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ज़िंदगी मौत से न कमतर नज़र आती है
एक सन्नाटा सा घेरा रहता है जहाँ को
हर पड़ाव हर मोड़ पर परेशां नज़र आती है
चाहे कितनी भी शान-ओ-शौकत से रहे उम्रभर
वक़्त कटता चला जाता है बदगुमां नज़र आती है
सर पे चढा रहता है सुलगता सूरज
रात भी तनहाइयों की दास्तां नज़र आती है
फैला है चारों ओर वहशत का समां
दोस्ती भी दुश्मनी से बद्तर नज़र आती है
बैठा है हर शख़्स करने कत्ल किसी का
इंसानियत का कहीं निशां नहीं, बस हैवानियत नज़र आती है।
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