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उस यात्रा से कवि की तस्वीर, जिसका जिक्र इस फ़साने में है |
'कश्मीर बहस' की तीसरी किस्त में एक कविता बहस को आगे बढाएगी. अशोक जी यह कविता उनकी एक कश्मीर यात्रा से उपजी है.. -मॉडरेटर
कश्मीर – जुलाई के कुछ दृश्य
1
पहाड़ों पर बर्फ़ के धब्बे बचे हैं
ज़मीन पर लहू के
मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट
सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
2
जिससे मिलता हूँ हंस के मिलता है
जिससे पूछता हूँ हुलस कर बताता है खै़रियत
मैं मुस्कराता हूँ हर बार
हर बार थोड़ा और उन सा हो जाता हूँ
3
धान
की हरियरी फसल जैसे सरयू किनारे अपने ही किसी खेत की मेढ़ पर बैठा हूँ
ताहद्दे-निगाह चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती
इतनी
ख़ूबसूरती
कि
जैसे किसी बहिष्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में डाल दिए गए हों प्राण
मैं
उनसे मिलना चाहता था आशिक की तरह
वे
हर बार मिलते हैं दुकानदार की तरह
और
अपनी हैरानियाँ लिए
मैं इनके बीच गुज़रता हूँ एक अजनबी की तरह
4
ट्यूलिप
के बागीचे में फूल नहीं हैं
ट्यूलिप
सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा
डरी
आँखों और बोलते हाथो से अंदाज़ा लगाता हूँ चित्रलिखित सुंदरता का
हमारी
पहचान है घूंघट की तरह हमारे बीच
वरना
इतनी भी क्या मुश्किल थी दोस्ती में?
6
रोमन
देवताओं सी सधी चाल चलती एक आकृति आती है मेरी जानिब
और
मैं सहमकर पीछे हट जाता हूँ
सिकंदर
की तरह मदमस्त ये आकृतियाँ
देख
सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या से अनवरत
अगर
न दिखाया होता तुमने टीवी पर इन्हें इतनी बार.
6
यह
फलों के पकने का समय है
हरियाए
दरख़्तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट
खुबानियों
में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे
और
कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक
जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और
क्या
फर्क पड़ता है –
दिल्ली हो या लाहौर!
7
देवदार
खड़े है पंक्तिबद्ध जैसे सेना हो अश्वस्थामाओं की
और
उनके बीच प्रजाति एक निर्वासित मनुष्यों की
‘कहीं
आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी’
जहाँ
आग लगी वह उनका घर नहीं था
जहाँ
गोली चली वह उनका गाँव नहीं था
पर
वे थे हर उस जगह
उनके
बूटों की आहट थी ख़ौफ़ पैदा करती हुई
उनके
चेहरे की मायूसी थी करुणा उपजाती
उनके
हाथों में मौत का सामान है
होठों
पर श्मशानी चुप्पियाँ
इन
सपनीली वादियों में एक ख़लल की तरह है उनका होना
उन
गाँवों की ज़िंदगी में एक ख़लल की तरह है उनका न होना
8
(श्रीनगर-पहलगाम
मार्ग पर पुलवामा जिले के अवंतीपुर मंदिर के खंडहरों के पास)
आठवीं
सदी सांस लेती है इन खंडहरों में
झेलम
आहिस्ता गुजरती है किनारों से जैसे पूछती हुई कुशल-क्षेम
ज़मींदोज
दरख़्तों की बौनी आड़ में सुस्ता रही है एक राइफल
और
ठीक सामने से गुज़र जाती है भक्तों की टोलियाँ धूल उड़ातीं
ये
यात्रा के दिन हैं
हर
किसी को जल्दी बालटाल पहुँचने की
तीर्थयात्रा
है यह या विश्वविजय पर निकले सैनिकों का अभियान?
तुम्हारे
दरवाजे पर कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न
देवालयों में नहीं जलाता कोई दीप
मैं
एक नास्तिक झुकता हूँ तुम्हारे सामने –
श्रद्धांजलि में
9
पहाड़ों
पर चिनार हैं या कि चिनारों के पहाड़
और
धरती पर हरियाली की ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर ने बुनी हो कालीन
घाटियों
में फूल जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग की फुलकारियाँ
बर्फ़ की तलाश में कहाँ-कहाँ से आये हैं यहाँ लोग
हम
भी अपनी उत्कंठायें लिए पूछते जाते हैं सवाल रास्ते भर
जनवरी
में छः-छः फीट तक जम जाती है बर्फ़ साहब तब सिर्फ विदेशी आते हैं दो चार
फिरन
के भीतर भी जैसे जम जाता है लहू
पत्थर
गर्म करते हैं सारे दिन और गुसल में पानी फिर भी नहीं होता गर्म
समोवार
पर उबलता रहता है कहवा...अरे हमारे वाले में नहीं होता साहब बादाम-वादाम
इस
साल बहुत टूरिस्ट आये साहब, कश्मीर गुलजार हो गया
अब
इधर कोई पंगा नहीं एकदम शान्ति है
घोड़े
वाले बहुत लूटते हैं, इधर के लोग को बिजनेस नहीं आता
पर
क्या करें साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का है
और
घोड़े को पूरे बारह महीने चारा लगता है
आप
पैदल जाइयेगा रास्ता मैं बता दूंगा सीधे गंडोले पर
ऊपर
है अभी थोड़ी सी बर्फ़....
यह
आखिरी बची बर्फ़ है गुलमर्ग के पहाड़ों पर
अनगिनत
पैरों के निशान, धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ़
मैं
डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे
जहाँ
जगहें हैं खाली वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ़
जहाँ
छावनी है वहाँ जलती आग पर रख देता हूँ एक समोवार
गूजरों
की झोपडी में थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता हूँ नुनचा की केतली लिए
मैं
लौटूंगा तो मेरी आँखों में देखना
तुम्हें
गुलमर्ग के पहाड़ दिखाई देंगे
जनवरी
की बर्फ़ की आगोश में अलसाए
10
यहाँ
कोई नहीं आता साहब
बाबा
से सुने थे क़िस्से इनके
किसी
भी गाँव में जाओ जो काम है सब इनका किया
फारुख़ साहब तो बस दिल्ली में रहे या लन्दन में
उमर
तो बच्चा है अभी दिल्ली से पूछ के करता है जो भी करता है
आप
देखना गांदेरबल में भी क्या हाल है सड़क का..
डल
के प्रशांत जल के किनारे
संगीन
के साये में देखता हूँ शेख साहब की मजार
चिनार
के पेड़ों की छाँव में मुस्कराती उनकी तस्वीर
साथ
में एक और क़ब्र है
कोई
नहीं बताता पर जानता हूँ
पत्नियों
की क़ब्र भी होती है पतियों से छोटी
11
तीन
साल हो गए साहब
इन्हें
अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
उस
दिन आर्मी आई थी गाँव में
सोलह
लाशें मिलीं पर उनमें इनका लड़का नहीं था
जिनकी
लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं
इस
साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलजार
हो गया कश्मीर फिर से
बस
वे लड़के भी चले आते तो....
12
गुलमर्ग
जायेंगे तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर से
वहीं
एक गली में घर था हमारा
सेब
का कोई बागान नहीं, न कारख़ाने लकड़ियों के
एक
दुकान थी किराने की और
दालान
में कुछ पेड़ थे अखरोट के
तिरछी
छतों के सहारे लटके कुछ फूलों के डलिए
एक
देवदारी था मेरे कमरे के ठीक सामने
सर्दियों
में बर्फ से ढक जाता तो किसी देवता सरीखा लगता
हजरतबल
की अजान से नींद खुलती थी
अब
शायद कोई और रहता है वहाँ ...
वहाँ
जाइए तो वाजवान ज़रूर चखियेगा...
गोश्ताबा
तो कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार जैसा
डलगेट
रोड से दिखता है शंकराचार्य का मंदिर...
थोड़ा
दूर है चरारे शरीफ़ ..
पर
न अब अखरोट की लकडियों की वह इमारत रही न ख़ानक़ाह
कितना
कुछ बिखर गया एहसास भी नहीं होगा आपको
हम
ही नहीं हुए उस हरूद में अपनी शाखों से अलग...
मैं
तुम्हें याद करता हूँ प्रांजना भट्ट हजरतबल के ठीक सामने खड़ा होकर
रूमी
दरवाजे पर खड़ा हो देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय
डल के किनारे खड़ा बेशुमार चेहरों के बीच तलाशता हूं तुम्हारा चेहरा
चिनार
का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह ...
13
जुगनुओं
की तरह चमचमाते हैं डल के आसमान पर शिकारे
रंगीन
फव्वारों से जैसे निकलते है सितारे इतराते हुए
सो
रहे है फूल लिली के दिन भर की हवाखोरी के बाद
अलसा
रहा है धीरे-धीरे तैरता बाजार
और
डल गेट रोड पर इतनी रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे
अठखेलियाँ
रौशनी की, खुशबुओं की चिमगोइयां
खिलखिलाता
हुस्न, जवानियाँ, रंगीनियाँ...
बनी
रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है
बनी
रहे यह रौनक जब तक देवदार पर है हरीतिमा
हर
चूल्हे में आग रहे
और आग लगे बंदूकों को.
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अशोक कुमार पाण्डेय कवि और लेखक हैं.
इनकी तीन किताबें, 'मार्क्स-जीवन और विचार' (संवाद प्रकाशन),
'शोषण के
अभयारण्य- भूमण्डलीकरण और उसके दुष्प्रभाव'
तथा कविता संकलन 'लगभग
अनामंत्रित' (शिल्पायन) से प्रकाशित हुई हैं.
कश्मीर बहस के पिछले आलेख यहाँ पढ़ें-
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