसी कुरीतियों का फैलाव इतना अधिक है कि मंदिरों में रोज आस्था के नाम पर न जाने कितने बेजुबान जानवरों की बलि दी जाती है. मदिरों के निर्माण के नाम पर जितना पैसा ये नेता और ठेकेदार खा जाते हैं उससे न जाने कितने विकास कार्य गंगोलीहाट में हो जाते, विकास के नाम पर केवल मंदिरों का अधूरा निर्माण ही गंगोलीहाट को मिल पाता है. क़स्बे में रोड ठीक नहीं, पानी नहीं, जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पाती, अच्छे स्कूल नहीं तो इन मंदिरों से लोग क्या करेंगे? जब हर जगह से तकरीबन बलि प्रथा का अंत होने को आया है तब गंगोलीहाट जैसी जगहों में इस प्रथा को ख़त्म करने को न ही सरकार द्वारा कोई कदम उठाए गए और न ही वहां के बुद्धिजीवियों द्वारा इस समस्या के बारे में सोचा गया. गंगोलीहाट में कई ऐसे बुद्धिजीवी भी है जिनका नाम काफी ऊँचा है, इतिहास से लेकर कई अन्य विषयों में कई किताबें लिख चुके हैं, पर गंगोलीहाट कि आम समस्याओं के बारे में इन्हें कभी न कुछ बोलते देखा गया और न ही इन्होने गंगोलीहाट कि समस्याओं को हल करने कि कोशिश की. कम से कम समाज में फैली इन कुरीतियों को ख़त्म करने के प्रयास तो इन बुद्धिजीवियों द्वारा करने चाहिए थे. इतिहास और कविताएँ लिखने से हालत नहीं सुधरते, जरूरत है आने वाले कल को बदलने की, विकास की जरूरत को समझने की. 

              आज से तकरीबन १२-१३ साल पहले बचपने में हम कुछ बच्चों के बीच अफवाह उड़ी थी कि गंगोलीहाट जिला बनने वाला है. एक ख़ुशी जहन में थी कि गंगोलीहाट जिला बनेगा. समझ नहीं थी तब. जरूरतों का कोई ज्ञान नहीं था. न ये पता था कि विकास क्या होता है? ये पता नहीं था कि जिला बनके गंगोलीहाट का क्या होगा? बस इतना पता था कि गंगोलीहाट भी अन्य जिलों कि तरह बढ़ा शहर बन जायेगा. उस समय पिथोरागढ़, अल्मोड़ा जैसे शहर हमारे लिए बहुत बड़े शहर हुआ करते थे, विकास के नाम पर समझ बस इतनी ही थी कि बड़ा शहर बनने पर गंगोलीहाट की समस्याएँ भी दूर हो जाएँगी. चाह बस इतनी ही थी कि गंगोलीहाट भी बड़ा बन जाये, पिथोरागढ़ और अल्मोड़ा कि तरह. बस बचपना था, आज युवा पीढ़ी में इस बात को लेकर कोई समझ नज़र नहीं आती कि उनका क्षेत्र भी तरक्की की ओर आगे बढे. गंगोलीहाट जैसी जगहों के लोगों में अभी भी समझ और जागरूकता का आभाव देखने को मिलता है. पहाड़ से पलायन कर चुके शहरी पहाड़ियों को भी केवल गर्मियों के दिनों पर पहाड़ कि याद आती है. अपनी लग्जरी गाड़ियों में जब ये पहाड़ आते हैं तो क्या रोडों कि हालत पर इन्हें तरस  भी आता है? क्या पानी, बिजली कि समस्या इन्हें भी सताती है? जाते-जाते ये भी रो जाते हैं हर साल पहाड़ कि बदहाली का दिखावटी रोना पर कोई भी इन मसलों को सुलझाने कि बात करता दिखाई नहीं देता. कुछ फर्क नहीं पढता उन्हें, अब न वह पहाड़ में रहते हैं और न है कभी रहेंगे बस हर बार गर्मी में आके पहाड़ की बदहाली की लिए मगरमच्छ के आसूं बहा जायेंगे.

              रोज मर्रा की समस्याओं का रोना रो रहे गंगोलीहाट ओर ऐसे कई कस्बों के आम लोगों को जरूरत है की जागरूकता का फैलाव उन तक हो. जब तक आम आदमी नहीं जागेगा तब तक किसी भी सामाजिक समस्या का निदान संभव नहीं है. सरकार के बंद कानों को पूरी जनता की एकजुट आवाज के बलबूते ही खोला जा सकता है. यही वक्त है सोये हुए हुक्मरानों को जगाने का. गंगोलीहाट के लोगों को समझना होगा इन भ्रस्टाचारी नेताओं और बुद्धिजीवियों के भरोसे गंगोलीहाट में विकास के नाम पर कुछ नहीं हो सकता. आम आदमी को इन सब बातों की समझ आ गयी तो उन्हें इन नेताओं के तलवे तो नहीं चाटने पड़ेंगे. क्षेत्र विकास के लिए चुने गए ये जनप्रतिनिधि ही विकास की राह में रोड़ा बन रहे है, इनको दरकिनार कर एक गंगोलीहाट जैसे कस्बों की जनता को सामने आना होगा. इन्हें इनकी असली औकात दिखानी होगी. केवल भाषडों और बहसों से ये काम संभव नहीं है, हुक्मरानों को जगाने के किये लोगों की बुलंद आवाज की दरकार है. गंगोलीहाट जैसे कस्बों के विकास के लिए आम आदमी को ही जागना पढ़ेगा, अगर नहीं तो न इन जगहों का विकास संभव है और न ही हालातों में कोई परिवर्तन आएगा.

थारू जनजाति की जमीनें और भूमाफिया


खटीमा, नानकमत्ता और सितारगंज छेत्र में भू माफिया पूरी तरह से सक्रिय हैं. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारु जनजाति को आबंटित जमीन पर भू-माफियाओं के कब्जे और क्रय-विक्रय भी शुरू हो चुके हैं. थारू जनजाति को कृषि के लिए सरकार द्वारा खटीमा और तराई के अन्य इलाकों में जमीन आबंटित की गयी थी. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारू जनजाति के लोगों को बांटी गयी जमीन का क्रय - विक्रय, थारू जनजाति का व्यक्ति किसी अन्य थारू व्यक्ति को ही कर सकता है, किसी अन्य व्यक्ति से नहीं. लेकिन कानून और नियमों को ताक पर रखते हुए थारुओं की जमीनों को, थारुओं से सस्ते दामों में खरीद कर गैर जनजातीय लोगों को महेंगे दामों में बेचा जा रहा है.

       देश की आज़ादी के समय थारू एवं बुक्सा जनजाति के लोगों को तराई में जमीन मुहैया कराइ गयी थी. ये जमीनें केवल खेती के लिए थी. लेकिन करीब ५० के दशक  में थारू जनजाति के लोगों ने अपनी जमीनों को गैर जनजाति के लोगों को बेचना प्रारंभ कर दिया. जबकि लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत ये जमीनें किसी अन्य गैर थारू व्यक्ति को नहीं बेचीं जा सकती. उस समय उत्तर प्रदेश सरकार ने १९८१ में जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार एक्ट के तहत जनजाति के लोगों की संपत्ति की खरीद फरोख्त पर रोक लगा दी थी. इसके बावजूद जमीन की खरीद फरोख्त जारी रही. जमीन को खरीदने वाले लोगों में मुख्य रूप से पूर्व सैनिक , पंजाब और हरियाणा और अन्य जगहों से आये कृषक थे. १९८६ में केंद्र द्वारा चलाये गए जनजाति बचाओ अभियान तहत, उत्तर प्रदेश सरकार ने चेक बंदी द्वारा गैर थारू जनजाति के लोगों को जमीनों से बेदखल करके थारू जनजाति के लोगों को उनकी जमीनें वापस दिलवाने की कवायद शुरू की , लेकिन गैर जनजातीय कृषकों ने इसका विरोध किया. स्थिति को समझते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. डी. तिवारी ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. १९९९ में एक बार फिर से उत्तर प्रदेश सरकार ने चेक बंदी के आदेश दिए. सभी जनजातीय और गैर जनजातीय कृषकों ने मिलकर सुधार समीति का गठन किया. २००२ में नैनीताल हाई कार्ट ने भी चेक बंदी लागु करने के निर्देश दिए. गैर जनजातीय लोगों के विरोध के कारन २००३ में फिर से हाई कार्ट ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. बाद में एन. डी. तिवारी के कार्यकाल में विजय बहुगुणा की अध्यक्षयता में भूमि संसोधन समिति का गठन कीया गया. लेकिन भूमि संशोधक समिति द्वारा भी कोई उचित हल सामने नहीं आ पाया. तब से आज तक खटीमा और तराई के इलाकों में थारू जनजाति की जमीनों की खरीद फरोक्त होती रही है. लोगों के बसने और जमीन के दाम बढ़ने की वजह से भू- माफिया भी खटीमा और तराई के अन्य इलाकों में सक्रिय हो गए. प्रशासन और भू माफियाओं की मिली भगत से जमीनों पर अवैध कब्जे किये जाने लगे. 

           खटीमा शहर का अधिकांश भाग थारू लैंड में ही बसा हुआ है. थारू जनजाति के लोग भू-माफियाओं को सस्ते दामों में अपनी जमीन बेचते हैं और भू-माफिया उन जमीनों को २-३ गुने प्रोफिट पर बेचते हैं. प्रशासन और पुलिश की सह पर थारूओं द्वारा जमीन न बेचने पर थारू जनजाति की जमीनों पर अवैध कब्जे भी भू-माफियाओं द्वारा किये जा रहे हैं. विरोध करने पर डराया और धमकाया जाता है, यहाँ तक कई लोगों की हत्याएं भी की जा चुकी है. हाल ही में नवम्बर २०११ को इसी तरह भू-माफियाओं द्वारा हत्या की घटना खटीमा में सामने आई, पुलिश और गैर जनजातीय भू-माफियाओं की मिली भगत से अपने खेत में जुताई कर रहे कुछ थारू जनजाति के लोगों पर निजी लाईसेसी  बंदूकों से गोलियां दाग दी जिसमें २ लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और लगभग ८ लोग घायल हो गए. ये घटना उक्त भूमि पर कब्ज़ा करने की नियत से ही सामने आयी. 

          आज के समय पर कानूनों को ताक पर रखते हुए थारू जनजाति के लोगों की जमीनों को बेचा जा रहा है और अवैध कब्जे किये जा रहे हैं. थारू जनजाति की बिना रजिस्ट्री वाली जमीनों को सस्ते दामों में खरीद कर कुछ छोटे पूंजीपति भी पानी राइस, मैदा एवं अन्य मिलैं खड़ी कर रहे हैं. जमीन की प्लोटिंग का अधिकांश हिस्सा थारू जनजाती की जमीनों पर ही हो रहा है. खटीमा जैसी जगहों में जहाँ रजिस्ट्री वाली जगहें नाम मात्र ही हैं वहां थारू जनजाती की जमीनों पर कब्जे कर और डरा धमकाकर कम दामों में खरीद फरोख्त रहे भू-माफियाओं की चांदी ही चांदी है.  प्रशासन तो पूरे देश में हर जगह नाकाम है तो यहाँ भी प्रशासन द्वारा भू-माफियाओं पर कोई सिकंजा कसने के आसार नजर नहीं आते. जो नीतियाँ जमीन की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए बनायीं जाती हैं वो लागु नहीं हो पाती.. भू-माफियाओं को तराई से अच्छे हालत कहीं और मिल भी नहीं सकते. पहाड़ों से पलायन कर रहे लोग भी खटीमा, सितारगंज आदि जगहों में आ कर बस रहे हैं.  जमीन के दाम आसमान छु रहे हैं. बिना रजिस्ट्री वाली थारू जनजाती की सस्ती जमीनें भू-माफियाओं के व्यवसाय को बढ़ावा ही दे रही हैं.