-अंकित फ्रांसिस
(ग्रेटर कश्मीर के प्रकाशक राशिद मख्दूमी
से बातचीत पर आधारित आलेख)
"..कोई एडवाइजरी नहीं जारी की गयी, कोई लिखित सूचना नहीं लेकिन देश की रक्षा और एकता का हवाला दे (दिल्ली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रीझने वाले ध्यान से पढ़े) अखबारों और तमाम तरह के सूचना पहुंचाने वाले माध्यमों पर रोक लगा दी गयी. पूरे कश्मीर को किसी अन्धकार युग में चार दिनों तक इसलिए धकेल दिया गया चूंकि दिल्ली हुकूमत की नींद में कोई डरावना सपना शामिल न हो जाय..."
अंकित फ्रांसिस

ये तो दिल्ली की सुबह की कहानी थी जो की दिन ढलते-ढलते राष्ट्रवादी उन्माद के सुख में तब्दील हो गया. दूसरी तरफ देश का वह हिस्सा जिस पर हमारे सालाना रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है, के लिए इस सुबह की तैयारी देश की सरकार ने पहले ही कर ली थी. जैसे पिछले साठ सालों का अँधेरा कश्मीरियों के लिए काफी ही नहीं था, तिहाड़ में अफजल को फांसी देने के बाद बिना किसी पूर्व सूचना के कश्मीर में कर्फ्यू (हालांकि अलग संविधान और एएफएसपीए जैसे कानूनों के चलते अघोषित कर्फ्यू वहां की हवा में घुले किसी तत्व जैसा ही है) कायम कर दिया गया. इन्टरनेट, केबल टीवी तक को नहीं बख्शा गया. लेकिन जैसे इतना सरकारी अँधेरा जैसे काफी ही नहीं था...ग्रेटर कश्मीर अखबार (कश्मीर का सबसे ज्यादा सर्क्युलेशन वाला अखबार) के प्रकाशक राशिद मख्दूमी बताते हैं की नौ फरवरी को भी किसी आम दिन की ही तरह अखबार पूरी तरह तैयार हो गया था और छपने के लिए ही जाने वाला था. तभी कोठीबाग़ थाने से उन्हें फ़ोन आया की अखबार निकालने पर रोक लग चुकी है, आपने छाप भी लिया तो डिस्ट्रीब्यूट नहीं करने दिया जायेगा. कोई एडवाइजरी नहीं जारी की गयी, कोई लिखित सूचना नहीं लेकिन देश की रक्षा और एकता का हवाला दे (दिल्ली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रीझने वाले ध्यान से पढ़े) अखबारों और तमाम तरह के सूचना पहुंचाने वाले माध्यमों पर रोक लगा दी गयी. पूरे कश्मीर को किसी अन्धकार युग में चार दिनों तक इसलिए धकेल दिया गया चूंकि दिल्ली हुकूमत की नींद में कोई डरावना सपना शामिल न हो जाय.
दिल्ली में बैठे ‘आज़ाद’ लोगों के लिए और खासकर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे छात्रों को ये जानकार ज़रूर आश्चर्य होगा की कश्मीर में बिना किसी पूर्व सूचना के और बिना किसी लिखित आदेश के अख़बारों के छपने और वितरण पर रोक लगा देना आम बात हैं. यह आदेश सिर्फ ऊपर कहीं से जारी होते है और नीचे वालों को उपर वालों की कभी कोई खबर नहीं होती. राशिद बताते हैं की इससे पहले २००९ में अमरनाथ-श्राइन बोर्ड विवाद के दौरान भी अखबारों पर रोक लगा दी गयी थी. इसके बाद २०१० में भी वामिक फारुख नाम के एक बच्चे की हत्या से उपजे विवाद के दौरान भी यही किया गया. राशिद थोडा रुआंसा हो जाते हैं जब बताते हैं की २०१० उनका देखा सबसे बुरा समय था. इस दौरान प्रशासन ने जानबूझकर लोकल मीडिया को निशाना बनाया. उनके अखबार के स्टाफ को ऑफिस पहुचने नहीं दिया जाता था. कोई आने की कोशिश करे और पकड़ा जाये (यह सुनकर आप इफ्तिखार गिलानी को याद कर सकते हैं) तो बेझिझक उस पर तमाम पुलिसिया तरीके की हिंसा की जाती थी. राशिद थोडा अधीर हो जाते हैं जब बताते हैं की कई बार तो कर्फ्यू पास होने के बावजूद प्रेस होने के नाते उन्हें रोक कर रखा जाता या जानबूझकर परेशान किया जाता. कई बार छाप जाने के बावजूद अखबार को बाँटने नहीं दिया जाता. पुलिस स्पष्ट कह दिया करती की रद्दी में बेच दो..और कई बार उनके अखबार को ये करना भी पड़ा. २०१० और २००९ में तो कश्मीर के सभी लोकल अख़बारों ने मिलकर संघर्ष समिति भी बनाई थी. २०१० में धरना भी दिया गया था. लेकिन इस बार की ख़ामोशी तो डरावनी है.
बातों-बातों में राशिद मुझसे भी पूछ बैठते हैं की आप ही बताईये की अगर आज यहाँ पत्रकारों और मीडिया में ही कोई इसके खिलाफ बोलने के लिए तैयार नहीं है तो किसी भी तरह की कोई उम्मीद आम आदमी कैसे और किससे कर सकता है? राशिद ये भी बताते हैं की कई खुफिया सूत्रों के कई बार समझाने पर भी न मानने के चलते उनके अखबार को डीएवीपी मिलना बंद हो गया. उन्हें इसकी वजह बताई गयी की उनका अखबार एंटीनेशनल ख़बरें छाप रहा था. विभाग से जब इस बाबत एंटीनेशनल का आधार पूछा गया तो जवाब में सरकारी अन्धकार ही इनके हिस्से भी आया. इन्हीं वजहों से कैसे उनके अखबार के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न करने की नाकामयाब कोशिश की गयी. यूँ तो कश्मीर में भी पत्रकार यूनियन है लेकिन वह अभी तक भी अखबारों के आपसी झगडे निपटाने के ही काम आती है. किसी भी चीज़ से उम्मीद करना राशिद को अब बेमानी लगता है. राशिद आगे कहते हैं कि पिछले ही साल प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू भी कश्मीर दौरे पर आये थे. उनके सामने ये समस्याएं सभी ने मिलकर रखी थी, उन्होंने भी इसे समझते हुये केंद्र सरकार से इस बारे में बात करने के लिए कहा था. लेकिन दिल्ली जाकर क्या हुआ कुछ पता नहीं.
हो सकता है की आपको राशिद के कुछ विवरण सुनकर किसी मध्यपूर्व (प्रचलित अर्थों में ही समझें) के देश की खुश्बू आने लगे या किसी क्रूर शासक के दौर की कहानियों में आपने ऐसा सुना हो. इससे स्पष्ट भी हो जाता है की ‘अहिंसावादी भारत’, प्रेस की आज़ादी (प्रेस फ्रीडम इंडेक्स २०१३) के मामले में 179 देशों की लिस्ट में 140वें नम्बर पर क्यूँ आता है. स्पष्ट हो जाता है की नेपाल,बांग्लादेश, भूटान और माली भी आप से ऊपर क्यूँ हैं.
बात करने के दौरान ही राशिद हमारे शक में भी साझा हो जाते हैं. वे शक जाहिर करते हैं की ऐसा क्यूँ है कि जैसे ही कश्मीर की स्थिति थोड़ी सुधरती है कुछ ऐसा किया जाता है की पूरी बात फिर से शून्य पर आकर टिक जाती है. राशिद बताते हैं की इस सीजन में सर्दियों में पिछले बीस सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा सैलानी कश्मीर आये. लेकिन अब फिर इस घटना के बाद वही अन्धकार और सन्नाटा थाली में सजाकर कश्मीर के सामने परोस दिया गया है. इन्ही घटनाओं के चलते लोगों की आर्थिक स्थिति ख़राब होती जा रही है. युवाओं में इन घटनाओं से ख़ासा रोष उपजता है. राज्य की आर्थिक स्थिति को इससे कितना नुक्सान हो रहा है इसका अंदाजा लगन भी मुश्किल है. खासकर मीडिया को इस तरह बैन कर देने से किसी तक कोई खबर नहीं पहुँचती और एक अफरा-तफरी, केयोस का माहौल बन जात है. दो ही दिन पहले हम इसी से गुजरे हैं..जब तमाम तरह की अफवाहें इलाके में फ़ैल रही थीं. कितने मरे, किसने मारा कौन मारा या ऐसा कुछ हुआ भी या नहीं इसे वेरीफाई करने के लिए आपके पास कुछ नहीं है. जबकि साकार अगर इमानदार है तो ऐसे समय में मीडिया का अच्छा इस्तेमाल कर सकती है. लेकिन यहाँ नज़ारा दूसरा ही होता है और जानबूझकर पूरे माहौल को बदत्तर बना दिया जाता है.
यहीं से उन सवालों की शुरुआत होती है जिन्हें ज़बान पर लाना कश्मीर में एंटीनेशनल होने का तमगा आपको दिला देता है. क्यूँ एक राज्य के सवा करोड़ लोगों को सिर्फ सुरक्षा की दुहाई दे आप अन्धकार युग में धकेल दिया जाता है. देश की एकता की दुहाई देकर कैसे आप उसी देश के नक़्शे पर मौजूद एक राज्य को नजरबन्द कर देते हैं. क्यूँ कश्मीरी अगर देहरादून या अलीगढ़ में भी अपने हकों को लेकर प्रदर्शन करे तो उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को किसी भी क़ानून के पालन की ज़रूरत नहीं पड़ती. और इन्हें गिरफ्तार होता देख किसी के मन में कोई सवाल नहीं पैदा होता..इसके इतर उसका कश्मीरी होना ही उसके गुनाह की तस्दीक के लिए काफी हो जाता है. सवाल तो यह भी है की बात-बात पर अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाई देने वाली मेनस्ट्रीम मीडिया ने पांच दिन गुजरने पर भी इसके विरोध में कोई बात किसी भी मंच से क्यूँ नहीं उठाई? राशिद और मैं बातों के दौरान ऐसे सवालों के बादलों से घिरे नज़र आये. इनका जवाब न उनके पास था न मेरे पास. मेरे पास कोई तसल्ली भी नहीं थी क्यूंकि जब इतने हो हल्ले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अफजल को एक अदद वकील न दिला सका, जो उसका केस ईमानदारी से लड़ सकता..तो अब और क्या कहा जा सकता है. एक पूरी पीढ़ी जो इस अंधकार की गवाह बन रही है उसे आप कैसे देशप्रेम का अर्थ समझायेंगे... फिलहाल तो अख़बारों पर से लगी रोक हटा ली गयी है लेकिन विशेष रूप से कश्मीर में इस पेशे से जुडी तमाम तरह की परेशानियाँ अब भी ऐसे ही कायम है.
राशिद की तरफ से फोन डिस्कनेक्ट हो जाने के बाद मैं काफी देर तक उस अन्धकार को अपने भी भीतर तहों में कहीं महसूस करता हूँ और तैयार हो जाता हूँ अपनी एक और स्टोरी के रिजेक्शन के लिए....
अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल।
अभी एक साप्ताहिक अखबार में काम कर रहे हैं।
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है।
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