Saturday, 29 September 2012

पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तां में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ, होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्तां यहाँ..

हितेश सोनिक ने पीयूष मिश्रा के इस गीत को 15 साल पहले सुना था और उसके बाद हाल ही में कोक स्टूडियो में हितेश सोनिक के संगीत में पीयूष मिश्रा ने इस गीत को नए रूप में पेश किया है। पीयूष मिश्रा द्वारा गाया गया यह गीत जावेद के एक पत्र से है जो विभाजन के दौरान अपनी प्रेमिका हुस्ना से बिछड़ गया है। पीछे छूट चूका सब कुछ अंततः उसके अंदर ही अंदर घूम रहा है, गीत में लाचारी और दु: ख के एक उभरते भावना है और विभाजन का दर्द भी। हितेश का संगीत दिलचस्प है और गिटार की धुन में भारतीय शेली साथ पाश्चात्य संगीत का प्रयोग किया गया है। उस समय की उथल-पुथल को ध्यान में रखते हुए विभाजन के उस युग पर विश्राम लगाने की भी कोशिश की है. 
आप भी जरूर सुनें

Friday, 28 September 2012

बाबा नागार्जुन की कविता.

बाबा नागार्जुन की लिखी कविता "ॐ शब्द ही ब्रह्म है " जिसे ज़ुबीन गर्ग ने गाया है आप भी सुनें।

समय हो तो जरूर सुनें.



उस्ताद अशद अमानत अली खान की आवज में सुनें "उमरां लंग्याँ". केवल १० साल की उम्र में अपना पहला गाना रिकॉर्ड करने वाले उस्ताद अशद अमानत अली खान पटियाला घराने से ताल्लुक रखते थे और पटियाला घराने के संस्थापक उस्ताद अल बक्श के परपोते थे.

एक नज़्म.


हर वक्त हर दम उलझती नज़र आती है
ज़िंदगी मौत से न कमतर नज़र आती है

एक सन्नाटा सा घेरा रहता है जहाँ को
हर पड़ाव हर मोड़ पर परेशां नज़र आती है


चाहे कितनी भी शान-ओ-शौकत से रहे उम्रभर

वक़्त कटता चला जाता है बदगुमां नज़र आती है

सर पे चढा रहता है सुलगता सूरज
रात भी तनहाइयों की दास्तां नज़र आती है

फैला है चारों ओर वहशत का समां
दोस्ती भी दुश्मनी से बद्तर नज़र आती है

बैठा है हर शख़्स करने कत्ल किसी का
इंसानियत का कहीं निशां नहीं, बस हैवानियत नज़र आती है।

Thursday, 27 September 2012

एक नज़र यहाँ भी



बाबा नुसरत फ़तेह अली खान साहब की एक बेजोड़ क़व्वाली "सांसों की माला पे सिमरूं में पिय का नाम ", बाबा नुसरत की बंदिशों में सुरों की जो जुगलबंदी देखने को मिलती है वो कहीं और नहीं। समय हो तो जरूर सुनें।

Sunday, 23 September 2012

चंडीगढ़ डायरी पहली किस्त....!

शाम का समय था। चंडीगढ़ की सुखना झील के किनारे बैठा एक लड़का, खोया हुआ न जाने कहाँ? आस-पास फैली भीड़ में भी अकेला। अक्सर ही झील के किनारे बैठ कर वो पढ़ा करता था। इरविंग स्टोन की लस्ट फॉर लाइफ वो हमेशा ही साथ लिए चलता था। पढ़ते-पढ़ते पता नहीं कब वो कहीं खो जाता था, जिसका उसे भी कभी पता नहीं चलता। धीमी-धीमी हवा चल रही थी, इलेक्ट्रोनिक ट्रेन की छुक-छुक, उस पर बैठे शोर मचाते बच्चे, झील के किनारे चहल कदमी करते लोग, भुट्टा बेचती बुढिया, उसके पास ही बैठा एक प्रेमी जोड़ा, बगल में बैठी बातें करती लड़कियां, झील में बोटिंग करते लोग लेकिन उसके लिए जैसे कोई भी नहीं हो आस पास। हमेशा से ही सुखना झील के किनारे बैठना उसे अच्छा लगता था। वो एक अद्भुत शान्ति सी महसूस करता था लेकिन कई बातें ऐसी भी थी जो सुखना के किनारे उसके अंतर्हृदय से खुद-ब-खुद बहार झाँकने लगती थी। उसे लगता था जैसे कुरेद रही हों कोई रहस्यमयी बातें उसके ह्रदय को। कभी सोचता वो क्या कर रहा है यहाँ? क्या उसे यहाँ होना चाहिए था? उसने तो चुन ली थी कोई दूसरी ही दुनिया अपने लिए या फिर ये वो ही दुनिया है उसने जिसके ख्वाब देखे थे। उसे पता था,  नहीं! ये वो दुनिया तो नहीं। कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ, स्टालिन को पढ़ते हुए उसने जिस दुनिया के ख्वाब देखे थे ये वो दुनिया तो नहीं थी। चे गुएवारा की जीवनी पढने के बाद वो भी चे गुएवारा ही बनना चाहता था। उसने आदर्श बना लिया था उसे। उसे पता था की देश के हालत के बारे में, दांतेवाडा, नक्सलबाड़ी की खबरें अक्सर ही सुनता रहता था। जीवन में जब युवावस्था कदम रखती है तो हर युवा के अंदर एक क्रांतिकारी चेतना घर कर जाती हैं, दुनिया और हालातों को बदलने के ख्वाब उमड़ आते हैं। लेकिन उस भावना को अपना मकसद हर कोई नहीं बना सकता। क्या वो भी अब अपने संकल्प को तोड़कर एसो-आराम की तलाश में चल पड़ा था? क्या भटक गया था अपनी राह से। वो चंडीगढ़ उन सपनों को पूरा करने आया है, जो कभी उसने देखे ही नहीं। परिस्थितियां उसे चंडीगढ़ ले आई। पर क्या चे परिस्थितियों से नहीं लड़े थे? उन्होंने तो कभी अपने वैभवपूर्ण जीवन के सपने नहीं देखे। कैसे कोई आदमी अपना सब कुछ त्याग कर समाज की उन्नति के लिए काम करता है? क्योँ उसे अपनी जान की फिक्र नहीं होती? फिर वो सोचता वो भी तो परिस्थितियों से ही लड़ रहा है और अपने वैभव पूर्ण जीवन के सपने तो उसने कभी देखे ही नहीं। कार्ल मार्क्स पढ़ते हुए उसे समझ आया की अमीर ही तो गरीबों के शोषक होते हैं। वह अपने मार्ग से कभी भी नहीं भटकेगा, लडेगा जैसे अभी परिस्थितियों से लड़ रहा है। वह सोचता कि छोड़ दे ये सब कुछ जो वो कर रहा है, ये भी तो गुलामी ही है। जिनके खिलाफ उसे लड़ना है, उनके लिए काम करके उनके खिलाफ कैसे खड़ा होयेगा? इन्हीं सवालों का निष्कर्ष ढूंढते-ढूंढते वो अन्दर ही अन्दर कांप जाता था। सुन्न सा पढ़ जाता उसका शरीर जैसे कि जकड लिया हो किसी ने।

"आप यहाँ रोज आते हैं ना?" पीछे से आवाज आई।

अचानक उसका स्वप्न रुपी ध्यान टूटा, उसने देखा कि सूरज डूब चुका था, झील के किनारे की लाइटें जगमगाने लगी थी, हवा की गति भी पहले की अपेक्षया बढ़ गयी थी। किताब के पन्ने फडफडा रहे थे। अगस्त-सितम्बर महीनों की शामों में जब गर्मी की मार कम पढ़ जाती है तो अक्सर सुखमा में लोगों की भीड़ बढ़ जाती है जो की देर रात तक देखने को मिलती है। उसे कभी पता नहीं चल पता था कि कब सूरज की मद्धिम रौशनी की जगह रात की स्ट्रीट लाइट ले लेती है। उसे लगता है कि वो तो बरसों से यहीं बैठा हुआ है। उसके बगल में बैठी लड़कियां जा चुकी थी जिसकी जगह एक बूढ़े आदमी ने ले ली थी पर प्रेमी जोड़ा अभी भी वहीँ अपनी ही जगह बैठा था, उसे लगा की ये प्रेमी जोड़ा भी उसी की तरह है अपने आप में खोया हुआ, जिसे दुनिया की कोई परवाह ही नहीं। बिलकुल उसी की तरह उनके लिए भी आस-पास कोई नहीं था।

 "जी हाँ!"
उसने पीछे मुड़के देखा। सलेटी रंग के टॉप और नीली जींस में एक सुन्दर और सरल सी दिखने वाली लड़की खड़ी थी।

"मैं भी रोज शाम को यहाँ आती हूँ। आप से थोड़ी ही दूर बैठी रहती हूँ। वो सामने वाली बेंच में, क्या आपके साथ बैठ सकती हूँ?।" वो बोली।

"जी बिलकुल"

"बाय द वे आई अम वर्तिका" लड़की ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा।

"अम्बर" उसने हाथ मिलाया।

"आप को पढने का बहुत शौक है?" उसने पूछा।

"जी हाँ" उसके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान बिखरी। उसे हमेशा ही किताबों के बारे में बातें अच्छी लगती थी।

"मुझे भी, लस्ट फॉर लाइफ मैंने भी कई बार पढ़ी है" वो किताब की ओर देख कर बोली।

"आप बहुत कम बोलते हैं" लड़की ने मजाक में कहा।

वह मुस्कुराया। वह किसी भी अनजान व्यक्ति से बात करने में झिझकता था। और लड़की ने उसकी उसी नब्ज पर हाथ रख दिया था।

उसने घडी में टाइम देखा। रात के करीब 9 बज चुके थे।

"अब मुझे चलना चाहिए, आज समय बहुत हो गया है।" उसने झिझकते हुए कहा।

"जी। क्या कल आप यहाँ मिलेंगे ?" वर्तिका बोली

"जी हाँ कल मुलाकात होगी। गुड नाईट " उसने कहा।

उसने किताब और अपना झोला उठाया और झील से बाहर आ गया। रोड में पहुंचकर उसने ऑटो रिक्शा लिया।
"सेक्टर 23 चलोगे?"
"चलेंगे साब।"
वो ऑटो में बैठा. वो चंडीगढ़ के सेक्टर-23 में रहता था, पेइंग गेस्ट में। उसे हमेशा लगता था की चंडीगढ़ शहर में रोज़ ऑटो रिक्शा का खर्च वहन नहीं कर पायेगा पर सुखना जाये बिना वो रह भी नहीं पता था। कई बार एक स्कूटर लेने की सोची पर कभी भी उसके लिए पैसे इकट्ठे नहीं कर पाया। कई बार सोचा की सुखमा के पास ही कमरा ले ले पर वहां पेइंग गेस्ट बहुत मेहेंगे थे। पैसे की कमी होने के बावजूद उसमें कभी भी पैसे का लोभ नहीं जागा। रोक गार्डेन के पास उसने ऑटो रिक्शा रुकवाया और उतरकर एक डिब्बी सिगरेट ली। ऑटो में बैठकर सिगरेट जलाई, सिगरेट की हर एक कश दिन की सारी थकान उतार देती थी।

"आज बड़ी देर हो गयी तुम्हें कहीं और भी गए थे क्या?" आशीष  बोला

"नहीं सुखना में ही था।"

"क्या तुमने डिनर किया?" आशीष ने पूछा।

उसने हाँ में सर हिलाया।

आज कुछ थक गया हूँ आराम करना चाहता हूँ।" अम्बर ने कहा।

"गुड नाइट ",

"गुड नाइट".

लेकिन आज देर रात तक उसे नीद नहीं आई। एक अजीब सा डर उसे सता रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आया। कल उसे उस लड़की से फिर मिलना था।

                                                                                                          क्रमश:--------