Thursday, 21 February 2013

हर चूल्‍हे में आग रहे और आग लगे बन्‍दूकों को


उस यात्रा से कवि की तस्‍वीर, जिसका जिक्र इस फ़साने में है

-अशोक कुमार पाण्डेय


कश्मीर बहस-3


'कश्मीर बहस' की तीसरी किस्त में एक कविता बहस को आगे बढाएगी. अशोक जी यह कविता उनकी एक कश्मीर यात्रा से उपजी है.. -मॉडरेटर






कश्मीर जुलाई के कुछ दृश्य

1
पहाड़ों पर बर्फ़ के धब्बे बचे हैं 



ज़मीन पर लहू के 





मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ 

ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता

2
जिससे मिलता हूँ हंस के मिलता है
जिससे पूछता हूँ हुलस कर बताता है खै़रियत

मैं मुस्कराता हूँ हर बार
हर बार थोड़ा और उन सा हो जाता हूँ

3
धान की हरियरी फसल जैसे सरयू किनारे अपने ही किसी खेत की मेढ़ पर बैठा हूँ
ताहद्दे-निगाह चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती
इतनी ख़ूबसूरती
कि जैसे किसी बहिष्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में डाल दिए गए हों प्राण

मैं उनसे मिलना चाहता था आशिक की तरह
वे हर बार मिलते हैं दुकानदार की तरह



और अपनी हैरानियाँ लिए 



मैं इनके बीच गुज़रता हूँ एक अजनबी की तरह

4
ट्यूलिप के बागीचे में फूल नहीं हैं
ट्यूलिप सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा
डरी आँखों और बोलते हाथो से अंदाज़ा लगाता हूँ चित्रलिखित सुंदरता का

हमारी पहचान है घूंघट की तरह हमारे बीच
वरना इतनी भी क्या मुश्किल थी दोस्ती में?

6
रोमन देवताओं सी सधी चाल चलती एक आकृति आती है मेरी जानिब
और मैं सहमकर पीछे हट जाता हूँ





सिकंदर की तरह मदमस्त ये आकृतियाँ
देख सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या से अनवरत 
अगर न दिखाया होता तुमने टीवी पर इन्हें इतनी बार.

6
यह फलों के पकने का समय है
हरियाए दरख्‍़तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट 
खुबानियों में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे

और कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और



क्या फर्क पड़ता है दिल्ली हो या लाहौर! 





7
देवदार खड़े है पंक्तिबद्ध जैसे सेना हो अश्वस्थामाओं की
और उनके बीच प्रजाति एक निर्वासित मनुष्यों की

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी
जहाँ आग लगी वह उनका घर नहीं था
जहाँ गोली चली वह उनका गाँव नहीं था
पर वे थे हर उस जगह

उनके बूटों की आहट थी ख़ौफ़ पैदा करती हुई
उनके चेहरे की मायूसी थी करुणा उपजाती

उनके हाथों में मौत का सामान है
होठों पर श्मशानी चुप्पियाँ

इन सपनीली वादियों में एक ख़लल की तरह है उनका होना
उन गाँवों की ज़िंदगी में एक ख़लल की तरह है उनका न होना

8
(श्रीनगर-पहलगाम मार्ग पर पुलवामा जिले के अवंतीपुर मंदिर के खंडहरों के पास) 

आठवीं सदी सांस लेती है इन खंडहरों में
झेलम आहिस्ता गुजरती है किनारों से जैसे पूछती हुई कुशल-क्षेम
ज़मींदोज दरख्‍़तों की बौनी आड़ में सुस्ता रही है एक राइफल
और ठीक सामने से गुज़र जाती है भक्तों की टोलियाँ धूल उड़ातीं

ये यात्रा के दिन हैं
हर किसी को जल्दी बालटाल पहुँचने की
तीर्थयात्रा है यह या विश्वविजय पर निकले सैनिकों का अभियान?

तुम्हारे दरवाजे पर कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न देवालयों में नहीं जलाता कोई दीप
मैं एक नास्तिक झुकता हूँ तुम्हारे सामने श्रद्धांजलि में 

9
पहाड़ों पर चिनार हैं या कि चिनारों के पहाड़
और धरती पर हरियाली की ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर ने बुनी हो कालीन
घाटियों में फूल जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग की फुलकारियाँ

बर्फ़ की तलाश में कहाँ-कहाँ से आये हैं यहाँ लोग
हम भी अपनी उत्कंठायें लिए पूछते जाते हैं सवाल रास्ते भर

जनवरी में छः-छः फीट तक जम जाती है बर्फ़ साहब तब सिर्फ विदेशी आते हैं दो चार
फिरन के भीतर भी जैसे जम जाता है लहू
पत्थर गर्म करते हैं सारे दिन और गुसल में पानी फिर भी नहीं होता गर्म
समोवार पर उबलता रहता है कहवा...अरे हमारे वाले में नहीं होता साहब बादाम-वादाम
इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब, कश्मीर गुलजार हो गया
अब इधर कोई पंगा नहीं एकदम शान्ति है
घोड़े वाले बहुत लूटते हैं, इधर के लोग को बिजनेस नहीं आता
पर क्या करें साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का है
और घोड़े को पूरे बारह महीने चारा लगता है
आप पैदल जाइयेगा रास्ता मैं बता दूंगा सीधे गंडोले पर
ऊपर है अभी थोड़ी सी बर्फ़.... 

यह आखिरी बची बर्फ़ है गुलमर्ग के पहाड़ों पर
अनगिनत पैरों के निशान, धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ़
मैं डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे
जहाँ जगहें हैं खाली वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ़
जहाँ छावनी है वहाँ जलती आग पर रख देता हूँ एक समोवार
गूजरों की झोपडी में थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता हूँ नुनचा की केतली लिए

मैं लौटूंगा तो मेरी आँखों में देखना
तुम्हें गुलमर्ग के पहाड़ दिखाई देंगे
जनवरी की बर्फ़ की आगोश में अलसाए

10
यहाँ कोई नहीं आता साहब
बाबा से सुने थे क़िस्से इनके
किसी भी गाँव में जाओ जो काम है सब इनका किया
फारुख़ साहब तो बस दिल्ली में रहे या लन्दन में
उमर तो बच्चा है अभी दिल्ली से पूछ के करता है जो भी करता है
आप देखना गांदेरबल में भी क्या हाल है सड़क का..

डल के प्रशांत जल के किनारे
संगीन के साये में देखता हूँ शेख साहब की मजार
चिनार के पेड़ों की छाँव में मुस्कराती उनकी तस्वीर

साथ में एक और क़ब्र है 
कोई नहीं बताता पर जानता हूँ
पत्नियों की क़ब्र भी होती है पतियों से छोटी 

11
तीन साल हो गए साहब
इन्हें अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
उस दिन आर्मी आई थी गाँव में
सोलह लाशें मिलीं पर उनमें इनका लड़का नहीं था
जिनकी लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं

इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलजार हो गया कश्मीर फिर से
बस वे लड़के भी चले आते तो....

12
गुलमर्ग जायेंगे तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर से
वहीं एक गली में घर था हमारा
सेब का कोई बागान नहीं, न कारख़ाने लकड़ियों के
एक दुकान थी किराने की और 
दालान में कुछ पेड़ थे अखरोट के
तिरछी छतों के सहारे लटके कुछ फूलों के डलिए
एक देवदारी था मेरे कमरे के ठीक सामने
सर्दियों में बर्फ से ढक जाता तो किसी देवता सरीखा लगता
हजरतबल की अजान से नींद खुलती थी
अब शायद कोई और रहता है वहाँ ...

वहाँ जाइए तो वाजवान ज़रूर चखियेगा...
गोश्ताबा तो कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार जैसा
डलगेट रोड से दिखता है शंकराचार्य का मंदिर...
थोड़ा दूर है चरारे शरीफ़ ..
पर न अब अखरोट की लकडियों की वह इमारत रही न ख़ानक़ाह
कितना कुछ बिखर गया एहसास भी नहीं होगा आपको
हम ही नहीं हुए उस हरूद में अपनी शाखों से अलग...

मैं तुम्हें याद करता हूँ प्रांजना भट्ट हजरतबल के ठीक सामने खड़ा होकर
रूमी दरवाजे पर खड़ा हो देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय 
डल के किनारे खड़ा बेशुमार  चेहरों के बीच तलाशता हूं तुम्‍हारा चेहरा
चिनार का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह ...

13
जुगनुओं की तरह चमचमाते हैं डल के आसमान पर शिकारे
रंगीन फव्वारों से जैसे निकलते है सितारे इतराते हुए
सो रहे है फूल लिली के दिन भर की हवाखोरी के बाद
अलसा रहा है धीरे-धीरे तैरता बाजार

और डल गेट रोड पर इतनी रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे




अठखेलियाँ रौशनी की, खुशबुओं की चिमगोइयां 
खिलखिलाता हुस्न, जवानियाँ, रंगीनियाँ...

बनी रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है
बनी रहे यह रौनक जब तक देवदार पर है हरीतिमा
हर चूल्हे में आग रहे 
और आग लगे बंदूकों को.
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अशोक कुमार पाण्डेय कवि और लेखक हैं. 

इनकी तीन किताबें,  'मार्क्स-जीवन और विचार' (संवाद प्रकाशन),

'शोषण के अभयारण्य- भूमण्डलीकरण और उसके दुष्प्रभाव' 

तथा कविता संकलन 'लगभग अनामंत्रित'  (शिल्पायन) से प्रकाशित हुई हैं.






कश्मीर बहस के पिछले आलेख यहाँ पढ़ें-







(पत्रकार Praxis से साभार)

कश्मीर की ‘आजादी’, आखिर किसके लिए?

कश्मीर बहस-2                                                 
                                                                     -सत्येंद्र रंजन

"...प्रश्न यह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?..."


संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद बने हालात में कश्मीर के अलगावादी संगठन पुनर्जीवन पाने की कोशिश में हैं। चूंकि अफजल की फांसी लंबे समय तक लटकी रही और इस दौरान इस पर खूब राजनीति हुई, इसलिए यह महज एक न्यायिक-कानूनी घटना नहीं रह गई। जैसे सियासी सोच की एक धारा ने अफजल को आंतकवाद के प्रतीक के रूप में चित्रित किया, वैसे ही कश्मीर की अलगाववादी धारा और भारतीय राज्य के प्रति द्रोह का भाव रखने वाले समूहों/व्यक्तियों ने उसे संघर्ष के प्रतीक के रूप में रख कर देखा। भारत सरकार ने जिस तरह गुपचुप यह कार्रवाई की और अफजल के परिवार को पर्याप्त समय पहले सूचित न करने की एक अमानवीयता बरती, उससे भी एक न्यायिक-वैधानिक कार्य सवालों के घेरे में आ गया। इस कार्रवाई का एक और दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उसके पहले कश्मीर में चर्चित हुई एक घटना पृष्ठभूमि में चली गई, जो अगर चर्चा में बनी रहती तो आजादीस्वायतत्ता और आत्मनिर्णय के अधिकार जैसे शब्दों पर बेहतर समझ बनाने में मददगार बन सकती थी।
इस घटना में तीन युवतियों द्वारा बनाए गए म्यूजिक बैंड- प्रगाश- को बंद करवा दिया गया। यह बैंड दसवीं कक्षा की छात्राओं- नोमा नज़ीर, फराह दीबा और अनीका खालिद ने बनाया था। पिछले दिसंबर में श्रीनगर में अपने एक परफॉरमेंस से उन्होंने श्रोताओं को मुग्ध कर दिया था। लेकिन फरवरी के आरंभ में कश्मीर के मुफ्ती (मौलवी) ने फतवा जारी कर दिया कि उनका गाना गैर-इस्लामिक है। उसके साथ ही सोशल मीडिया पर उन्हें धमकियां मिलने लगीं। इस्लामी कट्टरपंथी महिला संगठन दुख्तराने मिल्लत ने तीन लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी। जो लोग कश्मीर के हालात से वाकिफ हैं, उन्हें मालूम है कि दुख्तराने मिल्लत के समाजिक बहिष्कार का क्या मतलब होता है। इन हालात में उन लड़कियों ने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम पेश करना बंद कर देने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजतन, प्रगाश बंद हो गया है। प्रश्न यह है कि कश्मीर की आजादी का शोर मचाने वालों की नजर में उन लड़कियों की आजादी की क्या अहमियत है?

अब इस बहस को आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है। “आजादी” की बात जम्मू-कश्मीर हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती रही है। बहरहाल, ये सभी नेता इस बात पर सहमत है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।

अगर कश्मीरी पार्टियों और संगठनों के विमर्श पर गौर करें तो उनकी राय में कश्मीर समस्या के समाधान के संदर्भ में मुख्य रूप से दो शब्द उभर कर सामने आते हैं- “आजादी” और “स्वायत्तता”। कुछ साल पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने “स्वशासन” शब्द भी इसमें जोड़ा था, लेकिन वह “स्वायत्तता” से किस अर्थ में अलग है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया।? “आजादी” की बात हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती है। लेकिन इन सभी नेताओं में इस बात पर  सहमति है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।

जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी भारतीय संसदीय राजनीति का हिस्सा हैं, जाहिर है उनका विमर्श भारत के संवैधानिक दायरे में रहता है। नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा 1952 से पहले की स्थिति की बहाली है, जब कश्मीर के मामलों में भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का न्यूनतम दखल था। पीडीपी ने “स्वशासन” या “आउट ऑफ बॉक्स” समाधान की अपनी धारणा की कभी विस्तृत व्याख्या नहीं की, लेकिन यह समझा जाता है कि उसकी सोच नेशनल कांफ्रेंस से बहुत अलग नहीं होगी। वैसे जम्मू-कश्मीर में पक्ष कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक समूह भी हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी की सोच उपरोक्त पक्षों द्वारा उठाई गई मांगों का पूर्णतः प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। भाजपा तो संविधान की धारा 370 को भी खत्म करना चाहती है, जिससे जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा मिला हुआ है, लेकिन जिसके बारे में कश्मीरी पक्षों की शिकायत है कि गुजरते वर्षों के साथ जिसे बहुत कमजोर कर दिया गया है। इस धारा को कमजोर करने का आरोप अक्सर कांग्रेस पर रहा है। इसलिए वैचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र की समर्थक होने के बावजूद व्यवहार में यह पार्टी भी “कश्मीरी पक्ष” की एंटी-थीसीस के रूप में ही देखी जाती है।

कश्मीर में पहल और इस मसले के हल की चर्चा करते समय उपरोक्त राजनीतिक संदर्भ को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस राजनीतिक संदर्भ में “कश्मीरी आकांक्षाओं” को पूरा किया जा सकता है? जाहिर है, इस सवाल के साथ यह अहम हो जाता है कि सबसे पहले इस बारे में ठोस समझ बनाई जाए कि आखिर ये “कश्मीरी आकांक्षाएं” हैं क्या? क्या “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” की शब्दावली में इन्हें समझा जा सकता है? यहां हमें इस सच का भी सामना करना चाहिए कि दशकों से कश्मीर में ये शब्द प्रासंगिक बने रहे हैं और इसलिए इन्होंने वहां आम जन मानस में जगह बना ली है। कश्मीर में शांति और आम हालत कायम करने के लिए भारतीय राष्ट्र को किसी न किसी रूप में इन शब्दों के दायरे में सोचना होगा और ऐसी पहल करनी होगी, जिससे इन शब्दों से जुड़ी आम कश्मीरी भावनाओं से संवाद कायम हो सके।

प्रश्न यह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?

यहां इस बहस में यह पहलू जोड़ने की जरूरत है कि किसी शब्द का अर्थ गतिरुद्ध नहीं होता। वह बदलते समय और मानव के विकासक्रम और समाज की उन्नत होती चेतना के साथ विकसित होता रहता है। अगर “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” को आधुनिक रूप में परिभाषित किया जाए, तो असल में ये शब्द कश्मीर के नाराज तबकों से संवाद में भारतीय राष्ट्र का पक्ष होने चाहिए। सवाल यह है कि एक आम नागरिक के लिए अपनी जिंदगी पर खुद फैसले की “आजादी”, अपने रहन-सहन और पसंद-नापसंद को तय करने की “स्वायत्तता” और उसकी “व्यक्तिगत गरिमा” भारतीय संविधान जैसे आधुनिक दस्तावेज के तहत ज्यादा सुरक्षित हो सकती हैं, या किसी मजहबी व्यवस्था में जहां इंसान की इच्छाएं किसी धर्मग्रंथ और मजहबी रीति-रिवाजों के दायरे में कैद होती हैं? एक महिला के अधिकारों, अपने शरीर और मन पर उसके स्वनियंत्रण के सिद्धांत, आदि के प्रति आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था ज्यादा संवेदनशील है, या दुख्तराने मिल्लत जैसे संगठनों के वो फतवे जो उनके पहनावे, उनके द्वारा इंटरनेट जैसे आज बेहद जरूरी हो गए माध्यम के इस्तेमाल, और सिनेमा जैसे मनोरंजन पर रोक लगाते हैं? “स्वायत्तता” आखिर किसे मिलनी चाहिए- सोपोर, बारामूला, उरी, पुंछ, लेह और लद्दाख के दूरदराज के गांवों में बैठे नागरिकों को, या श्रीनगर में बैठे सत्ताधीशों को? क्या इस बात की गारंटी है कि श्रीनगर को 1952 जैसी “स्वायत्तता” मिल जाने से राज्य के हर बाशिंदे को सुरक्षित जिंदगी, बुनियादी नागरिक अधिकार और अपनी संपूर्ण संभावनाओं को हासिल कर सकने की “आजादी” मिल जाएगी?

असल में न सिर्फ कश्मीर के लिए, बल्कि आज पूरे भारत के संदर्भ में समूह, समुदाय और प्रांत की स्वायत्तता बनाम नागरिक की स्वायत्तता की बहस को छेड़े जाने की जरूरत है। लेकिन इस बहस की स्वीकार्यता बने, इसकी एक बहुत अहम शर्त है। वो शर्त यह है कि पहले भारत सरकार या देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था अपनी एक साख कायम करे। नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए और अन्याय के पक्ष में खड़ी दिखने वाली कोई सत्ता अपनी ऐसी नैतिक साख नहीं बना सकती है।

गौरतलब है कि भारत सरकार संभवतः सिक्यूरिटी लॉबी और भाजपा की उग्रवादी प्रतिक्रियाओं से आशंकित होकर सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून पर वैसी पहल भी नहीं कर पाई है, जिसका वादा प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों ने किया था। इस कानून में संशोधन या इसे कुछ इलाकों से हटाने की मांग नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी कश्मीर की मुख्यधारा पार्टियां भी करती रही हैं। वैसे भी सरकार के लिए जरूरी यह है कि वह इस मांग को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे। वो परिप्रेक्ष्य यह है कि इस कानून में संशोधन की मांग सिर्फ कश्मीर से नहीं उठी है। उत्तर पूर्व के राज्यों- खासकर मणिपुर- में यह पहले से एक बड़ा मुद्दा है। कुछ जानकारों की इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि देश की मौजूदा राजनीतिक संरचना के बीच इस कानून को रद्द करना नामुमकिन है, लेकिन इसकी उन धाराओं में संशोधन जरूर किया जा सकता है, जिनसे सेनाकर्मियों द्वारा ड्यूटी से इतर किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघनों को भी इससे संरक्षण मिल जाता है। सरकार ने कश्मीरी आवाम से संवाद कायम करने के लिए तीन वार्ताकारों की नियुक्ति की थी। उनकी रिपोर्ट में भी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा थी। हाल में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी सिफारिश की है कि महिलाओं पर यौन हिंसा के आरोपी सुरक्षाकर्मियों को इस कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। इन सबके बावजूद अगर सरकार इस कानून में संशोधन को भी तैयार नहीं होती है, तो वह कश्मीरी आवाम से वास्तविक संवाद बनाने की आशा कैसे कर सकती है?    

ढाई साल पहले कश्मीर में पथराव की घटनाओं का सिलसिला बना हुआ था, जिसमें सौ से ऊपर नौजवान मारे गए थे। तब लोकसभा में चर्चा के दौरान जब कुछ सदस्यों ने कश्मीरियों की उचित शिकायतों को दूर करने की मांग की थी। उस पर भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने यह पूछा था कि आखिर ये शिकायतें क्या हैं? फिर उन्होंने जोड़ा था कि कश्मीर में जो लोग सड़कों पर उतर कर पथराव कर रहे हैं, वे रोजगार या आर्थिक पैकेज के लिए नहीं, बल्कि भारत से अलग होने के लिए लड़ रहे हैं। डॉ. जोशी की उस बात में दम था और आज भी है। लेकिन वो बात अधूरी है। यह बात तब पूरी होगी, जब उसके साथ ही यह सवाल भी उठाया जाएगा कि आखिर कश्मीर के बहुत से लोग ऐसा करने पर क्यों मजबूर हुए? इसका एक जवाब यह है कि वे पाकिस्तान द्वारा संचालित संगठनों और इस्लामी कट्टरपंथियों के बहकावे में आ गए। लेकिन इसका एक और जवाब यह हो सकता है कि उन लोगों में भारतीय संविधान के प्रावधानों में भरोसा कमजोर हो गया है। उन्हें यह नहीं लगता कि भारतीय संविधान में नागरिकों की जिन मूलभूत स्वतंत्रताओं और बुनियादी अधिकारों की व्यवस्था की गई है, वो उनके लिए भी हैं। पथरीबल जैसी घटना, जिसमें सीबीआई जांच में सैन्य कर्मचारियों को पांच लोगों की हत्या का दोषी पाया गया, उनके खिलाफ दशक भर बाद सुप्रीम कोर्ट के दखल से कोर्ट मार्शल शुरू हो पाया। पहले मुकदमा इसलिए नहीं चल सका, क्योंकि सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी और ऐसा क्यों नहीं किया, यह भी नहीं बताया। अगर ऐसे उदाहरण हों तो क्या यह कहा जा सकता है कि कश्मीरी लोगों की शिकायत निराधार है? 

आजादी के बाद जब नगालैंड का एक प्रतिनिधिमंडल “आजादी” की मांग करते हुए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिला था, तो पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में जितना मैं आजाद हूं, उतना ही यहां का हर नागरिक और हर नगा आजाद है। पंडित नेहरू की इस बात में हम भारत की एकता का सूत्र देख सकते हैं। लेकिन अगर आजाद भारत में यह बात आज बहुत से लोगों और बहुत से इलाकों को सच नहीं लगती, तो इसका जवाब आखिरकार भारतीय राष्ट्र और राज्य-व्यवस्था को ही ढूंढना होगा कि आखिर ऐसा क्यों है? और क्या बिना ऐसा भरोसा हुए देश के सभी नागरिकों के साथ “आजादी” और “स्वायत्तता” पर पूरी साख के साथ बहस की जा सकती है?

भारतीय संविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। देश की स्वतंत्रता का मतलब हर व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता पर आक्रमण चाहे राजसत्ता की तरफ से हो, या धर्मांध संगठनों या किसी चरमपंथी-उग्रवादी समूह की तरफ से- वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। जब धर्मांध या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं, तो राजसत्ता से यह आशा होती है कि वह व्यक्तियों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करे। लेकिन ऐसा राज्य तभी कर सकता है, जब उन्हीं व्यक्तियों के मन में उसके प्रति भरोसा हो। दुर्भाग्य से कश्मीर में भारतीय राज्य के प्रति यह भरोसा कमजोर पड़ा हुआ है। अतः भारतीय राज्य के सामने पहली चुनौती इस भरोसे को बहाल करने की है, क्योंकि तभी भारतीय संविधान वहां के लोगों को एक सार्थक दस्तावेज लगेगा और वे इसके दायरे में समाधान के लिए तैयार हो सकेंगे। इसलिए भारत के सामने आज जो बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें एक यह है कि संवैधानिक मूल्यों की व्यक्ति के संदर्भ न सिर्फ व्याख्या की जाए, बल्कि उन पर इसी संदर्भ में अमल भी किया जाए।

बहरहाल, यह भी उतना ही जरूरी है कि समूह, समुदाय आदि के अर्थ में स्वायत्तता और आजादी की बात करने वाले गुटों को वैचारिक चुनौती दी जाए। लेकिन यह प्रयास तभी सफल हो सकता है, जब हर व्यक्ति की सुरक्षा, उसकी जिंदगी की संभावनाओं को पूरी तरह हासिल करने का प्रबंध, और उसके नागरिक अधिकारों की हिफाजत को अउल्लंघनीय मूल्य के रूप में स्थापित किया जा सके।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.


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कश्मीर बहस के पिछले आलेख यहाँ पढ़ें-




(पत्रकार Praxis से साभार)





क्या कश्मीर की आज़ादी ही हल है?

-डॉ. मोहन आर्या

अन्तराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर, का राजनीतिक संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार इस चर्चा की वजह बनी है कश्मीर के एक नागरिक को भारतीय चुनावी राजनीति की उठा-पटक के लिए 'जनमानस की सामूहिक अंतरात्मा' की दुहाई देकर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना. अफजल गुरू की फांसी के बाद अखबारों, चैनलों, इंटरनेट और फोन आदि पर रोक लगाते हुये भारतीय राज्य ने समूचे कश्मीर को भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया. यह बताता है कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर है. ऐसे में कश्मीर की आवाम की तरफ से उठती आज़ादी की मांग दुनिया भर के अमनपसंद लोगों को सहमत करती है. लेकिन यह बात इतनी ही सरल भी नहीं है. इसके पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में पर्याप्त बहस भी है. praxis में हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसे हमने 'कश्मीर बहस' नाम दिया है. इसके लिए praxis के पुराने पन्नों को पलट कर एक आलेख फिर आपके सामने रख रहे हैं. जो इस विषय के विस्तार में जाकर इससे जुड़े ज़टिल प्रश्नों को सामने रखता है. उम्मींद है कश्मीर और अन्य राष्ट्रीयताओं के सवाल पर एक स्वस्थ बहस इस आलेख की बुनियाद में खुल सकेगी. इस क्रम में हमारी कोशिश है कि प्रतिक्रियाओं और आलेखों से हम इसे आगे बढ़ाएं. praxis के पाठक ही इसके लेखक भी हैं. आपको ही टिप्पणियों और प्रतिक्रिया आलेखों से इसे आगे बढ़ाना है...

-मॉडरेटर

कश्मीर बहस - 1

-डॉ. मोहन आर्या

'कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा।'
                                                                                         -अरुंधती राय
'राष्ट्र एक ऐसा जन समुदाय होता है जिसका गठन ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है। सामान्य भाषा भौगोलिक क्षेत्र आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना उसकी सामान्य संस्कृति के आवयविक तत्व होते हैं'   
-जोसेफ स्टालिन
'आखिर विभाजन है क्या? भारत का विभाजन अपनी जातियों मध्यवर्ग और जनता के बीच संपर्क की कमी की स्थिति का एक तरह से कानूनी दस्तावेज है।'
-डा0 राम मनोहर लोहिया
'इन मूलभूत सिद्धांतों की सच्चाई को समय ने कम करने के स्थान पर सुदृढ़ ही किया है- समाज का अनिवार्यतः संघीय चरित्र, प्रसव पीड़ा से गुजर रही विष्व अर्थव्यवस्था के साथ संप्रभु राज्यों की संगति न बैठना, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् स्वामित्व के अधिकारों और लोकतांत्रिक विचारों के बीच विरोध, समता विहीन स्वतंत्रता के निरर्थक होने की अवधारणा, मात्र औपचारिक होने के कारण कानून को वैध मानने से इनकार किसी समाज में गंभीर आर्थिक स्थितियों में शासन का प्रभाव धनी लोगों के पक्ष में ही रहना चाहे वह सार्वजनिक मताधिकार पर ही आधारित क्यों न हो।'  
-हेराल्ड जे0 लास्की

हां तक इस लेख के प्रविषय की बात है तो उपर्युक्त चार टिप्पणियां, यदि हम ढेर सारी रियायतें चाहें तो मुख्यतः दो अलग-अलग चिंतनधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। अरुंधती द्वारा उठाए गए मुद्दे का हल इस मुद्दे की प्रकृति की तरह सामयिक नहीं हो सकता। यदि कोई तात्कालिक उपाय निकल भी आए तो आत्मनिर्णय जो किसी भी तरह की अस्मिता उत्पीड़न और अलगाव से वैधता ग्रहण करके संप्रभुता में बदला है ऐतिहासिक रूप से समग्रतया मानवता के लिए हानिकारक तो रहा ही है साथ ही उन मानव समूहों के लिए भी कुछ खास लाभदायक नहीं रहा है जिन्होंने इसकी मांग की थी। अपने आप को विश्व नागरिक मानने वाली अरुंधती और उनके जैसे दूसरे मानवाधिकारवादी इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं।
तथ्यात्मक रूप से अरुंधती की बात एकदम सही है परंतु तथ्य तो यह भी है कि उत्तराखंड राज्य भी भारतीय राष्ट्रराज्य जैसी किसी अवधारणा से हमशा ही ताल्लुक नहीं रखता था। इसे स्थानीय राज्यवंशों से पहले गोरखाओं ने जीता फिर गोरखाओं से अंग्रेजों ने। यही बात कई अन्य राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। तथ्य जो कुछ कहते हैं वह सटीक तो हो सकता है परंतु समीचीन भी हो आवश्यक  नहीं।

अब प्रश्न यह है कि यह तथ्य कश्मीर के लिए ही इतना प्रासंगिक नजर क्यों आता है। और इस तथ्य पर आधारित किसी विचार प्रणाली के कार्यान्वयन के स्वाभाविक और तार्किक परिणाम क्या हो सकते हैं। कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा यह बात कश्मीरियों  के आजादीके संघर्ष को वैधता प्रदान करती है। इस आजादीकी लड़ाई के मूलआधार क्या हो सकते हैं?
· भारतीय राज्य द्वारा 'एएफएसपीए' द्वारा उत्पीड़न। 
· कश्मीरी जनता का अन्य भारतीयों से अलगाव। 
· विलय के समय की स्थितियों व शर्तों से गैर इत्तेफाक। 
· कश्मीरी जनता का एक जमात, जो मुख्य रूप से इस्लामी जमात ही है 'के रूप में पृथक राष्ट्रीयता का दावा। 
· पृथक राष्ट्रीयता के आधार पर आत्मनिर्णय की मांग। 
· आत्मनिर्णय से संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य।

अगर बात यहीं पर समाप्त हो जाए तो शायद विवेकशील और निष्पक्ष मनुष्य संतुष्ट भी हो जाएं। परंतु इससे आगे भी कुछ होगा।
संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का मतलब है एक और नई सीमा, नए वीजा कानून, नई सेना, नई सीक्रेट सर्विस, नया अविश्वास और हो सकता है नया परमाणु बम! विश्व का और अधिक असुरक्षित होना और हथियारों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का और अधिक मुनाफा। जनता की वास्तविक आवश्यकताओं के बजाय राज्य सेना बार्डर बम कूटनीति पर अधिक ध्यान देता है क्योंकि बहुराज्यीय विश्व में किसी भी राष्ट्र-राज्य का यही चरित्र होना है।
कश्मीर या देश के अन्य हिस्सों में भी पृथकतावादी आंदोलनों की समस्या वास्तव में राज्य की आंतरिक संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या है। और इनका समाधान नए आंतरिक संप्रभुओं को पैदा करके नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश शासन के समय मुस्लिम जनता के सांस्कृतिक अलगाव हिन्दुओं द्वारा उत्पीड़न और चुनावी लोकतंत्र में हमेशा के लिए मुस्लिमों के अल्पसंख्यक रह जाने के भय के आधार पर पृथक मुस्लिम राष्ट्रराज्य का जन्म हुआ। जो कि वास्तव में संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या का तदर्थ उपाय ही साबित हुआ है। क्योंकि भाषाई व सांस्कृतिक आधार पर राष्ट्रीयता और पंजाबी लोगों के बांग्ला लोगों पर वर्चस्व के विरुद्ध नए संप्रभु बांग्लादेश का जन्म हुआ। बलूच संप्रभुता के लिए संघर्ष अभी जारी ही है। इस विखंडन और विभाजन की क्या कोई सीमा भी है
कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ब्रिटिश शासित भारतीय उपमहाद्वीप में तीन संप्रभुताओं के पैदा हो जाने से यहां की जनता की समस्याओं को सुलझा लिया गया है। वास्तव में तो जनता को अनचाहे युद्धों धार्मिक उन्माद उग्रराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक दंगों का सबसे अधिक शिकार होना पड़ा है। सबसे गंभीर बात यह है कि एक कड़वाहट मौजूद हो गई है जिसका इतिहास पुराना नहीं है और जिसकी उम्र अभी बहुत लंबी होगी। 
पृथक कश्मीर की अवधारणा में जो सबसे खतरनाक बात है, वह है राष्ट्रीयता को आधार बनाए जाने वाले सिद्धांत। यह आत्मनिर्णय वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता का आत्मनिर्णय है। धार्मिक आधार पर पृथक राष्ट्रीयता को जायज ठहराना कहां तक उचित है। चाहे कितने भी लोकतांत्रिक दावे किए जाएं धार्मिक अस्मिता के आधार पर वैधता ग्रहण करने वाली राष्ट्रीयता लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध ही खड़ी नजर आती है। 
याद कीजिए 'कायदे आजम' मुहम्मद अली जिन्नाह का पाकिस्तान की स्थापना पर दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने जोर दिया अब जब पाकिस्तान बन ही गया है तो यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनेगा।जिन्नाह गलत साबित हुए और कश्मीर के मामले में तो जिन्नाह जैसा कोई धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विशवास रखने वाला नेतृत्व कम से कम हुर्रियत कांफ्रेस के पास तो नजर नहीं आता। जिन्नाह, गिलानी और उनके जैसे नेताओं से साठ सत्तर साल पहले हुए हैं। परंतु विचारों के लिहाज से कहीं अधिक आधुनिक और प्रगतिशील  हैं। 
जिन्नाह के बावजूद पाकिस्तान की परिणति को देखते हुए जिन्नाह जैसों की गैरमौजूदगी में कश्मीर की परिणति की कल्पना की जा सकती है। क्या पृथक कश्मीर  इतना लोकतांत्रिक भी होगा जितना वर्तमान में भारत है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लामिक कट्टरवाद के उभार के इस दौर में संदेह होता है। विवेकशील को संदेह का अधिकार होना ही चाहिए।
तो धार्मिक आधार पर आत्मनिर्णय तो तर्कसंगत नहीं लगता। अब बात करें उत्पीड़न की। 'एएफएसपीए' निसंदेह एक उत्पीड़क अधिनियम है। भारतीय राज्य को जितना लोकतांत्रिक (कम से कम पारिभाषिक रूप से) बताया जाता है यह अधिनियम उससे बिल्कुल भी संगति नहीं रखता। 'एएफएसपीएऔर इसके जैसे तमाम कानून सच्चे लोकतंत्र में मौजूद नहीं होने चाहिए। इनकी मौजूदगी भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक होने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है तथा बताती है कि हमारा लोकतंत्र वास्तव में अधूरा है। 
सशस्त्र सेनाओं को नागरिकों की हत्याओं की खुली छूट नहीं दी जा सकती। उत्पीड़न से अलगाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। परन्तु  प्रश्न इस अधूरे लोकतंत्र को पूरा बनाने का है। पृथक संप्रभु उत्पीड़न के खिलाफ कारगार उपाय नहीं होगा। क्योंकि नया संप्रभु भी किसी न किसी आधार पर उत्पीड़क ही हो जाएगा क्योंकि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में संप्रभुता जिस रूप में है उसे तो उत्पीड़क ही होना है। लड़ाई संप्रभुता के इस स्वरूप को बदलने के लिए होनी चाहिए न कि उसी ढांचे के नए संप्रभुओं को पैदा करने की।
साथ ही यदि अलगाव और उत्पीड़न के आधार पर पृथक संप्रभुत्व को वैधता प्रदान की जाय तो भारत के भीतर पृथक राष्ट्रीयता का दावा करने का पहला अधिकार दलितों का है। याद कीजिए डा0 अम्बेडकर का भाषण जिसमें उन्होंने धर्मान्तरण की अपर्याप्तता एवं देषांतरण के विकल्प पर बात की है। कम्यूनल अवार्ड 1932 के दलितों के पृथक निर्वाचन संघ का तार्किक परिणाम पृथक राष्ट्रीयता ही हो सकता था। परंतु तत्कालीन दलित जनता का इस तरह का राजनीतिकरण हुआ ही नहीं था। ना ही दलित नेतृत्व मुस्लिम नेतृत्व की तरह संपत्तिशाली था और उतने सशक्त दबाव गुट के रूप में काम नहीं कर सकता था। दलित पृथक राष्ट्र की ओर नहीं बढ़े इसके जो भी कारण रहे हों परन्तु यह ऐतिहासिक रूप से समग्रतया अच्छा ही है। क्योंकि पृथक दलित संप्रभु के बीच से अन्य आधारों पर पृथक राष्ट्रीयताओं की मांग नहीं उठती ऐसा सोचना इतिहास को नकारना ही होगा।
यह तो रही उत्पीड़न और अलगाव की बात। अब जोसेफ स्टालिनकी राष्ट्र की परिभाषा की ओर ध्यान दें तो मार्क्सवादियों को सबसे अधिक प्रिय यह परिभाषा कई मायनों में अपर्याप्त है। स्वयं स्टालिन ने अपने वचनों का मोल नहीं रखा था। कौन कह सकता है कि चेचन विद्रोहियों की सामान्य संस्कृति, भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, मनोवैज्ञानिक संरचना नहीं है। तो राष्ट्र बनने की इनकी प्रक्रिया की ऐतिहासिकता को किसने तोड़ा था? स्वाभाविक उत्तर है स्टालिनने। 
द्वितीय विश्वयुद्ध में चेचन विश्वासघातका बदला लेने के लिए स्टालिन ने चेचन्या के साथ जो किया वह सब करते हुए वे एक निष्ठ ुर तानाशाह अतिकेंद्रीयता में विश्वास करने वाली संप्रभुता के प्रवक्ता नजर आते हैं। यदि वह राष्ट्र की अपनी परिभाषा पर कुछ भी विश्वास करते तो चेचन्या को आत्मनिर्णय का अधिकार भले ही न देते लेकिन चेचन राष्ट्रीयता की बात करने वालों को साइबेरिया में निष्कासित तो ना ही करते। परन्तु यह बात ध्यान रखने की है कि पृथक राष्ट्र के संघर्ष में चेचन द्वारा अंजाम दी गई बेसलान स्कूल के नृशंश हत्याकांड को किसी भी तरह से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 
यह इस बात का सबूत है कि एक पक्षीय स्वार्थी हित अच्छे और बुरे के बीच में फर्क करने में असफल होते हैं यह बात स्टालिन और चेचन दोनों पर लागू होती है। यहां भी मूल समस्या तो संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या ही थी। कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत की राष्ट्रीयता के साथ जो किया है चह राष्ट्र की मार्क्सवादी परिभाषा से मेल नहीं खाता। 
भारत के विभाजन पर मार्क्सवादियों के रुख को देखकर लोहिया ने कहा था अपने स्वभाव से कम्युनिस्ट दांव पेंच का स्वरूप ही ऐसा है..... जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए यह सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकतावादी।...
अब तक के अनुभवों से ऐसा लगता है कि जब साम्यवादी कमजोर होते हैं तो उपराष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय का समर्थन करते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो उनका दमन करते हैं। यूएसएसआर की इकाई सदस्यों के पृथक होने के औपचारिक अधिकार का क्रियान्वयन कितना अव्यावहारिक था अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अध्येता अच्छी तरह समझते हैं। जबकि रणनीतिक तौर पर भी बहुराष्ट्रीय राज्य के भीतर मार्क्सवादियों का आंदोलन उन राष्ट्रराज्यों की तुलना में अधिक आसान होना चाहिए जिन्होंने धर्म भाषा या जातीय उत्पीड़न के आधार पर आत्मनिर्णय प्राप्त किया हो। क्योंकि ऐसे राष्ट्रराज्यों में शासकवर्ग जनता को धर्म, भाषा या जातीय राष्ट्रवाद के आधार पर अधिक भुलावे में रखता है। क्या कारण है कि पाकिस्तान में मार्क्सवादी, भारत के मार्क्सवादियों की तुलना में कमजोर हैं। तो कुलमिलाकर ऐसा लगता है कि राष्ट्र को लेकर मार्क्सवादी अवधारणा का केवल अकादमिक महत्व ही है।
अब बढ़ें लोहिया की ओर। लोहिया की यह बात कि भारत का विभाजन, शासक व शासित के बीच जनता, मध्यवर्ग और विभिन्न जातियों के बीच संपर्क के अभाव का कानूनी दस्तावेज है। उपराष्ट्रीयताओं के उद्भव और उनके आत्मनिर्णय में परिणत होने की प्रक्रिया का यह उत्कृष्ट विश्लेषण लगता है। यद्यपि यह सामान्यीकरण प्रतीत होता है परन्तु वास्तविकता तो यही है कि संप्रभु और जनता के बीच खाई और जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच संवादहीनता से ही अलगाव पैदा होता है। उस पर संप्रभु की यह अकड़ कि वह संप्रभुता को अपने ही पास रखेगा (भले ही संप्रभुता जनता में केंद्रित मानी जाय परंतु वास्तव में एक वर्ग विभाजित समाज में वह कुछ खास लोगों के पास ही रहती है।) खास सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली तबकों की स्थिति जब निर्णायक की होती है तो स्थिति और गंभीर हो जाती है। 
एक निश्चित सीमा के बाद इसे संरक्षणात्मक भेदभाव जैसे उपाय नहीं संभाल सकते। रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर आयोग बहुत देरी से की गई पहलें हैं। और इनकी सिफारिशें भी अभी क्रियान्वित नहीं की गई हैं। हालांकि इस तरह के उपायों से प्रारंभ (1950-60) में काफी मदद मिल सकती थी। हालांकि यह कल्पना की उड़ान ही लगेगी परंतु यदि कैबिनेट मिशन द्वारा लागू की गई योजना के गुट संबंधी खंडोंको उसी रूप में क्रियान्वित किया जाता जैसा कि कैबिनेट मिशन योजना का सिद्धांत था तो शायद भारत का विभाजन टल सकता था। 
इन खंडों में केंद्र को कम शक्तियां थी। वह व्यवस्था हमारी वर्तमान व्यवस्था से अधिक संघीय होती। परन्तु इन खंडों का निर्वचन लीग और कांग्रेस द्वारा अलग अलग तरह से किया गया। वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व, लीग की ही तरह साझी संप्रभुता बांटने को तैयार नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी इसी ताक में थे क्योंकि उन्हें विभाजन से एशिया में सोवियत रूस के प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान के रूप में अधिक विश्वस्त सहयोगी मिलने वाला था। नतीजा था विभाजन।
साम्राज्यवादी ताकतें अपनी संप्रभुता को छोड़ने की मुद्रा में दिखाई देने के बावजूद भी ऐसा जाल बिछाती हैं कि वे भविष्य के लिए अपने राष्ट्रीय हित(आंतरिक संप्रभु हित) सुरक्षित रख पाएं। पाकिस्तान की समस्या ही नहीं श्रीलंका की तमिल समस्या के मूल में कहीं ना कहीं उपनिवेशवादी ताकतों का गहरा हित रहा है। दूसरी धुरी की समाजवादी  विश्व  ताकतें जिन्होंने बिना शर्त उपनिवेशों को मुक्त किया था के बारे में ऐसा लगा था कि वे चूंकि सैद्धांतिक रूप से मार्क्सवादी हैं जिनका अंतिम लक्ष्य राज्यविहीन  समाज बनाना है। अतः वे संप्रभुता के विरूद्ध कुछ वैचारिक संघर्ष चलाएंगे। परंतु जब लेनिन ने यह कहा हम आदर्शवादी नहीं हैं और राज्य की आवश्यकता बनी रहेगीतो एक तरह से कार्ल मार्क्स को उन्होंने स्वप्नदर्शी घोषित कर दिया। साथ ही साम्यवाद के रास्ते से अराजकता को प्राप्त करने की आशाऐं भी धूमिल हो गई। अराजकता को प्राप्त करने की आशासे भ्रम में ना पड़ें। समानता स्वतंत्रता और नैसर्गिक भाईचारे से युक्त अराजक समाज ही मनुष्य की आंखों से देखा गया अब तक का सबसे खूबसूरत स्वप्न है। 
साम्यवाद के रास्ते से या ज्यादा स्पष्ट कहना चाहिए साम्यवादियों के रास्ते से आंतरिक संप्रभुता नष्ट नहीं होगी। यह यूएसएसआर और जनवादी चीन के कृत्यों ने दिखा ही दिया है। 1960 के बाद जब यूएसए और यूएसएसआर करीब आए तो कहा जाने लगा कि तकनीकी रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच विचारधाराओं के आधार पर संघर्ष के बिंदु उत्पन्न नहीं होते। तो संघर्ष किन बिंदुओं पर उभरते हैं? उनके-अपने राष्ट्रीयहितों(आंतरिक संप्रभुता) के कारण। पूरे शीतयुद्ध का इतिहास विचारधाराओं का कम और राष्ट्रीयताओं के संघर्ष का इतिहास अधिक है। तत्कालीन रूस और चीन के मतभेदों को भी इसी प्रकाश में देखना चाहिए। 
अब जबकि यूएसएसआर नहीं रहा और चीन भी मार्क्सवाद को त्याग ही चुका है तो यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि राष्ट्रराज्यों के लिए उनके अपने हित ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदगी और इसके विरुद्ध सैद्धांतिक रूप से वैध होने के बावजूद भी आंतरिक संप्रभुता ही विश्व की असुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि एक तरफ तो यह साम्राज्यवाद के विरूद्ध औचित्य ग्रहण करती हुई दिखती है तो दूसरी तरफ इसके स्वाभाविक परिणाम हथियारों की होड़ के माध्यम से साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। दुनिया आज भी आतंक के संतुलन पर चल रही है।
लास्की कहते हैं कि समाज अनिवार्य रूप से बहुलात्मक है। तो राज्य को भी बहुलात्मक होना चाहिए क्योंकि प्रसव पीड़ा से गुजर रही विश्व अर्थव्यवस्था की राष्ट्रराज्यों से असंगति है। उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् अधिकार और लोकतांत्रिक विचारों के बीच अनिवार्य विरोध है। कानून का स्वरूप औपचारिक है। सार्वजनिक मताधिकार के बावजूद शासन वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में है।
तो इन दशाओं में यदि कहीं पृथक संप्रभुत्व की मांग उठती है तो इसे समाधान नहीं मान लेना चाहिए। पृथक संप्रभु समाधान नहीं एक नई समस्या होगा और इस समस्या की कोई सीमा नहीं होगी। कम से कम इतिहास का विवेकतो यही बताता है। समाधान तो यही होगा कि संप्रभुता को जनता में बिखेर दिया जाय और यह उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण किये बगैर संभव नहीं होगा। 
एक वर्ग विभाजित समाज में आर्थिक संप्रभु ही राजनीतिक संप्रभु भी होता है। परंतु उत्पादन के साधनों का सामुहिकीकरण और उससे आंतरिक संप्रभुत्व का विनाश सर्वहारा की तानाशाहीसे होना मुश्किल है। क्योंकि पहले तो जिस पैमाने पर आज बुर्जुआस्वतंत्रता फैल चुकी है उसे लपेटा नहीं जा सकता, दूसरे सर्वहारा की तानाशाही व्यवहार में एक पार्टी की तानाशाही साबित हुई है। इस शासक वर्ग का भी अपनी जनता के साथ अंतर्विरोध हो सकता है। जिससे पुनः अलग संप्रभुत्व की मांग उठ सकती है। याद करें चीन में हान राष्ट्रवाद और उइगर समुदाय के बीच संघर्ष और उइगरों का दमन।
कुल मिला कर ऐसा लगता है कि उत्पीड़न, अलगाव, राष्ट्रीयता आत्मनिर्णय व संप्रभुता की समस्याएं ऊपर से देखने पर चाहे धार्मिक, प्रजातीय, क्षेत्रीय, भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय अस्मिताओं के आधार पर खड़ी हुई प्रतीत हों वास्तव में ये संप्रभुता के केंद्रीयकरण की समस्याएं हैं। इनका समाधान एक विश्व संसद या विश्व समाज जिसमें आंतरिक संप्रभुताएं नष्ट हो चुकी होंगी, उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण हो चुका होगा में ही है। पुनरावृत्ति के साथ कहुंगा कि नई संप्रभुताएं नई समस्याएं होंगी। संप्रभुता को जनता में बिखेर देना ही समाधान है। इसी दिशा में संघर्ष करना होगा।
मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

(पत्रकार Praxis से साभार)