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रोहित जोशी |
"...हमारे देश में नीतियों के स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा 'राष्ट्रहित' जनता के हित से मेल नहीं खाता जब्कि कॉरपोरेट के हित 'राष्ट्रहितों' से एकदम मिलते हैं। ऐसा लगता है जैसे कॉरपोरेट हित ही 'राष्ट्रहित' है और इसके लिए जनहितों की कुरबानी एक व्यवस्थागत् सत्य। इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध परियोजनाऐं बनाती जा रही हैं।..."
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उत्तकाशी में उफनती भागीरथी |
पिछले दिनों उत्तरकाशी से ऊपर के इलाके में बादल फटने से भागीरथी और
असीगंगा का जलस्तर पांच मीटर बढ़ गया और इससे पूरे उत्तरकाशी में भयंकर
तबाही हुई। इसमें 300 से अधिक घर तबाह हो गए, 31 लोग मारे गए। 7 मोटरपुल
ध्वस्त हो गए। ज्योश्याड़ा का महत्वपूर्ण झूला पुल भी टूट गया। 30 किमी की
मुख्य सड़क पूरी तरह टूट गई। बाजार, पुलिस स्टेशन, फारेस्ट का फायर स्टेशन
सब तबाह हो गया। मनेरी भाली परियोजना के फेज 2 में नदी के साथ बह कर आई
लकडि़यों का झुण्ड भर गया जिससे परियोजना भी ठप पड़ गई। इसके बाद तो पूरे
प्रदेश की सारी परियोजनाओं को एक दिन के लिए बंद कर देना पड़ा था।
पहाड़ में अब ये कोई नई बात नहीं रही। पिछले सालों में पूरे प्रदेश
में बादल फटने की घटनाओं और इससे हुई तबाही में इस कदर बढ़ोत्तरी हुई है कि
बरसात का मौसम पहाड़ों में दहशत का मौसम लगने लगा है। पूरे प्रदेश में ऐसा
कोई जिला नहीं बच रहा है जहां इस मौसम में कोई बड़ी तबाही ना आई हो।
बादल फटना और भूस्खलन आदि बेशक अप्राकृतिक नहीं हैं। लेकिन जिस तरह
पिछले समय में इन प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी हुई है यह सिर्फ
प्राकृतिक नहीं है। दुर्लभ मानी जाने वाली बादल फटने की घटनाऐं, तबाही के
वीभत्स मंजर के साथ इतनी आम हो चलीं हैं कि इसकी वजहों की पड़ताल की ही
जानी चाहिए। बेशक मानावीय दखल ने ही इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाया है। कई
हजार सालों से सिर्फ बहते रहने की अभ्यस्त हिमालयी नदियों को जगह-जगह जबरन
रोक कर जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जब झीलें बना दी गई हों तो यहां के
भूगोल और मौसम की ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं तो स्वाभाविक ही हैं। तो हम ये
क्यों ना मान पाएं कि प्रदेश भर में बादल फटने की बढ़ी घटनाओं और इनसे हुई
तबाही के पीछे इन जलविद्युत परियोजनाओं का भी बड़ा हाथ है।
बरसात और बरसात के बढ़कर ‘बादल फट’ जाने की स्थिति पैदा हो जाने को
समझना राॅकेट साइंस की तरह जटिल नहीं है। हम बहुत शुरूआती कक्षाओं में
विज्ञान की किताबों से इसे समझ सकते हैं। पानी के वाष्पन से बादल बनता है
और फिर ये बादल बरस जाता है। यही बरसात है। और पहाड़ों में बादलों का भारी
मात्रा में एक जगह जमा हो कर एक निश्चित इलाके में बेतहाशा बरसना बादल का
फटना है। चंद मिनटों में ही 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है। बादल
फटने की घटना पृथ्वी से तकरीबन 15 किमी की ऊंचाई पर होती है। भारी नमी से
लदी हवा पहाडि़यों से टकराती है इससे बादल एक क्षेत्र विशेष में घिरकर भारी
मात्रा में बरस जाते हैं। यही बादल का फटना है। क्या पहाड़ में
अप्रत्याशित रूप से बादल फटने की बढ़ी घटनाओं में पिछले समय में जलविद्युत
परियोजनाओं के लिए बनाई कई कृत्रिम झीलों से हुए वाष्पन और इससे पर्यावरण
में आई कृत्रिम नमी का कोई योगदान नहीं समझ आता?
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न्यू टिहरी शहर |
न्यू टिहरी में बरसात बहुत है। पुराने लोग बताते हैं कि जब टिहरी
शहर था, वहां झील नहीं थी, तो इस झील के बगल की पहाड़ी में, जहां अब न्यू
टिहरी शहर बना दिया गया है, बरसात बहुत कम होती थी। लेकिन 40 किमी की झील
के बनने के बाद वहां इससे हुए वाष्पन से बादल बनता है और बहुत बरसात होती
है। इस घटना को स्थानीय बोलचाल में ‘लोकल मानसून’ का उठना कहते हैं। यूं ही
ढेर सारी प्राकृतिक झीलों वाले जिले नैनीताल में भी इसी तरह ‘लोकल मानसून’
से बारिश बहुत होती है। बेशक झीलों का पहाड़ों में बरसात को लेकर अपना रोल
है। प्राकृतिक झीलों का तो अपना व्यवहार है, जो अक्सर संतुलित रहता है।
लेकिन कृतिम झीलों के साथ प्रकृति अपना व्यवहार संतुलित नहीं बना पा रही
है। इसका प्रतिफल बादल फटने और बादल फटने से हुए भूस्खलनों के रूप में
दिखता है जिससे हर साल भीषण तबाही हो रही है। हिमालय दुनिया के सबसे ताजा
पहाड़ों में है जिसकी चट्टानें अभी मजबूत नहीं हैं। एक तो यह वजह है और
दूसरी वजह, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए टनल निर्माण में पहाड़ों को
विस्फोटकों के प्रयोग से जिस तरह खोखला और कमजोर कर दिया गया है, इन दो
वजहों से ना सिर्फ बादल फटने बल्कि सामान्य बरसात में भी भूस्खलन त्रासदी
बन रहा है।
टिहरी जैसे दानवाकार बांध के साथ ही पूरे प्रदेश की 17 नदियों में
तकरीबन 558 बांध प्रस्तावित हैं। इनमें से कुछ बन भी चुके हैं और कुछ
निर्माणाधीन हैं। ये बांध अक्सर बड़े बांधों के निर्धारित मानक में ही आते
हैं। इन बांधों के लिए पहाड़ों को खोखला कर 1500 किमी की सुरंगें बनाई
जाएंगी। इन सुरंगों को बनाने में विस्फोटकों का प्रयोग होगा और इससे पहाड़
जितने कमजोर होंगे, सो अलग।
जिस उत्तरकाशी में आज बादल फटने से भागीरथी उफान में आ गई है यहां
मनेरी भाली बांध परियोजना (फेज-1 और फेज-2) की दो झीलें हैं (एक तो बिल्कुल
शहर में और दूसरी इसी नदी में शहर से कुछ ऊपर)। इसी नदी के सहारे आप
तकरीबन 25-30 किमी नीचे उतरें तो चिन्यालीसौड़ में ‘विकास की महान प्रतीक’,
40 किमी लम्बी ‘टिहरी झील’ भी शुरू हो जाती है। स्थानीय लोगों के अनुसार
पिछले समय में इस पूरे इलाके में बरसात काफी बढ़ी है। और ऐसे ही अनुभव हर
उस इलाके के हैं जहां विद्युत परियोजनाओं के लिए कृत्रिम झीलें बनाई गई
हैं।
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टिहरी झील |
पिछले दौर में पर्यावरण को लेकर वैश्विक स्तर पर चिंताएं बढ़ी हैं
और अंतराष्ट्रीय संगठनों के विविध सम्मेलनों में पर्यावरणीय चिंताएं ही
केंद्र में रही हैं। इन सम्मेलनों में मुख्य फोकस अलग-अलग देशों द्वारा
CO2 और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने को लेकर दबाव बनाने का
रहा है। खासकर कम औद्यौगीकृत और विकासशील, तीसरी दुनिया के देशों पर यह
दबाव ज्यादा है। क्योंकि ये देश इन गैसों का उत्सर्जन अपने औद्यौगिक
विकासरत् होने के चलते अधिक करते हैं। इन्हीं देशों के क्रम में भारत भी
है। भारत सबसे अधिक CO2 उत्सर्जित करने वाले देशों में पांचवे स्थान पर है
और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में यह स्थान सातवां है।
जल विद्युत परियोजनाओं के बारे में माना जाता है कि इसमें कार्बन का
उत्सर्जन कम होता है और प्राकृतिक जलचक्र के चलते पानी की बरबादी किए बगैर
ही इससे विद्युत ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है। वहीं कोयले या अन्य ईधनों से
प्राप्त ऊर्जा में मूल प्राकृतिक संसाधन बरबाद हो जाता है और कार्बन का
उत्सर्जन भी अधिक होता है। इस कारण विश्व भर में पर्यावरणविद् ऊर्जा
प्राप्त करने की सारी ही तकनीकों में से हाइड्रो पावर की वकालत करते हैं।
यही कारण है कि भारत भी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर
CO2 और ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करने के मामले अपनी साख सुधारने के लिए
हाइड्रो पावर की ओर खासा ध्यान दे रहा है। पिछले समय में ऊर्जा आपूर्ति की
कमी ही भारत की विकासदर को तेजी से बढ़ाने के लिए सबसे बढ़ी रूकावट रही है।
एक अनुमान के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत की ऊर्जा जरूरत 350 प्रतिशत
बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि भारत को अपनी ऊर्जा उत्पादन की वर्तमान क्षमता
से तीन गुना अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है। सवाल यह है कि यह कहां से पूरी
होगी? जब्कि यह आवश्यकता यहीं पर स्थिर नहीं है बल्कि लगातार बढ़ती जा रही
है।
खैर! अंतर्राष्ट्रीय दबाव में भारत का फोकस अभी कार्बन का उत्सर्जन
कम कर अधिकतम ऊर्जा प्राप्त कर लेने में है और इसके लिए हाइड्रो पावर
परियोजनाएं ही मुफीद हैं। यही राष्ट्रहित में है। हमारे देश में नीतियों के
स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा ‘राष्ट्रहित‘ जनता के हित से मेल
नहीं खाता जब्कि
कॉरपोरट के हित ‘राष्ट्रहितों’ से एकदम मिलते हैं। ऐसा लगता है जैसे
कॉरपोरट हित ही राष्ट्रहित है और इसके लिए जनहितों की कुरबानी एक
व्यवस्थागत् सत्य। इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों की ओर से जबरदस्त
प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध
परियोजनाऐं बनाती जा रही हैं। कार्बन के उत्सर्जन मामले में यह हाइड्रोपावर
परियोजनाएं चाहे पर्यावरण पक्षधर दिखती हों लेकिन अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर हुए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि इन बांध परियोजनाओं ने किस तरह से
मानवीय त्रासदियों को तो जन्म दिया ही है साथ ही प्रकृति के साथ भी बड़ी
छेड़छाड़ की है। इससे मानव सभ्यता के इतिहास में अहम रही कई नदियों के
जलागम, पर्यावरण और जैवविविधताओं पर भी गहरा असर पड़ा है। इन नदियों के
किनारे बसा इन्हीं पर निर्भर समाज भी अपने पूरे अस्तित्व के साथ संकट में
घिर गया है। वल्र्ड कमिशन ऑफ डैम्स (डब्लु सी डी) की एक रिपोर्ट कहती है कि
बांध जरूर कुछ ‘‘वास्तविक लाभ’’ तो देते हैं लेकिन समग्रता में इन बांधों
के नकारात्मक प्रभाव ज्यादा हैं जो कि नदी के स्वास्थ, प्रकृति, पर्यावरण
और लोगों के जीवन को बुरी प्रभावित करते हैं। इसी से प्रभावित करोड़ों
लोगों की पीड़ा और तबाही के प्रतिरोध में बांधों के खिलाफ दुनिया भर में
आंदोलन उभरे हैं। भारत में भी यह प्रतिरोध भारी है। खासकर पूरे हिमालय में
जम्मू कश्मीर से लेकर उत्तरपूर्व तक जनता इन बांधों के खिलाफ आंदोलित है।
सरकारी दमन चक्र, प्रतिरोध की तीक्ष्णता के आधार पर अलग-अलग राज्यों में
अलग-अलग तीव्रता से दमन चलाए हुए है। फिर भी अपने अस्तित्वसंकट से जूझ रही
जनता का आंदोलन अनवरत् जारी है।
सरकार द्वारा भारत में बांध परियोजनाओं को महत्ता देने की उपरोक्त
वजह के अलावा पावर प्रोजेक्टों का बेहिसाब मुनाफा वह दूसरी महत्वपूर्ण वजह
है जिसके लिए पहाड़ी/प्रभावित समाज की अनदेखी कर सरकारें और बांध बनाने
वाली कंपनियां बांधों को लेकर इतनी लालायित हैं। विद्युत ऊर्जा की मांग
असीम है और पूर्ति सीमित। मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुसार विद्युत
ऊर्जा की मांग अधिक और पूर्ति कम होने के चलते इसका मूल्य अधिक है। और यह
स्थिति स्थाई भी है। ऐसा कभी नहीं होने जा रहा कि विद्युत ऊर्जा की पूर्ति
ज्यादा हो जाए और मांग कम रहे। यानि विद्युत उत्पादन उद्योग में निवेश
बाजार की स्थितियों के अनुरूप बिना किसी जोखिम के मुनाफे का सौदा है। यही
वजह है कि कंपनियां इसमें निवेश को लालायित हैं और दलाल सरकारें उन्हें
भरपूर मदद पहुंचा रही हैं।
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सोलन स्थित जेपी कंपनी का सीमेंट प्लांट और कॉलोनी |
इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इतनी बड़ी अनियमितता बिना
प्रशासनिक अधिकारियों की मिली भगत् के संभव नहीं हो सकती। कोर्ट ने इसकी
जांच के लिए एक विशिष्ट जांच दल (एसआईटी) भी बिठाया है। देश भर में बांध
परियोजनाएं ऐसी ही धोखेबाज कंपनियों के हाथों में हैं जो शासन और प्रशासन
के लोगों को खरीद कर बिना किसी सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों के
प्राकृतिक संसाधनों को सिर्फ अपने मुनाफे के लिए बुरी तरह लूट रही हैं।
पर्यावरणीय नुकसानों के साथ ही इसकी कीमत स्थानीय जनता को अपने पूरे
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्थित्व को दाव पर लगाकर चुकानी पड़ रही
है।
अब सवाल यह उठता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर CO2 और ग्रीन हाउस
गैसों के उत्सर्जन को कम करने के दबावों और अपने विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा
जरूरतों को पूरा करने की समस्या से भारत कैसे उबरे? इसके दो जवाब हैं,
पहला कि वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के कम उपभोग की ओर कोई बहस करने को तैयार
नहीं है। जब्कि हमें यह समझना चाहिए कि प्रकृति के पास सीमित संसाधन हैं,
जिनका संभल कर उपयोग करना होगा। पूंजीकेंद्रित अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफा
कमाने की होड़ के चलते लगातार ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं और इसके लिए
दुनियाभर की सरकारें और औद्यौगिक घराने आंखमूंद कर हाथ पांव मार रहे हैं।
इसकी चोट वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों पर पड़ रही
है जहां कि अक्सर आदिवासी या तथाकथित पिछड़ा समाज, प्रकृति से साम्य बना कर
बसा हुआ है। विकास की पूंजीकेंद्रित समझदारी उसे तबाह करते हुए अपनी
जरूरतें पूरी कर लेना चाहती हैं। ऐसे में भारत को, किसी भी कीमत पर ऊर्जा
हासिल कर लेने की वैश्विक होड़ में शामिल हुए बगैर, मानवकेंद्रित रवैया
अपनाते हुए अपनी ऊर्जा जरूरतों को सीमित करने की ओर बढ़ना होगा। दरअसल पूरे
विश्व को यही करने की जरूरत है।
दूसरा जवाब यह है कि ऊर्जा जरूरतों को सीमित कर देने के बाद जिस
ऊर्जा की जरूरत हमें है, उसे जुटा लेना भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से
सम्पन्न देश के लिए मुश्किल नहीं होगा। वर्तमान परिदृश्य में हाइड्रो पावर
के अलावा पर्यावरण सम्मत कोई विकल्प नजर नहीं आता (इसकी वजह यह भी है कि
निहित स्वार्थों के चलते ऊर्जा के कई सुलभ, पर्यावरणपक्षीय और कम खतरनाक
स्रोतों के क्षेत्र में कोई भी शोध/अध्ययन नही ंके बराबर हो रहे हैं)। ऐसे
में यदि हमें हाइड्रोपावर से ही ऊर्जा जुटानी होगी तो, जरूरत है कि हाइड्रो
पावर परियोजनाओं को अधिकतम् जनपक्षीय और पर्यावरणसम्मत् बनाया जाय। इस
क्षेत्र को निजी कंपनीयों को मुनाफा कमाने के लिए खुली छूट के तौर पर नहीं
दिया जा सकता। यह जरूर तय करना होगा कि हाइड्रो पावर उत्पादन में नदियों के
किनारे बसा स्थानीय समाज, पहाड़ों का भूगोल और पर्यावरण तबाह ना हो जा रहा
हो। इसके साथ प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक उस समाज का ही होना चाहिए
जिसने कि इस भूगोल को उसकी सम-विषम परिस्थितियों के साथ, अपने जीने के लिए
चुना है। ऐसे में पहाड़ों में किसी भी किस्म की जल विद्युत परियोजनाओं में
पहाड़ी समाज की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। डब्लु सी डी की रिपोर्ट भी
यही कहती है। बांधों के निर्माण के लिए बड़ी सामाजिक कीमत ना चुकानी पड़े
इसके लिए डब्लूसीडी की रिपोर्ट में कुछ निर्देश दिए हैं जो कि बांध निर्माण
संबंधी निर्णयों को कुछ विशिष्ठजनों द्वारा लिए जाने के बजाय प्रभावित
जनता के साथ भागीदारी का रवैया बनाने की वकालत करती है। इसी तरह के कुछ
प्रयोग, बड़ी और गैरजनपक्षीय बांध परियोजनाओं का विरोध कर रहे
आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड में करने की कोशिश की है। यहां जनभागीदारी से
छोटी जल विद्युत परियोजनाएं बनाने के क्षेत्र में काम किया जा रहा है। इन
आंदोलनकारियों ने इन परियोजनाओं के लिए एक बजट मॉडल भी विकसित किया है।
जिसके अनुसार 1 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना की लागत 4 करोड़ रूपये
होगी। इस धन को आसपास के गांवों के 200 लोगों की सहकारी समिति बनाकर बैंक
लोन आदि तरीकों से जुटाया जाएगा। इस सहकारी समिति के 200 सदस्य ही इस
परियोजना के शेयरधारक होंगे। बजट के अनुसार 1 मेगावाट की विद्युत इकाई से
यदि सिर्फ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो वर्तमान बिजली के
रेट 3.90 रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120.00 रूपये, 24
घण्टे में 74,880.00 रूपये और एक माह में 22,46,400.00 रूपये की इन्कम
होगी। इसी तरह यह आंकडा, सालाना 2,69,56,800.00 रूपये हो जाएगा। ढाई करोड़
से ऊपर की इस सालाना कमाई से इन गांवों की आर्थिकी सुदृढ़ हो सकती है। ये
गांव स्वावलम्बी बन सकते हैं। बजट के अनुसार लोन की 4 लाख प्रतिमाह की
किस्तों को भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25
लाख प्रति माह तन्ख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के साथ ही 200 शेयर धारकों
को 5000 से 8000 रूपया प्रतिमाह शुद्ध लाभ भी होगा। एक बार हाइड्रो पावर
परियोजनाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जाय तो उसके बाद इससे ऊर्जा प्राप्त
कर लेना बेहद सस्ता होता है। नदियों में बहता पानी इसके लिए सहज प्राप्य
कच्चा माल होता है। पहाड़ी गांवों में यदि इस तरह की परियोजनाएं जनसहभागिता
से स्थापित हो जाएं तो यह विकास का स्थाई/टिकाऊ तरीका हो सकता है।
लेकिन इस तरह की परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के कोई भी प्रयास
‘ऊर्जा प्रदेश’ की सरकार नहीं कर रही है। उसके सपनों में तबाही फैलाते बड़े
डैम हैं और मध्य एशिया के देशों के ‘पैट्रो डॉलर’ की तर्ज पर इन डैमों से
बरसता ‘हाइड्रो डॉलर’। उलटा सरकारें इन परियोजनाओं को हतोत्साहित करने में
तुली हुई हैं। दो साल पहले उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के सीमांत गांव
रस्यूना में सरयू नदी में इसी तरह की एक मेगावाट की एक परियोजना के लिए शोध
करने गए, गांधीवादी, आजादी बचाओ आदोलन से जुड़े इंजीनियर और एक कार्यकर्ता
को पुलिस ने माओवादी बताकर गिरफ्तार कर लिया। मार-पीट/पूछताछ के बाद कुछ
प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों की पहल पर उन्हें छोड़ा गया। यह उदाहरण है कि किस
तरह कॉरपोरट के फायदे के इतर वैकल्पिक मॉडलों पर काम कर रहे लोग दमन का
सीधा शिकार हो रहे हैं। इस तरह के वैकल्पिक मॉडल खड़े हो जाना सरकार और
मुनाफाखोर निजी कंपनियों को मंजूर नहीं हैं।
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सरयू घाटी के आंदोलित लोग |
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