Thursday, 30 October 2014

नागपुर सेन्ट्रल जेल से हेम मिश्रा का पत्र

न्याय अपने आप में एक जटिल विषय है। इतिहास में न्याय को हमेशा सत्ताशाली वर्गों ने अपने अनुसार परिभाषित किया है। आज देश-भर की जेलों में हजारों लोग फर्जी मुकदमों और बिना ट्रायल के बंद हैं। इनमें कई राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और उसके अलावा अक्सर अल्पसंख्यक समुदाय, दलित और आदिवासियों की संख्या बहुतायत में है।  
बीते 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र पुलिस ने जेएनयू के छात्र रहे संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की ​अहेरी स्टेशन से गिरफ्तारी दिखाई। साथ में दो आदिवासी युवकों को भी गिरफ्तार दिखाया गया। लेकिन उस वक्त भी यह कहा गया कि हेम मिश्रा की यह गिरफ्तारी दरअसल 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र के ​ही बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से हुई थी। 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने, उन्हें बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया।

इतने लंबे समय तक इस मामले में हेम मिश्रा का कोई भी सीधा वर्जन अब तक नहीं आया था। लेकिन उन्होंने पिछली 16 सितंबर को नागपुर सेंट्रल जेल से अपने पिता को लिखे एक पत्र के साथ ही संलग्न, एक सार्वजनिक पत्र में अपनी आप-बीती बताई है। हेम मिश्रा की कलम से जानिए उनकी आप-बीती.....

-संपादक

दोस्तो, 
पिछले महीने अगस्त की 20 तारीख को महाराष्ट्र की पुलिस द्वारा मेरी गिरफ्तारी किए एक साल पूरा हो गया है। एक संस्कृतिकर्मी और दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहने के बावजूद मुझ पर यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि निवारण कानून) की विभिन्न धाराएं लगाई गई हैं। और नागपुर सेंट्रल जेल के अति सुरक्षा विभाग (High Security Cell) ''अंडा सेल'' की तनहाइयों में रखा गया है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली सत्र न्यायालय (Session Court) ने 6 सितंबर 2014 को मेरी जमानत की अर्जी भी खारिज कर दी है। नागपुर सेंट्रल जेल की इन बंद दीवारों के बीच मुझे न्यायालय से न्याय की किरण फूट पड़ने की उम्मीद थी। लेकिन, न्यायालय ने मेरी जमानत याचिका खारिज कर मेरी इन उम्मीदों पर विराम लगा दिया है।

न्यायालय का यह आदेश प्रकृति द्वारा मुझे दिए गए खुली हवा में जीने के अधिकार के खिलाफ जाता है। आज जनवाद व न्यायपसंद लोगों के संघर्षों की बदौलत सत्ता के शिकार जेलों में बंद हजारों हजार लोगाें की जमानत जल्द से जल्द सुनिश्चित किए जाने के अधिकार का सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। जिसके चलते सर्वोच्च न्यायालय भी इसी नतीजे पर पहुंची है कि सभी न्यायाधीन बंदियों की जमानत के इस अधिकार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। और समय समय पर अपने अधीन न्यायालयों को इस संबंध में दिशा निर्देश भी देते रही है। इसके बावजूद भी सत्र न्यायालय ने मुझेे जमानत देने से इनकार कर मुझसे यह अधिकार छीन लिया है। और मुझ जैसे संस्कृति कर्मी को जेल की इन बंद दीवारों के बीच तनहाइयों में रहने को विवश कर दिया है ।

पिछले साल अगस्त महीने में अपनी गिरफ्तारी से पहले मैं नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र था। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के साथ साथ, देश दुनिया के ज्वलंत विषयों पर होने वाले सेमीनार, पब्लिक मीटिंग, चर्चाओं छात्रों के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष व जातीय उत्पीड़न, कारखानों में मजदूरों के शोषण,भूमि अधिग्रहण कर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, जनवादी आंदोलनों पर दमन और साम्राज्यवाद द्वारा जनता पर थोपे जा रहे युद्धों के खिलाफ होने वाले संघर्षों में भागीदारी मरे छात्र जीवन का हिस्सा थी। छात्रों के इन संघर्षों में सांस्कृतिक प्रतिरोध को अनिवार्य मानते हुए एक संस्कृतिकर्मी के रूप में जनता के संघर्ष के गीतों व नाटकों के जरिए मेरी भागीदारी रहती थी।

एक संस्कृतिकर्मी के रूप में मेरे इस सफर की शुरूआत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा शहर से हुई। मुझे याद है जब मैं अल्मोड़ा से तकरीबन 30 किमी दूर एक अत्यंत पिछड़े हुए अपने गांव से स्कूल की पढ़ाई के लिए इस शहर में आया था, तब पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था। आंदोलन में शामिल नौजवान अक्सर स्कूलों को भी बंद करवाकर हजारों की संख्या में स्कूली छात्रों की राज्य आंदोलन की रैलियों में भागीदारी करवाते थे। इस तरह मैं भी राज्य बनाने के लिए चल रही इस लड़ाई का अंतिम दौर में हिस्सा हो गया। उस आंदोलन में समाज के हर तबके के लोग शामिल थे। छात्र, अध्यापक, कर्मचारी, महिलाएं, मजदूर, किसान, लेखक, पत्रकार, वकील और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे थे। विकास से कोसों दूर उत्तराखंड की महिलाओं के दर्द, युवाओं की बेरोजगारी की पीड़ा, पलायन, बराबरी पर आधारित समाज के सपने और जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की रूपरेखा को अपने गीतों में समाये हुए मशहूर रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा को हजारों हजार जनता के बीच गाते हुए देखना मुझे इन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर खींच लाया।

स्कूली पढ़ाई के बाद जब मैं उच्च शिक्षा के लिए काॅलेज में आया मैंने देखा काॅलेज में उत्तराखंड राज्य आंदोलन से उद्वेलित कई नौजवान अपनी पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों के हकों की लड़ाई व एक जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की लड़ाइयो में भागीदारी कर रहे थे। बराबरी पर आधारित शोषण-विहीन समाज का सपना संजोए, इन छात्रों के साथ मैं भी उन संघर्षों में भाग लेने लगा। जनगीत नाटक व अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां इन संघर्षोें का प्रमुुख हिस्सा बन गए थे। जिनके जरिए हम छात्रों को उनके अधिकारों और समाज में चारों ओर हो रहे शोषण, अन्याय व उत्पीड़न के बारे में जागरूक करते थे।

पृथक राज्य बन जाने के बाद भी उत्तराखंड के पहाड़ों में कुछ भी नहीं बदला। बड़ी-बड़ी मुनाफाखोर कंपनियों द्वारा यहां के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट जनता को उनकी जमीन से बेदखल किया जाना, सरकारों द्वारा बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं पास कर नदियों को देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले कर देना, पर्यावरण के नाम पर सेंचुरी और बड़े पार्क बनाकर जनता को उनके जंगलों पर अधिकारों से वंचित किया जाना, शिक्षित-प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगारी के जलते पलायन, महिलाओं पर अत्याचार, जातीय उत्पीड़न, प्राइवेट कंपनियों में मजदूरों के श्रम की लूट, ये सब कुछ पहले की तरह ही जारी रहा। राज्य में बड़े-2 भूमाफिया, शराब के तस्कर, दिनों दूरनी रात चैगूनी गति से पनपने लगे। सत्ता के नशे में चूूर सरकारें जनता के दुखदर्दों से बेखबर ही रहीं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मंसूरी व मुजफ्फरनगर में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाने वाले और महिलाओं के साथ बलात्कार करवाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों का कुछ नहीं हुआ बल्कि उन्हें तरक्की ही दी गई। 
इस सबसे पैदा हुए असंतोष के कारण इन सवालों को लेकर फिर से अलग-2 आंदोलन होने लगे। मेरा भी इन आंदोलनों में हिस्सा लेना जारी रहा। इन्हीं आंदोलनों के दौरान कई छात्र साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, भूमिहीन किसानों मजदूरों व महिलाओं को राजद्रोह जैसे काले कानूनों में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इन साथियों की रिहाई के लिए हुए आंदोलनों में भी मैंने बराबर भागीदारी की।

उत्तराखंड के कुमाऊं विश्वविद्यालय में गणित विषय के साथ स्नातक व पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीजी डिप्लोमा करने के बाद मैं वर्ष 2010 में चीनी भाषा की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गया। जेएनयू में पढ़ाई के दौरान मुुझे मशहूर चिकित्सक डा. प्रकाश आम्टे के बारे में पता चला। महाराष्ट्र के भमरागढ़ में बेहद पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के बीच उनके स्वास्थ के क्षेत्र में किए गए कार्यों से प्रभावित होकर मैं उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था।

अपनी इसी उत्सुकता के चलते मैं 19 अगस्त 2013 को उनसे मिलने के लिए दिल्ली से चला आया। अगले दिन यानी 20 अगस्त 2013 को तकरीबन सुबह 9:30 बजे बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरने के बाद मैं भमरागढ़ के हेमलकसा में स्थित डा. आम्टे के अस्पताल जाने के लिए वाहन ढूंढने रेलवे स्टेशन से बाहर जाने ही वाला था, तभी किसी ने अचानक पीछे से आकर मुझे अपने हाथों से मजबूती से पकड़ लिया। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता कि मुझे कोई इस तरह क्यों पकड़ रहा है एक के बाद एक 10-12 और लोग आकर मुझ पर झपट पड़े। ऐसी स्थिति में अपने साथ कुछ बुरा होने वाला है सोचकर मैं जोर जोर से चिल्लाने लगा ताकि आस पास से कोई मेरी तदद के लिए आ जाए। मेरे चिल्लाने से खुद को खतरा समझ इन लोगों ने अपने हाथों से मेरा मुंह बंद कर दिया। और मुझे कुछ कदम की दूरी पर खड़ी एक टाटा सुमो नुमा वाहन में ठूंसकर वहां से ले गए। मुझे पता नहीं था कि ये लोग कौन हैं और मुझे इस तरह अपहरण कर कहां ले जा रहे हैं। कुछ ही देर में मेरी आखों सहित पूरे चेहरे को एक काले कपड़े से बांध दिया गया और उनमें से एक ने मेरे दोंनों हाथों को कसकर पकड़ लिया ताकि न तो मैं देख सकूं, कि मुझे कहां ले जाया जा रहा है। और ना ही अपने हाथों से उनके लात-घूसों से अपना बचाव कर पाऊं। चलते हुए, वाहन में मुझे इस तरह पकड़ लिए जाने और कहां ले जाया जा रहा है यह जानने की कोशिश करने पर जवाब में गालियां, धमकी और लात घूसों से मार पड़ती।

इसी तरह लगभग एक घंटे बाद उनमें से किसी एक ने मेरे चेहरे से काले कपड़े को हटाकर अपना आइ कार्ड दिखाया तब मुझे मालूम चला मेरा इस तरह अपहरण करने वाले कोई और नहीं बल्कि खुद गढ़चिरौली पुलिस के स्पेशल ब्रांच के लोग थे। मुझे कहां ले जाया जा रहा है मुझे अब भी इसकी जानकारी नहीं दी गई। इसके लगभग दो घंटे बाद मुझे गाड़ी से उतारकर मेरी आंखों से काली पट्टी हटा दी गई। 
काली पट्टी हटा दिए जाने के बाद मैंने देखा मेरे बांयी ओर एक बड़े मैदान में एक हैलीकाॅप्टर खड़ा है और उसके आस-पास वर्दी में कुछ पुलिस के सिपाही चहलकदमी कर रहे हैं। मेरे दांयी ओर कुछ सरकारी बिल्डिंग्स और मेरे सामने की ओर भी कुछ बिल्डिंग थी। उनमें से एक बिल्डिंग की पहली मंजिल में मुझे ले जाया गया और कमरे में थोड़ी देर रखने के बाद एक अन्य कमरे में ले जाया गया। उस कमरे में ले जाते वक्त मेरी नज़र उस कमरे के बाहर लगी एक नेमप्लेट पर पड़ी। तब जाकर मुझे पता चला कि मुझे गढ़चिरौली पुलिस हैडक्वार्टर में तत्कालीन एसपी सुवैज हक के केबिन में ले जाया जा रहा है। केबिन में एक आलीशान चेयर पर बैठे सुवैज हक को मैंने अपना परिचय दिया और मुझे बिना कारण इस तरह गैर कानूनी तरीके से पकड़ लिए जाने का कारण पूछा। सुवैज हक भी खुद मुझे धमकियां देने लगे। थोड़ी ही देर बाद दो स्थानीय ग्रामीण युवकों को वहां लाया गया। दरअसल, इन युवकों को मेरी ही तरह कहीं पकड़कर यहां लाया गया था। ये वही आदिवासी युवा हैं जिन्हें पुलिस मेरे साथ गिरफ्तार किए जाने का दावा कर रही है। मेरे सामने उन युवकों के साथ जिस तरह बर्ताव किया जा रहा था उससे मैं समझ गया पुलिस द्वारा मुझे इस तरीके से पकड़ने के पीछे क्या मंसूबे हैं।

इसके बाद मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया, जहां अगले तीन दिनों तक मुझ पर पुलिसिया उत्पीड़न के हर तरीके इस्तेमाल किए गए। बाजीराव (जिससे मारने पर शरीर में अधिकतम चोट लगती है और घाव भी नहीं दिखाई पड़ते) से मारा गया। पावों के तलवों में डण्डों से मारा गया। लात-घूंसों से मारा गया और हाथों से पूरे शरीर को नोंचा जाता। इन सब तरीकों से तीन दिनों तक बेहोशी की हालत तक हर रोज मारा जाता था। इन तीन दिनों में एक पल के लिए भी सोने नहीं दिया गया। इन क्रूर यातनाओं भरे तीन दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद मुझे दिनांक 23/08/13 को अहेरी पुलिस थाने के लाॅकअप में ला पटका। इस तरह पकडे जाने के लगभग 80 घंटों के बाद अहेरी के मजिस्ट्रेट कोर्ट में पेश किया गया। मेरे द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद पुलिस ने अब तक मेरे घर में मुझे पकड़ लिए जाने की सूचना भी नहीं दी गई थी। जब मैंने कोर्ट में मजिस्ट्रेट से खुद मेरे घर में सूचना देने की बात कही तब पुलिस ने कोर्ट से ही मेरे परिचितों को सूचना देनी पड़ी। इस दिन मजिस्ट्रेट कोर्ट से मुझे 10 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में ले लिया गया। मुझे 20 अगस्त 2013 को बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से पकड़कर 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने कोर्ट और मीडिया ने मुझे बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया। दरअसल पूरी तरीके से झूठे इस दावे का मकसद 3 दिनों तक मुझे अवैध हिरासत में रखे जाने को कोर्ट और मीडिया के जरिए दुनिया के सामने मेरी गिरफ्तारी को वैध दिखाना था।  
2 सितंबर 2013 को पुलिस द्वारा कोर्ट पेशी में मजिस्ट्रेट से मेरी पुलिस हिरासत को और 14 दिनों के लिए बढ़ा लिया गया। इस तरह कुल 24 दिनों तक मुझे पुलिस हिरासत में रखा गया। इन 24 दिनों तक मुझे अहेरी पुलिस थाने के एक बहुत ही गंदे व बद्बू भर लाॅकअप में रखा गया। लाॅक-अप में मुझे केवल जिंदा भर रखने के लिए खाना दिया जाता था। पहले 10 दिनों तक न तो मुझे नहाने दिया गया और न ही ब्रश करने दिया गया। मुझसे मेरे कपड़े ब्रश, पैसे, आईकार्ड सब कुछ गिरफ्तारी के समय ही छीना जा चुका था। 2 सितम्बर की कोर्ट पेशी के दिन मेरे पिताजी और दोस्तों द्वारा कपड़े, ब्रश, साबुन और रोजाना जरूरत की चीजें दी गई तब जाकर मुझे नहाना, ब्रश करना और इतने दिनों से पसीने में भीग चुके गंदे कपड़ों को बदल पाना नसीब हुआ।

पुलिस हिरासत के 24 दिनों में महाराष्ट्र पुलिस, एसटीएस, आईबी, और दिल्ली, उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश की इंटेलीजेंस ऐजेंसियां मुझे ठीक उसी तरह शारिरिक व मानसिक यातनाएं देती रही जिस तरह तीन दिनों की अवैध हिरासत में दी गईं थी। पुलिस द्वारा मेरे फेसबुक , जीमेल, रेडिफमेल की आईडी, लेकर इनका पासवर्ड भी ट्रेक कर लिया। मुझे पूरा यकीन है पुलिस और इंटेलीजेंस ऐजेंसियां अभी भी मेरे ईमेल और फेसबुक अकाउंट का दुरूपयोग कर रही होंगी।

पूरे देश और दुनिया में मेरी गिरफ्तारी का विरोध होने के बावजूद पुलिस हिरासत में मुझे यातनाएं देने का सिलसिला जारी रहा। इतना ही नहीं पुलिस की योजना में मुझे और भी ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में रखना था। और इसके लिए उन्होंने 16 सितम्बर 2013 को मेरी कोर्ट पेशी के दिन कोशिश भी की लेकिन कोर्ट में मेरे वकील द्वारा हस्तक्षेप करने पर कहीं जाकर इनकी यह कोशिश सफल नहीं हुई। उस दिन मजिस्ट्रेट ने मुझे इस यातना शिविर (पुलिस हिरासत) में न भेजकर न्यायिक हिरासत में सेंट्रल जेल भेज दिया।

नागपुर सेंट्रल जेल पहुंचने पर मुझे जेल के बैरेक संख्या-8 में भेज दिया गया। यह वही बैरेक है जहां मेरी तरह ही देशद्रोह और यूएपीए जैसे जनविरोधी कानूनों में गिरफ्तार किए गए महाराष्ट्र के की युनिवर्सिटियों में पढ़ने वाले छात्र-कार्यकर्ताओं, दलित और लगभग 40 आदिवासी नौजवानों को रखा गया था। झूठे मामलों में फसाए गए इन आदिवासी नौजवानों की संख्या समय के साथ साथ घटते बढते रहती है। जेल में धीरे धीरे समय बीतने पर मुझे इन आदिवासी युवाओं से बातचीत के दौरान, इन्हें महीनों तक पुलिस हिरासत में अमानवीय व क्रूर तरीके से दी गईयातनओं की कहानियां सुनने को मिलीं। 
कानून की किताबों में जल्द गति से ट्रायल (Speedy Trial) चलाए जाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन, इन आदिवासियों में से कोई दो तो कोई तीन और कोई पांच सालों से जेल में यातनाएं झेलने को विवश हैं। न्यूनतम 6 से लेकर अधिकतम 40 तक फर्जी मामलों में जेल में बंद किए गए इन युवाओं के लिए जमानत की उम्मीद करना तो बेईमानी होगी। कोर्ट में महीनों तक इनकी पेशी नहीं होती। कभी एक दो पेशी समय से हो भी जाएं तो अगली पेशी कब होगी इसका कुछ नहीं पता रहता। इनमें से अधिकांश युवाओं के केस गढ़चिरौली सेशन कोर्ट में चल रहे हैं। मेरा केस भी इसी कोर्ट में चल रहा है। इस कोर्ट में प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी की व्यवस्था बंद कर दी गई है। प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी के स्थान पर वीडियो कांफ्रेंस के जरिए कोर्ट पेशी की जाती है। जिसके चलते बंदियों को न तो अपने केस के संबंध में अपने वकील से बात करने का अवसर मिलता है और नहीं जज से।

इस तरीके से होने वाली कोर्ट पेशी में केवल अगली कोर्ट पेशी की तारीख का पता मात्र चल पाता है। अक्सर तकनीकी ख़राबी रहने के कारण यह संभावना भी खत्म हो जाती है। वीडियो कांफ्रेंस के जरिए पेशी में निष्पक्ष ट्रायल (fair trial) संभव नहीं है। जिसके परिणाम स्वरूप् हाल ही में दो आदिवासियों को सजा भी हो गई। 
जेल में बंदियों के लिए अपने परिजनों व वकील से मुलाकात जाली लगी खिड़की के जरिए होती है। जेल के भीतर आकर बंदियों से मुलाकात की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण जाली लगी इस अत्यंत भीड़-भाड़ वाली खिड़की के जरिए 15-20 मिनट के समय में बंदियों की दूर-दूर से आने वाले अपने परिजनों और अपने वकील से केस के संबंध में विस्तृत बात हो पाना बिल्कुल भी संभव नहीं है। 
इस साल 31 जनवरी से जेल में तरह-तरह की यातनाएं झेल रहे 169 जेल बंदियों ने अपनी 4 सत्रीय मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की। इस आंदोलन में यूएपीए, मकोका, व मर्डर के आरोप में जेल में बंद न्यायाधीन बंदी शामिल थे। इस आंदोलन में यूएपीए के केस झेल रही 7 महिलाओं ने भी हिस्सा लिया। आंदोलन की मांगों, जल्द गति से ट्रायल चलाए जाने, न्यायाधीन बंदियों की प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी किए जाने, बेल के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों बेल नाॅट जेल, को लागू कर सभी न्यायाधीन बंदियों को जल्द से जल्द बेल दिए जाने जैसी मांगें शामिल थी। आंदोलन के पहले दिन आंदोलन में भाग ले रहे यूएपीए के केस वाले बंदियों को जेल के अतिसुरक्षा विभाग (High Security Cell) अंडा सेल में भेज दिया गया। जिनमें से सात बंदियों (जिनमें से एक मैं भी हूँ) को 7 महीनों से भी अधिक समय से आज तक भी अंडा सेल में ही रखा गया है। हमें जेल के अंदर अन्य बंदियों से मिलने का कोई अवसर नहीं है। अंडा सेल के अंदर बंद दीवारों के बीच बने अत्यंत छोटे-छोटे बैरेक और उनके सामने मात्र 40 मीटर घूमने की जगह ही हमारा संसार है।

पिछले एक साल में पुलिस हिरासत की यातनाओं और जेल की तनहाइयों के अनुभव व अपनी तरह जेल में बंद अन्य लोगों की कहानियां जानकर मैं यह महसूस करता हूं कि वे तमाम राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां समाज एवं मेरे ही तरह जेल में बंद अन्य बंदियों की रिहाई के लिए कितनी जरूरी हैं। मेरा आप सभी से अनुरोध है, आप मेरी और विभिन्न जेलों में हजारों की संख्या में बंद आदिवासियों, दलित, महिलाओं, गरीब मजदूर किसानों, कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए आवाज़ उठाएं।

date . 16-09-2014   
इसी विश्वास के साथ- 
हेम मिश्रा
यू.टी.न. 56, अतिसुरक्षा विभाग
अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर
महाराष्ट्र

(पत्रकार Praxis से साभार)


Saturday, 25 January 2014

दूर घने जंगल के बीच एकांत में बसे गांव के खड़कुआ की कहानी! -भाग 5

राहुल गंभीरता से नये रोड मैप को चुनावों के ऐन पहले सामने लाकर एक बड़ा धमाका करना चाहता था ताकि इस खबर के धमाके से पैदा हुई लहर पर सवार उसकी और उसके दल की कशती ना सिर्फ पार हो जाय बल्कि तट के बाद भी दूर तक सूखी जमीन पर घिसटती हुई जाय ताकि जल थल पर ये चमत्कार जनता देखे और अभिभूत हो जाय!

कटरीना की बाडी फिटनेस यहाँ और दुरुस्त हो गयी और गोरापन बढ़ गया और रीठे से धोते धोते बाल सुनहरे हो गये इस बदलाव व सादगी ने उसके दिमाग में कई नये विचार दिये उसने कई जेनुइन विषयों पर खुद स्टोरी स्क्रिप्ट लिखनी थीं जो बाद मेँ कटरीना को एक सफल लेखिका और इंटैलैक्टुल अभिनेत्री की नयी ख्याति दिलाने वाली थीँ और कला फिल्मों की एक अमर तारिका के रुप में उसे सालों साल चित्रपट पर अमर करने वाली थीं।

खड़कुआ जैसा गंभीर और सौम्य सब्जी वाला किसी भी बड़बोले चाय वाले से एक बेहतर पी एम साबित होता राहुल की ये अति आम जन को तराश कर संगठन में आगे बढ़ाकर देश की बागडोर संभालने लायक बना देना राहुल को त्यागी तपस्वी बाबा बना देने के लिए काफी था।एक अति पिछड़े जंगल के बीच बसे गाँव के अनपढ़ युवक को पी एम के लायक बना देना राहुल की काबिलियत और त्याग को गुणात्मक रुप से बढ़ाता और कजरीवाला मफलरिया की लहर को रोकने का बेहद कारगर तरीका बनने वाला था भारतीय राजनीति में ऐसा युगपुरुष जो भगवा सफेद को मीलों पीछे छोड़कर अमर नायक राष्ट्रयुवा बनकर अमर हो जाता।

इधर वो भचकती आँख वाला कपटी साधु रात के दो बजे जाग गया और अपनी चिलम- चिमटा लेकर बदन पे भभूत मलकर तैयार हुआ उसे खड़कुआ के गाँव की रेकी करनी थी। उसने अपने झोले में एक डमरु भी रख लिया ताकि जंगल की सुनसान राह पर बजाता चले और जानवर भाग जायें।कपटी साधु कि योजना थी कि सबेरे-सबेरे वो खड़कुआ के घर पहुँचकर उसे चौंका दे।सो उसने खड़कुआ के गाँव का रास्ता पकड़ा पूरे चांद की जुनली रात थी और गांजे की चिलम की मंद प्रमुदित लहर का असर था कपटी साधु लपालप खड़कुआ के गांव को चला जा रहा था।

इस जंगल में साबू और दाबू नाम के दो जिज्ञासु भालू रहते थे साबू और दाबू में खड़कुआ की सब्जियों कंद मूल फल चुराकर खाने को लेकर कई बार लड़ाई हो चुकी थी क्योंकि खड़कुवा के कुत्ते उनको खेतों से खदेड़ देते उनका मूड खराब हो जाता तब वे आपस मेँ लड़कर खार मिटाते फिर जाकर झाड़ियों में सो जाते।

आज भी साबू और दाबू का मूड आफ था खड़कुआ के कुत्तों ने उनको सब्जी के खेतों से भगाया था वे फिर इधर उधर से जिमीकंद खोद खाकर गाँव के बाहर झाड़ियों में सोये थे इस बीच चरस गांजे की लहर पर सवार भचकती आँख वाला कपटी साधु गाँव के पास पहुँचने ही वाला था सो उसने नारा लगाया-"काला सोना,काला धन,स्विस बैंक टनाटन,बम भोले तेरी माया, जब तक मिला हराम का खाया!"अलख निरंजन!इस आवाज से साबू और दाबू की नींद खराब हो गयी और आलरेडी वे चिढ़े हुए भी थे तो जिज्ञासावश कपटी साधु के आगे साबू आ गया मारे डर के वो कपटी पीछे कदम खींचता तो पीछे दाबू खड़ा था! मारे डर के कपटी साधु की आँख भचकनी बंद हो गयी क्या करे? भालू झपटने काटने को बड़े आते थे उसने डमरु बजाना शुरु कर दिया साबू दाबू रुक गये वे संगीत प्रेमी भालू थे डमरु की आवाज पर डांस करने लगे अब कपटी साधु की आफत डमरु बजाना रोके तो भालू काटने दौड़ते डमरु बजाये तो नाचने लगते, तो घंटों बीत गये लगातार डमरु बजता रहा दोनों भालू आनंदित होकर नाचते रहे। कोई दस बजे जब अपने खच्चर पर सब्जियां लादकर खड़कुआ बाजार को जा रहा था तब उसने भालू देखे डमरु की आवाज सुनी तो खड़कुआ ने भालू भगा दिये तब जा के कपटी साधु की जान में जान आयी। कपटी साधु का डमरु बजा बजा के हाथ सूज गया था।खड़कुआ ने साधु को बिठाया होंसला दिया और कहा कि "महाराज अब भालू नी आयेँगे आप मील भर आगे जाकर मेरे घर जाओ वहां आराम करो मैं बाजार से सब्जी बेचकर शाम तक लौट आउंगा" राहुल और कटरीना के बारे में खड़कुआ ने बात छिपा ली। पर कपटी साधु ने तौबा की वो बोला- "ना भाई मैं तो वापस बाजार जाउंगा तुम्हारे साथ में!" कपटी साधु लौट चला और खड़कुआ को लाख धन्यवाद दिया।और मन ही मन कभी खड़कुआ के गाँव न आने की कसम खायी..

उधर कटरीना को रणवीर और सलमान को अपनी कुशलता का पत्र भेजने का एक नायाब तरीका सूझा कि खत भी पहुंच जाये और उसका ठिकाना भी किसी को पता न चले...
तो कटरीना ने कैसे भेजा खत? अगले भाग में पता चलेगा प्रतीक्षा करें।



(जारी.....)



deep-pathak
दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

दूर घने जंगल के बीच एकांत में बसे गांव के खड़कुआ की कहानी भाग-4

जब से कटरीना दुध दुहने लगी घास काटने लगी और राहुल खेती करने लगा खड़कुआ अपने खेती और घर के कामों को विस्तार देकर व्यवस्थित करने लगा राहुल ने अपना समूचा ज्ञान खड़कुआ को दिया जितना भी राहुल को ज्ञान था और कटरीना ने पर्सनैलिटी डवलैपमेंट सिखाया अधिक ज्ञान और पर्सनैलिटी डवलैप के बाद खड़कुआ और नम्र और सौम्य हो गया राहुल की दाढ़ी खूब बढ़ गयी अब वो सही मायनोँ में "राहुल बाबा" लगने लगा।

कटरीना सब्जियों का खेत सींचती तो सब्जियाँ भी सुंदर सुकुमार होने लगीं खड़कुआ अब अंग्रेजी और राजनीति का ज्ञानी हो गया था पर बाहर सभी उसे अनपढ़ सीधा गंवार समझते थे क्योंकि खड़कुआ कभी ज्ञान का प्रर्दशन नहीं करता था।कटरीना को मेहनती खड़कुआ बेहद पसंद आने लगा था पर अभी इस बात के किसी भी इजहार की जरुरत कटरीना को उचित न लगती थी।

उधर राहुल के अज्ञातवास पर मिडिया की मांग पर राहुल की माँ ने एक बाईट दी तो मीडिया ने उस बाईट पर कई बाइट मारी फिर विशलेषकों ने बाईट मारी कुल मिलाकर उस बाईट का विषलेषण कर मिडिया विद्वानों ने बाडी लेँगवेज आदि मिलाकर हजारों अर्थ निकाले समाचार पत्रों पर कव्वों ने चौंच मारी तो और अर्थ निकल आये। यूं भी नेताओं को पता नहीं होता कि उसकी बात के इतने अर्थ भी होते हैं।ठीक इसी तरह जैसे बाईट के अर्थ निकलते हैं वैसे ही हमारे गांव में मरे बैल की सियार भी आतें निकाल लेते हैं गिद्ध हड़ी तोड़कर मज्जा निकाल लेते हैं और बची खुची लोथें कव्वे निकाल लेते हैं बाकी जो बचा वो मक्खियां निकाल लेतीं हैं।

उधर चाय वाले के खिलाफ सब्जी वाले को खड़ा करने की दिशा में राहुल का रोड मैप बन रहा था कटरीना राहुल और खड़कुआ रोज दो टाईम नहाते पूजा पाठ करते और जमकर काम करते पढ़ते सीखते और गंभीरता से भावी कार्ययोजनाऐं बनाते थे।

उधर भचकती आँख वाला वो कपटी साधु गाँव गाँव घूमता-"काला सोना काला धन स्विटरजलेंड टनाटन" बम भोले तेरी माया !जब तक मिला हराम का खाया। अरख निरंजन! बोलता हुआ गांवों की जासूसी करता था ।अभी तक उसे फेरी वाले कबाड़ी वाले नेपाली शाल कंबल बेचने वाले जो भी पहाड़ के गाँवों में बाहरी आदमी दिखे उनकी अपनी चिलम में लगे कैमरे से फोटो लेता और फीडबैक जमाकर उस एल आई यू वाले को देता था पर अभी तक वो खड़कुआ के गाँव नहीं गया क्योंकि वहां जाने में पूरा दिन लग जाता था और वहां से लौटना एक दिन में संभव न था रास्ते में बाघ भालू का भी डर था।पर एक दिन कपटी साधु ने तय कर लिया कि वो खड़कुआ के गाँव जरुर जायेगा क्योंकि एल आई यू वाले ने उसे खुश होकर 5सौ रुपये दिये और फिर हजार का पत्ता देने का वादा किया मारे खुशी और लालच के कपटी साधु की आँख भचकने लगीं थी।

तो क्या भचकती आँख वाला ये कपटी साधु सदी की बड़ी खबर खोज पाऐगा?
क्या होगा राहुल के रोड मैप का?
कटरीना यहां कब तक यूं ही खेती करेगी ?
क्या कटरीना खड़कुआ से प्रेम करने लगेगी?
क्या होगा आगे? जानने के लिए अगले भाग का इंतजार करें।


(जारी.....)






deep-pathak
दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

दूर घने जंगल के बीच एकांत में बसे गांव के खड़कुआ की कहानी! -भाग 3

राहुल के घर में देश की सबसे उम्दा पालिहाउसों में उगी या एकदम प्राकृतिक परिस्तिथियों में उगी आर्गेनिक उत्तम कोटि की फल सब्जियां ही किचन तक आतीं थीं।और खड़कुआ की खेती पूर्णत:आर्गेनिक और विषैली खादों के बिना उगतीं थीं राहुल को पता था कि अगर वो सही माप के आलू टमाटर मटर शिमला गोभी उगाये तो ये देश की मंडियों से छंटकर तुरंत दस जनपथ पहुंच जायेगा नेता उद्योगपति अभिनेता सिने तारिकाऐं आदि देश का सबसे अच्छा खाना खाते थे।अब ये रेंडम ही था कि ये अच्छी सब्जियां हल्द्वानी मंडी से दिल्ली आजादपुर मंडी से होती हुईं राहुल की इच्छित जगह पर पहुंच जायें।

पर खड़कुआ की भक्ति में शक्ति थी और भगवान की उसपर विशेष कृपा थी सो भगवान ने राहुल की सुन ली खड़कुआ जिस लाला को सब्जी बेचता था उसकी जमीन पर एक छोटा आर्गेनिक फार्म बनाकर एक दिल्ली की कंपनी एक वातानूकूलित ट्रक में दिल्ली ले जाती थी एक दिन उस बंदे ने लाला की दुकान में उच्च कोटि के आलू देखे तो उसने कहा कि ये सारे आलू जब भी आयें सीधे मुझे दे दिया करो।इधर राहुल ने खेत से आलू खोदे साफ करे और बड़ी चालाकी से एक आलू के भीतर एक पत्र रख दिया कुछ कोड मैसेज में और यह पत्र वाला आलू तमाम बाधाओं को पार कर राहुल के किचन तक पहुंच गया।उधर राहुल की मां दुखी थी ये लड़का कब अकलदार होगा ना शादी करता है ना PM बनता है उपर से ठीक चुनाव के टैम पर जने कहां भाग गया ये सोचकर राहुल की मां ने राहुल के पसंद की सब्जी खुद बनाने की सोची और आलू काटने गयी तो इत्तफाक से वही आलू हाथ आया जिसमें राहुल का पत्र था राहुल की लिखावट उसकी मां ने पहचान ली और राहुल की कुशल जानकर वो बेहद खुश हुई कि राहुल अब मेहनत से देश संगठन के लिए एक कारगर रोड मैप तैयार कर रहा है।

इधर खड़कुआ जिस लाला को सब्जी बेचता था वहां एक एल आई यू वाला बैठता था उसे शक हुआ कि आजकल खड़कुआ कुछ ज्यादा ही सब्जियां बेचने ला रहा है आखिर बात क्या है उस एल आई यू वाले को खुद तो खड़कुआ के गाँव जाने की ताब न थी पर उसने एक आवारा कपटी भचकती आँख वाले साधु को इस काम के लिए पटाया कि कभी कभार वो गाँवों में घूमा करे कोई बाहरी आदमी दिखे तो सूचित करे हम तुझे गुप्त रुप से मुखबिर वाला ईनाम देंगे और उस कपटी साधु को अत्तर गांजे हेतु 2सौ रुपये दे दिये कपटी साधु तैयार हो गया।उसकी आँखे लालच में भचकने लगी

अब ये कपटी साधु क्या करेगा? क्या राहुल कटरीना का पता चल जायेगा? क्या खड़कुआ के बुरे दिन आयेंगे? राहुल के कारगर रोड मैप का क्या होगा? अगली किस्त का इंतजार करें!


(जारी.....)






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दूर घने जंगल के बीच एकांत में बसे गांव के खड़कुआ की कहानी! भाग-2

अगले दिन सुबह खड़कुआ कटरीना और राहुल बहुत भोर में जाग गये नित्यकर्म से निवृत होकर तिमूर की दातुन की फिर सबने ठंडे पानी से बारी बारी झरने पर रीठे से स्नान किया फिर राख के ढौले से कपड़े धोकर सुखाने टांग दिये तब तक खड़कुआ ने आलू मटर टमाटर की तरकारी रोटी और दूध का नाशता तैयार किया सभी ने नाशता किया और खड़कुआ से कहा कि हमें भी साथ रख लो हम भी खेती बाड़ी करेंगे मिल बांट कर खायेंगे इस बात पर खड़कुआ खुश हो गया और राहुल गोबर साफ करने लगा कटरीना गाय दुहना सीखने लगी फिर वे खेतों की तरफ निकल गये और खेतों मेँ काम करने लगे राहुल जुताई करने लगा कटरीना घास काटने लगी उसने दुपट्टे से अच्छी तरह घूंघट काट रखा था और राहुल ने गमछे से सर बांध रखा था।कटरीना और राहुल मन लगाकर खेतों में काम करने लगे वे तेजी और कुशलता से काम सीखने लगे।

दोपहर डेढ़ बजे खड़कुआ ने दाल भात और तोरी की सब्जी और टमाटर की कढ़ी बनाई सबको भूख लग गयी थी हाथ पाँव धोकर सबने खूब खाना खाया थोड़ी देर आराम करने के बाद सब अपने अपने कामों में जुट गये।

इधर देश में राहुल की तलाश में कई सुरक्षा ऐजेंसियां शहरों में खोजबीन कर रही थी राहुल न मिला तो उनके बेरोजगार होने की आशंका थी और कटरीना की तलाश में सलमान और रणवीर समेत पूरी फिलम इंडस्ट्री जुटी थी।हांलाकि राहुल और कटरीना ने पत्र छोड़े थे कि उनकी चिंता न करें वे कहीँ अज्ञात जगह पर सकुशल हैं।पर कई फिल्में और विज्ञापन कटरीना के बिना अधूरे थे और मायानगरी में इस रुपसी के बगैर सब कुछ अधूरा था।उधर चुनाव सर पर थे और राहुल बाबा गायब थे।मीडिया में रोज नयी कहानियां थीं...

इधर राहुल कटरीना और खड़कुआ मेहनत में लगे थे और इस जिंदगी से बहुत खुश थे।खड़कुआ को अंग्रेजी और राजनीती का ज्ञान राहुल दे रहा था और पर्सनैलिटी डवलपमेंट कटरीना सिखा रही थी बदले में खड़कुआ उनको आम आदमी की जिंदगी की कठिन साधना में सधना सिखा रहा था।

खड़कुआ की खेती इस बार बढ़ने की संभावना थी कटरीना और राहुल खेतों में खूब काम करते और फसल फल सब्जी बेचने खड़कुआ खच्चर पे माल लाद के जाता था कटरीना और राहुल यहां छिपकर मेहनत करते हुए खुश थे और खड़कुआ इन नये मित्रों के आ जाने से खुश था।राहुल कटरीना यहाँ हैं ये खड़कुआ ने किसी को भी नहीं बताया था।खड़कुआ का गाँव सड़क से बहुत दूर था और वहां कोई आता जाता भी न था।लोग पहाड़ों के दूरस्त गाँवों को छोड़ शहर कस्बे सड़क के करीब आ गये थे।

राहुल को इस सादगी में जीते जीते देश में पालिटिकल बदलाव का एक कारगर रोड मैप की सफल योजना समझ में आने लगी जो भारी सफल होनी तय थी।और कटरीना रीठे से बाल धोते धोते सुनहरे बालों वाली पहले से ज्यादा फिट युवती लगने लगी उसकी फिटनेस सुधर गयी और रंग रुप बिना मेकअप और निखर आया।

एक दिन राहुल को अपनी कुशलता का समाचार पहुंचाने का एक नायाब विचार आया उसकी कुशलता की खबर भी पहुंच जाती पर राहुल तक कोई भी लाख कोशिशों से भी न पहुंच पाता।आखिर क्या थी ये योजना? आगे पढ़िए....



(जारी.......)




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दूर घने जंगल के बीच एकांत में बसे गांव के खड़कुआ की कहानी! भाग-1

खड़कुआ ने बचपन से ही भगवान की भक्ति करनी आरंभ कर दी थी वो सबसे प्रणाम करता मीठा बोलता और खूब मन लगाकर मजदूरी का जो भी काम मिले करता था पैसा बचाता दो टैम भोजन करता कोई व्यसन न करता सुबह शाम रीठे से नहाता व उबली राख के गरम ढ़ौले से कपड़े धोता तिमूर की दातुन करता था।

दूर एक गाँव में जहां से लोग अपने घर छोड़ चुके थे वहीं एक पुराने छोटे से पुशतैनी मकान में रहता छोटा साफ सुथरा पुराना मकान था लिपाई पुताई करता सरकारी गल्ले की दुकान से राशन मिटितेल लाकर रखता था सब्जियां खुद उगाता था।बाकी बाजार में बेच आता जो पैसा मिले उससे जरुरत का सामान ले आता था।

अपनी जरुरतें कम से कम रखता खूब मेहनत करता था पढ़ाई लिखाई उसने की नहीं सो भगवान का भजन करता था मां बाप बचपन में ही गुजर गये थे किसी ने अपने होटल में काम पर लगा लिया पर जब हाथ पैर मजबूत हो आये तो वो अपने गाँव लौट आया और कठिन साधना जैसे दिन गुजारने लगा।

खड़कुआ ने अपने खेत खोदे बीज बोये धीरे धीरे अपने खाने भर को अनाज दालें फल सब्जियां उगाने लगा मूली ककड़ी लौकी कद्दू गहत भट्ट राजमा मटर गेहूं धान प्याज आलू धनियां हल्दी अदरक टमाटर शिमला मिर्च गोभी पालक... उसकी मेहनत का सिला मिलने लगा।

जानवरों के नुकसान से फसल बचाने के अनेक तरीके वो खुद सीख गया।धीरे धीरे अपनी मेहनत से खड़कुआ ने एक खच्चर खरीद लिया अपनी फसल बाजार में बेचने लगा तो उसका अच्छा दाम मिलने लगा घर में दो वफादार कुत्ते थे एक जोड़ी बैल और एक दुधारु गाय ।जिंदगी सुबह से शाम तक सातों दिन बारहों महीने लगातार काम मांगती थी और खड़कुआ काम में लगा रहता और भगवान पर गहरी श्रद्धा रखता था।

एक दिन की बात है दिल्ली का एक नौजवान नेता राहुल और मुंबई की एक सिने तारिका कटरीना रात को अपनी जिंदगी के बारे में सोचकर परेशान हो गये भगवान की कृपा से इनके मन में एक ही समय ये विचार आया कि ये अपनी वर्तमान जिंदगी छोड़कर कही दूर पहाड़ों की तरफ चले जायेंगे तो राहुल ने दाढ़ी बढ़ा ली दाढ़ी बढाने में वो माहिर था ही और कटरीना ने आम लड़कियों जैसे कपड़े धारण कर लिए और एक रात चुपचाप ये रेल में बैठकर दिल्ली और मुंबई से भाग गये रेल से उतरे बस में बैठे जहां तक बस जाती थी पहाड़ में वहां तक गये फिर पैदल चल दिये इत्तफाक की बात थी इन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया राहुल को कटरीना के बारे में पता न था ये दोनों चलते चलते जंगल में खड़कुआ के घर पहुंच गये कटरीना ने आम आदमी की तरह दुपट्टा मुंह पे लपेट रखा था और हिंदी टूटी फूटी गंवारों से बदतर उसे आती ही थी और राहुल को गरीबों के घर रात बिताने का अच्छा अभ्यास था।

खड़कुवा ने मेहमानों को भोजन कराया और भगवान को धन्यवाद दिया कि भगवान ने उसे मेहमानों की सेवा का अवसर तो दिया ।रात काफी हो गयी सब थके थे और सो गये कटरीना राहुल और खड़कुवा जमीन में नरम घास भरे सादे बिछौने में गहरी नींद में चैन से सो गये।

उधर देश में टीवी चैनलों में हाहाकार मचा था...सुरक्षा ऐजेंसियां हाई अलर्ट पर थीं यहां खड़कुआ के घर अखबार टीवी रेडियो मोबाइल कुछ न था राहुल और कटरीना यूं तो एक पत्र छोड़कर गये थे पर देश को चिंता थी और कोई भी आला दिमाग उनके यहां होने की बात नहीं सोच सकता था..


(जारी....)




deep-pathak
दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Monday, 13 January 2014

टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष के महानायक

Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी
-इन्द्रेश मैखुरी

"...किसानों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध दादा दौलतराम और नागेन्द्र सकलानी के नेतृत्व में किसानों के संघर्षों को संगठित किया गया.नागेन्द्र सकलानी युवा थे.देहरादून में हाई स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आये थे.टिहरी लौटने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से वे राजशाही के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलनों में ना केवल शरीक हुए बल्कि उन्हें संगठित करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी.डांगचौरा के किसान आन्दोलन में काफी समय तक पुलिस को छकाते रहने के बाद उनकी गिरफ्तारी हो सकी थी.उसके बाद लम्बे अरसे तक राजा की आतातायी कैद में उन्हें रहना पडा..."

नागेन्द्र सकलानी
देश की आजादी के पांच महीने बाद,जनता के शासन की मांग करना और इस मांग के लिए शहादत होना,सुनने में कुछ अजीब सा लगता है. लेकिन उत्तराखंड की तत्कालीन टिहरी रियासत में 11 जनवरी 1948 को दो नौजवानों-नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शाहदत,रियासत में राजशाही से मुक्ति और जनता का शासन स्थापित करने के लिए हुई.देश में आजादी की लड़ाई दो मोर्चों पर लड़ी जा रही थी. एक तरफ अंग्रेजी राज से मुक्ति पाने की लड़ाई थी और दूसरी तरफ राजे-रजवाड़ों की रियासतों में इनके जुल्मी राज से निजात पाने का संघर्ष था.अंग्रेजों से मुक्ति तो 15 अगस्त 1947 को मिल गयी पर टिहरी रियासत के भीतर अंग्रेजों के चले जाने के जश्न से ज्यादा राजा के दमन से मुक्ति पाने की तीव्र खदबदाहट थी.


30 मई1930 में वर्तमान उत्तरकाशी जिले के रंवायीं क्षेत्र में तिलाड़ी में अन्यायी वन कानूनों के खिलाफ सभा करता हुए लोगों का कत्लेआम हुआ. तिलाड़ी के मैदान को तीन तरफ से शाही फ़ौज ने घेरा,जो हिस्सा फ़ौज ने नहीं घेरा था,वहाँ यमुना नदी बह रही था.मैदान में इकठ्ठा हुए लोगों के पास दो ही विकल्प बचे या तो राजा की फ़ौज की गोलियों से मरें या फिर यमुना में कूद कर.इस तरह टिहरी रियासत ने तिलाड़ी में अपना लोकल जलियांवाला बाग़ कांड रच कर,जुल्म करने के मामले में अपने औपनिवेशिक प्रभुओं की बराबरी करने की कोशिश की.25 जुलाई 1944 को 84 दिन के अनशन के बाद श्रीदेव सुमन की शहादत हुई,जो कि राजा के अधीन उत्तरदायी शासन की ही मांग कर रहे थे.

इन बलिदानों के बीच टिहरी रियासत के अन्दर जनता पर राजशाही का दमन जारी रहा.अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो दूर की कौड़ी थी.शांतिपूर्ण सभा,जुलुस प्रदर्शन आदि का अधिकार राजदरबार में बंधक था.नाममात्र की खेती पर भी राजा की तरफ से भारी कर थोप दिए गए थे.दलदली और ढलवां भूमि जिस पर बमुश्किल ही खेती हो पाती थी,उस पर भी 75 से 80 रुपया कर लिया जाता था.जिन क्षेत्रों में आलू उत्पादन अच्छा होता था,वहां इसे बेचने का अधिकार राजा ने आलू सिंडिकेट को दे दिया था.आलू सिंडिकेट वाले किसानों से बेहद मामूली दामों पर आलू खरीदते और उन्हें बाहरी प्रदेशों में ऊँचे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमाते थे.

किसानों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध दादा दौलतराम और नागेन्द्र सकलानी के नेतृत्व में किसानों के संघर्षों को संगठित किया गया.नागेन्द्र सकलानी युवा थे.देहरादून में हाई स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आये थे.टिहरी लौटने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से वे राजशाही के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलनों में ना केवल शरीक हुए बल्कि उन्हें संगठित करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी.डांगचौरा के किसान आन्दोलन में काफी समय तक पुलिस को छकाते रहने के बाद उनकी गिरफ्तारी हो सकी थी.उसके बाद लम्बे अरसे तक राजा की आतातायी कैद में उन्हें रहना पडा.

राजा के जेल में कैसी नारकीय स्थितयां थी इसका अंदाजा नागेन्द्र सकलानी के कर्मभूमि साप्ताहिक में छपे पत्रों,जिन्हें प्रसिद्द इतिहासकार डा.शिव प्रसाद डबराल “चारण” ने अपनी पुस्तक-उत्तराखंड का इतिहास-भाग 6*टिहरी-गढ़वाल राज्य का इतिहास (1815-1949) में उद्धृत किया है, से पता चलता है.उक्त पत्रों के अनुसार जेल में ऐसे फटे-पुराने कम्बल दिए जाते थे,जिन पर गंदगी के चलते मक्खियाँ भिनभिना रही होती थी.इसी तरह के कपडे पहनने को भी दिए जाते थे.भीषण ठण्ड में कपड़ों के अभाव में बंदी सो भी नहीं पाते थे.नागेन्द्र सकलानी अपने एक पत्र में लिखते हैं कि “ऐसा प्रयत्न किया जाता था कि राजनीतिक बंदी दरबार के सम्मुख घुटने टेक दे.” शाह वंशीय टिहरी के राजाओं की न्याय व्यवस्था कितनी अन्यायकारी थी,इसका अंदाजा जेल में रहते हुए नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलत राम द्वारा 10 फरवरी 1947 को किये गए अनशन की मांगों से लगाया जा सकता है.

किसान आन्दोलन के दौरान छीनी गयी संपत्ति की वापसी और अन्य मांगों के साथ उनकी एक मांग यह भी थी कि या तो उनपर लगाए गए आरोप वापस हों या फिर उनपर लगे अभियोगों की सुनवाई ब्रिटिश अदालत में हो.जिन अंग्रेजों के न्याय के पाखण्ड को भगत सिंह और उनके साथी पहले ही बेपर्दा कर चुके थे,टिहरी रियासत के राजनीतिक बंदी यदि उन अंग्रेजों की अदालत में इन्साफ पाने की कुछ उम्मीद देख पा रहे थी तो इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि टिहरी रियासत की अदालतों में राजा की स्वेछाचारिता के अलावा न्याय की कोई अन्य कोटि रही ही नहीं होगी.

बहरहाल नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलत राम के उक्त अनशन का समाचार फ़ैलने पर बड़ी राजनीतिक हलचल हुई.देशी राज्य लोकपरिषद,कांग्रेस,कम्युनिस्ट पार्टी,टिहरी राज्य प्रजामंडल और प्रवासी गढ़वालियों की संस्थाओं ने तत्काल राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की.मजबूरन राजा को घोषणा करनी पड़ी कि 21 फरवरी 1947 को राजनीतिक बंदियों को मुक्त कर दिया जाएगा.

20 फरवरी 1947 को  ब्रिटेन की संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने जून 1948 से पहले भारत से अंग्रेजी राज के रुखसत होने का ऐलान कर दिया था.जिस समय जवाहरलाल नेहरू के आह्वान पर देसी राज्यों की कई रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा में हिस्सा लेने आ रहे थे,लगभग उसी वक्त टिहरी के राजा ने “टिहरी गढ़वाल मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट” पर दस्तखत कर दिए.इसके तहत राजदरबार के किसी भी कर्मचारी को राज्य की व्यवस्था भंग करने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था.स्पष्ट तौर पर यह राजशाही के विरुद्ध उठने वाले प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया गया था.जहां राजा देश में चल रही बदलाव की लहर को अनदेखा करते हुए अपना दमनकारी शासन कायम रखना चाहता था,वहीँ प्रजा हर हाल में राजशाही की गुलामी से मुक्ति पाना चाहती  थी.

जनता की इस मुक्ति की चाह और नागेन्द्र सकलानी जैसे नेत्रित्वकारियों के साहस का परिणाम था कि टिहरी रियासत के भीतर सकलाना से शुरू होकर जगह-जगह आजाद पंचायतें कायम होने लगी.इन आजाद पंचायतों ने राज कर्मचारियों को खदेड़ दिया,पटवारी चौकियों पर कब्जा कर लिया,शराब की भट्टियां तोड़ डाली और राजधानी टिहरी पर कब्जा करने के लिए सत्याग्रही भर्ती करने का ऐलान किया.कीर्तिनगर में ऐसी ही आजाद पंचायत के गठन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से नागेन्द्र सकलानी और त्रेपनसिंह पहुंचे थे.

10 जनवरी 1948 को नागेन्द्र सकलानी की अगुवाई में कीर्तिनगर में सभा हुई और वहां राजा के न्यायालय पर कब्जा कर,उसपर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर आजाद पंचायत की स्थापना की घोषणा कर दी गयी.11 जनवरी को राजा के सब डिविजनल ऑफिसर(एस.डी.ओ.) और पुलिस सुपरिंटेंडेंट के नेतृत्व में पुलिस ने  न्यायालय पर कब्जा करना चाहा.लोगों ने उन्हें बंधक बनाने की कोशिश की.एस.डी.ओ. के आदेश पर आंसू गैस के गोले लोगों पर छोड़े गए.क्रुद्ध जनता ने राजा के न्यायालय भवन पर आग लगा दी.आग लगी देख एस.डी.ओ. और पुलिस सुपरिंटेंडेंट जंगल की तरफ भागने लगे.नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी उन्हें पकड़ने दौड़े तो एस.डी.ओ. ने उनपर गोली चला दी,जिससे दोनों शहीद हो गए.

पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में दोनों शहीदों का जनाजा टिहरी ले जाया गया और राजाओं के शमशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया.अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को गद्दी सौंप कर भी राज्य पर नियंत्रण रखने वाले राजा नरेन्द्र शाह को टिहरी के अन्दर नहीं घुसने दिया गया.टिहरी में प्रजामंडल के नेतृत्व में अंतरिम सरकार गठित हुई और 1949 में टिहरी का भारत में विलय हो गया. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी(ये कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीद्वार सदस्य थे) की शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई.

यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस राजशाही से मुक्ति पाने के लिए इतनी शहादतें और कुर्बानियां हुई,पहले लोकसभा चुनाव में उसी राजपरिवार की राजमाता कमलेन्दुमती शाह टिहरी संसदीय सीट से लोकसभा में जनता की प्रतिनिधि हो गयी.फिर दूसरी लोकसभा से चौथी लोकसभा तक और दसवीं लोकसभा से चौदहवीं लोकसभा में अपने जीवन के अंतिम समय तक मानवेन्द्र शाह,जिनका राजपाट बचाने के लिए नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की ह्त्या हुई,वे “जनता का प्रतिनिधित्व” करते रहे. पंद्रहवीं लोकसभा में टिहरी सीट के लिए हुए उपचुनाव में उनकी बहु मालाराज्लाक्ष्मी शाह सांसद हो गयीं. 

मानवेन्द्र शाह की राजनीतिक यात्रा तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस और आज राष्ट्रभक्ति की सबसे बड़ी झंडाबरदार भाजपा के अवसरवाद को भी साफ़ करती है. दूसरी से चौथी लोकसभा यानि 1957 से 1970 तक मानवेन्द्र शाह कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे और दसवीं लोकसभा यानि 1991 से चौदहवीं लोकसभा में अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भाजपा के टिकट पर लोकसभा पहुँचते रहे. एक तरफ देश के लिए कुर्बान होने वालों की हिमायत और दूसरी तरफ जलियांवाला बाग़ काण्ड की छोटी-बड़ी प्रतिकृति रचने वालों को जनता का प्रतिनिधि बनवा देने,दोनों विपरीत ध्रुवी कामों को इन्होने बखूबी साधा हुआ है. यह हमारे लोकतंत्र का विद्रूप ही कहा जाएगा कि रियासतों-रजवाड़ों के राजा-महाराजा, आजादी के बाद लोकतंत्र के राजा हो गए.

नागेन्द्र सकलानी ने राजा के मातहत उत्तरदायी शासन और सभा,जुलूस,प्रदर्शन आदि करने की मांगों तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उस समय राजशाही द्वारा लगाए तमाम तरह के कर और अकाल की मार से कराह रही आम जनता तथा किसानों के साथ ना केवल उन्होंने स्वयं को एकताबद्ध किया बल्कि आगे बढ़कर उनका नेतृत्व किया.राजशाही को उखाड़ फैंकने और आजाद पंचायतों की स्थापना के अगुवा नेता तो वे थे ही. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादात ना केवल टिहरी रियासत के विरुद्ध निर्णायक शहादत थी,बल्कि यह जनता की मुक्ति के संघर्ष और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की बलिदानी,क्रांतिकारी परम्परा का भी एक स्वर्णिम अध्याय है.
                                         इन्द्रेश 'आइसा' के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं 
और अब भाकपा-माले के नेता हैं. 
indresh.aisa@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

Friday, 10 January 2014

उन आँखों का हंसना भी क्या, जिन आँखों में पानी न हो!

चित्र-हितेश पाठक
शांति का पिता दीवान समय से पहले गरीबी और खुराक की कमी से बूढ़ा हो गया खुशक दम भाबर में लंबी दूरी तक सवारी खींचता तब हल्द्वानी में आटो न थे दो चार सिटी बसें थी दो चार पुरानी माडल की स्टेंडर्ड-20 मैटाडोर चलतीं थीं तांगे थे और साईकल बाकी पैदल।

पहाड़ छूट गया पहाड़ में जीवन आसान होता कमाने का ठिकाना होता तो क्यूं छूटता? भाबर में झौंपड़ी बना ली अपनी उमर से आधी उमर की बीबी थी चार बच्चे थे घर चलाना था तो रिक्शे का चलना लाजिमी था पर बढ़ती जरुरतें और कमजोर शरीर कब तक झेलता दीवान? वो चिढ़चिढ़ा हो गया गालियां बकता था जिंदगी को कोसता पर जिंदगी कोसने से मेहरबान नहीं होती कमाने से चलती है कम खुराक और अधिक मेहनत शरीर को खा जाती है खांसी बलगम और अंत में बलगम में खून... टीबी हो गयी।

टीबी की दवा के साथ खुराक चाहिए अंडा, दूध, मांस और आराम का काम ,पर ये तो गरीब बीमार के साथ एक भद्दा मजाक है बीमारी का भी और हालात का भी।

दीवान अशक्त हो आया घर की बाखड़ी भैंस(वो भैंस जिसे ब्याये लंबा समय बीत गया हो पर गाभिन न हो पायी हो उसे बाखड़ी कहते हैं) पर परिवार की जिम्मेदारी आ गयी बाखड़ी भैंस का दूध गाढ़ा होता है पर दीवानराम के नसीब में ये दूध न था ये बाजार में न बिकता तो घर कैसे चलता?

इस गर्दिश के समय को पहले पहल करीबी पुरुष रिशतेदारों ने ताड़ा, किलो भर आटा, दाल, मसाले, तेल पांच दस नकद का अहसान चढ़ाते,उसी चूल्हे पर खाते और इस परिवार की बेबसी का फायदा उठाने के इरादों से आये थे सो दीवान के बिस्तर-गुदड़ी में भी जा घुसे।अशक्त बीमार दीवान ने देखते जानते आँखें फेर लीं और करता भी क्या? खांसी बलगम खून थूकता वो दुनिंया से विदा हो गया।

गरीब औरत का पति टूटे दरवाजे सा ही हो मगर जब तक हो तब तक एक आभासी सुरक्षा तो देता ही है, ये भी ना रहे तो फिर राहचलतों के भी मन बढ़ आते हैं। पहले रिशतेदार फिर गाँव के मौकाताड़ू लोग बैठने बतियाने लगे और सभ्य लोग हालातों पर, नैतिकता चरित्र आदि पर किस्से बनाने लगे बातें कानों से कानों तक पहुंची और बदनामी बदचलनी करार दी गयीं।बेबसी ने बेबस बनाया और समय ने बेशर्म।

बच्चे बड़े हुए तीनों लड़कियों ने पेट भर सकने वालों को पहचाना और उनके साथ हो लीं किसकी शादी किसकी बरात!
दो लड़कियां तो आज भी अपने घरों में हैँ पर शांति का पति ठीक न था वो फिर से अपने पेट में बच्चा लिये पति का घर छोड़ मां के पास आ गयी इधर बहुत कुछ बदल गया था जवान भाई की बहू आ गयी थी घर में मां ने थोड़ा जमीन दे दी थी उसपे शांति रहती थी।कमाने जाती थी नौकरी करती थी जवान शरीर था ही शकल सूरत भी ठीक थी।

जाने कितने काम किये एस टी डी बूथ पे काम होटल में रिशेप्सनिष्ट और अंत में चूड़ी पाउडर बिंदी लिपिस्टिक का खोखा खोल लिया जाने कब हालातों ने सैक्स रैकैट में पहुंचा दिया एक दिन पकड़ी गयी बरेली में अखबार में नाम छपा छूटकर आयी तो लोग हंसते थे चरित्रहीन ** कहने लगे वही मसल हुई "बेबसी ने चोर रास्ते खोले हालात ने बेशर्मी सिखायी" तो सफर यहां तक पहुंचना ही था....।

आज भी बेहया नजरें उसे लांछित करती हैं, तिरस्कृत फिकरे कसे जाते हैं ये आंखे जो उस पर हंसती हैं उसके हालातों को नहीं देखतीं, तो एक हिंदी फिलम का गाना याद आता है-
"उन आंखों का हंसना भी क्या जिन आंखों में पानी ना हो....।"

अब आप खुद सोचिए आखिर यहां किसका जमीर मर गया ?और किन आँखों का पानी मर गया?कामरेड लेनिन ने सेक्स पर 'थ्योरी आफ वाटर ग्लास' पर कहा था- "कोई भी व्यक्ति सामान्य हालात में नाली का पानी नही पीऐगा!" नालियां हों या नाबदान उनमें गंदगी इसी समाज की बहती हैं, वे तो केवल वाहक हैं।



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दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

भारतीय शाशकवर्गीय पाटियां और केजरीवाल का लोकरंजकवाद।

जो केजरीवाल की गर्वनेंस पर लोकरंजकवाद का इल्जाम लगाने में लगे हैं वो लोग जो अपने 40साल के राजनैतिक जीवन में सही तरीके से न ओछापन कर पाए ना गंभीरता रख पाए।भारतीय राजनीति में 75% नेता बेहद ओछे थे और अब भी हैं कैमरे के आगे संभल के बोलने के इस समय में भी लगातार इनके निकृष्ट बयान इस बात की बानगी हैं,आप रोज ही देखते सुनते हैँ।

कांग्रेस के भीतर चापलूसी पार्टी लाइन है और जनता के बीच में कांग्रेसी सांसद से लेकर वार्ड मेंबर तक की गुंडा संस्कृति ही एकमात्र सांगठनिक ढांचे का उसूल है।इसीलिए आपको यहां एन डी तिवारी और हरीश रावत जैसे चुपड़ी जुबान वाले नेता दिखेंगे या फिर जी न्यूज के स्टिंग मेँ बोलते कांग्रेसी विधायकों की भाषा आपने सुनी और देखी! संजय गांधी के समय से चली यह संस्कृति अब सांगठनिक सिद्वांत बन चुकी है।राहुल गांधी सोनिया अथवा प्रिंयंका चापलूस कांग्रेसी घेरे की न्यूक्लियस है और वे उन तक पहुंचायी गयी बातों से इतर फैसले नहीं ले सकते ना ही ये तीनों कोई राचनैतिक विजनरी हैं।शतायु के उपर की ये पार्टी अब अपनी जड़ों की सफाई नहीँ रख पायी नतीजे में कांग्रेस पार्टी उस कटहल के पुराने पेड़ सी हो गयी है जिसमेँ कटहल लगते तो हैं पर ढंग से फलित नहीं होते बीमार फलित होते हैं।

सुरक्षा एजेंसियों का एक बड़ा हिस्सा इनकी सुरक्षा में लगा हो और उपर से इंदिरा और राजीव गांधी के हादसे के डर से राहुल सोनिया प्रियंका अभी तक उबर न पाए तो ये क्या जनता तक जायेंगे?सच तो ये है कि ये जब कहीं पब्लिक के बीच बात करते हैं तो वहां सारे सुरक्षाकर्मी ही पब्लिक बन जाते हैं।इनको रैली में जनता बुलाने की जरुरत क्या है?एक रैली के बराबर तो सुरक्षा कर्मी होते ही हैं।

रही बात भाजपा की तो ये पार्टी नही ये तो दुनियां का सबसे छिछोरतम और निकृष्टतम जमावड़ा है इनकी गंभीरता फासिवादी घृणा और नस्ली घमंड है। दिखा दिखा के गंभीरता की ओछी नौटंकी करते रविशंकर प्रसाद, सुषमा, राजनाथ ,जेटली,जावड़ेकर की सयास गंभीरता से तो सिद्धू और मुख्तार अब्बास नकवी ही ठीक हैं वो जो हैं बोल बचन में सामने दिखते हैं।

मोदी एक चुनाव दंगों की तैयारी से जीता, एक दंगों के बाद जीता, एक चुनाव परवेज मुर्शरफ और पाकिस्तान को गालियां देकर जीता अचानक इनको विकास और गुड गर्वनेंस याद आ गया और ये विकास विकास गाने लगे हैं, इनकी यूपी में वापसी होगी देख लो अमित शाह आया दंगे हुए!प्रमाण सामने हैं।

लोहिया जेपी राजनारायण के चेले लालू मुलायम जैसों का हश्र आपके सामने है अधिक कहने की जरुरत नहीं हैं कि "हाथ कंगन को आरसी क्या?"

मायावती दलित उभार और राजनैतिक चेतना की गंभीरता को विस्तारित करने के बजाए हाथी की मूर्तियों पार्कों ब्लैक कैट कमांडो में ऐसी घिर गयी कि अब अपने दलित वोटरों को भी बमुशकिल दिखायी पड़ती है।

ठाकरे परिवार भाजपा से अधिक छिछोर और कांग्रेस की संजय गांधी कट गुंडई व अंधक्षेत्रवाद का काकटेल मात्र है।

दक्षिण के जयललिता और करुणानिधि को अधिक समझने की जरुरत नहीं यू पी के माया मुलायम का दक्षिण भारतीय डबिंग संस्करण मानिए।हां पूर्वोत्तर और बंग देश की सरकारें अपनी गंभीरता से प्रभावित करतीं हैं पर वहां से दिल्ली बहुत दूर पड़ता है।

हां तो बात केजरीवाल की हो रही थी हालांकि पूजींवाद में जब संकट और मंदी का दौर हो और इसे टालने के लिए लिमिटेड वार मार्केट( सीमित युद्ध बाजार) ना हो तो झोले से निकाल कर केजरीवाल अन्ना जैसे डायवर्जन टनल खोल दिये जाते हैं।जब मंदिर बनाने के नाम पर भाजपा सरकार बना ले गयी जबकि मंदिर से ना रोजगार मिलना था ना बिजली पानी पर सब्सिटी, तो केजरीवाल पर उम्मीदें तो कशमीर से कन्याकुमारी तक किंतु परंतु करते ही सही बन ही जायेंगी और संजीदगी तो दिख ही रही है ना वो मोदी जैसा बड़बोला है ना राहुल गांधी जैसा आर सी एम और एम वे जैसी कंपनी का मोटिवेटर टाईप है। कुल मिलाकर केजरीवाल फिलवक्त बड़ा खिलाड़ी तो लगता ही है।




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दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Saturday, 4 January 2014

हरिया हैरी जसुवा जैका, कैल नीँ जाणीं च्याल छन कैका!


हरिया हैरी बन जाता है और जसुवा जैक दीपुआ डैव बन जाता है रामुली रैमी बन जाती है और परुली पैरी,कुमाँउनी दलित से इसाई बने नाम गजब ट्विस्ट ले लेते हैं।कुमाँउनी में एक कहावत है-"हरिया हैरी जसुवा जैका,कैल नी जाणीं च्याल छन कैका ।" (हरिया जो हैरी है और जसुवा जैका कोई नहीं जान पाया ये किसके बेटे हैं)।

भारतीय वर्णव्यवस्था और जातिवाद समाज का कोढ़ है सभ्यता के इतने पड़ाव पार करने के बाद भी दलित और सवर्ण समाज में रोटी बेटी के रिशते नहीं भयंकर छुआछूत है ऐसे में दलित हिंदू धर्म में रहते हुए भी बांमन ठाकुर और बनिये की तिरस्कृत तुच्छता मेँ घुटते हैं।योरोपीय और पच्छिमी समाज में काले गोरे का भेद है पर मजबूत नागरिक कानूनों ने ये भेद मजबूती से मिटाया है,हाँलांकि कुछ समय पहले तक अमरीकी फिल्मों में सारे चोर और गुंडे काले लोग ही दिखाये जाते थे।

जब आप धरम बदल लेते हैँ तो कुछ हद तक मुक्ति का अनुभव करते हैं अब राम से इतर उनके पास गोरे यीशू होते हैं और उनकी किताबों में स्वर्ग के बड़े सुंदर फोटो के अलावा उनको कुछ नहीं मिलता क्योंकि धर्म बदलते ही आप गोरे और सुनहरे बालों वाले अंग्रेज तो नहीं बन जाते शकल रुप रंग तो वही रहता है।अगर रंग गोरा हो जाता तो पहले सारे सवर्ण धरम बदल लेते।

अब काला दलित हो या इसाई कथित सवर्णों को इससे क्या फरक पड़ता है?सवर्ण शब्द भी शायद अंग्रेजों का गोरा रंग और सुनहरे बालों को देखकर हीनताबोध में गढ़ा गया होगा।

हां तो कल में नये इसाइयोँ के बीच था जहां घरों में कलेंडर में यीशू क्रूस पर लटके बेबसी से इन नयी 'इब्ने मरियम' (खुदा की भेड़ें) को देख रहे थे और घरों में बाइबल के उपदेश जगह-जगह दिख रहे थे फिर प्रार्थना हाल में गया जहां नये युवक युवतियों ने "ओ यीशू फीशू" टाईप प्रार्थना गायी मुझे लगा कि खड़े होकर 'ओम जय जगदीश हरे' का इसाई अनुवाद गाया जा रहा है।

उसके बाद उधर के पंडीजी यानि फादर ने जो चोगे में घुसे टिपीकल पहाड़ी लगे उन्होँने हिंदू धरम की नये अधिकार से निंदा की और मूलत: जातिवाद को ही गरियाया,पर जब मैंने उनको बताया कि अब आपके ही दलित रिशतेदार जो राम की कैद में फंसे हैं वो आपको बिरादरी बाहर मानते हैं और नौकरी में आरक्षण अब भी चाहिए?या यीशू ने सारे धन धान्य के कोठार भर दिये?वे थोड़ा अकुलाए छटपटाऐ पर अंतिम अस्त्र छोड़ा "तुम तो नास्तिक हो!" मैंने कहा यीशू खुद नास्तिक था कामरेड था साधारण आदमी था,पर उसकी लड़ाई को आगे बढ़ाने के बाजाए इसाई पंडितों ने उसको भगवान बना डाला!

सरमन आफ द माउंट पर मेरे तर्कों से उधर के पंडिजी हैरत में थे बहस अच्छी हुई कुछ युवक युवतियों के काफिर होने का अंदेशा था सो उनको फादर ने कहा आप लोग जायें फिर बंद कमरे मेँ देशी शराब निकाली बोले "अपना बपतिस्मा करा लो इसाई बन जाओ।"मैंने कहा किसी अंग्रेज गोरी से शादी कराओ तय रहा।"

फिर हुआ यूं कि दीपुआ डैव तो न बना पर देशी दारु और कटोरे में मीट खाते हुए हैरी फिर से हरिया बन गया।कलेंडर में यीशू के होंठों पे मुस्कान थी।



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दीप पाठक 
 दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.