शहर की बोसीदा गलियों के
जर्जर अंधेरे घरों में,
गाँव के खुले खेतों के बीच बनी
अस्थायी झोंपड़ियों में
जहां हर काम लायक चीज
कबाड़ हो चुकी है
जिंदगी एक खुमारी नशे की लहर सी,
बेबसी, चिढ़, चिंता और
गायब भविष्य के बीच
हरेक पीड़ित प्राणी की मौत
उसके साथ चलती है
यहाँ कविता नहीं झाँकती
पीड़ाओं के मकड़जाल हैं
मौत को भी इज्जत नहीं बख़्शी
पर मौत रोज
जिंदगी को कचोटती है
कि दौड़ो ,खटो,लगो काम पर
मौत खुद डरी रहती है
अपनी बदनामी पर!
कई जिंदा देहें जो थक गयीं,
चुक गयीं,
गरियातीं हैं मौत को
कमबख्त आती नहीं।
लगता है खुद थक चुकी है मौत
इन मुर्दार जगहों पे रहकर।
मौत आ जायेगी
पर अंतिम समय तक देखती है
कि शायद लौट जाये जिंदगी।
मौत भी बिलखती है
कि आने के सिवा कोई चारा नहीं।
पर डरते डरते जाती है
उस तरफ जहां विलासिता के पहाड़ हैं।
मौत खुद व्यथित है मेरे शहर में
किस किस को आऐगी?
बेशर्मों को आने से डरती है
कहती है मरो !बेमौत मरो!
खुद अपनी मौत ढ़ूंढ़ती है
बेबसी पे जो मौत आती है
यकीन मानो मौत खुद दुखी है
अपनी मौत चाहती है
पर मौत कविता नहीं है
जो लिखी है-
या लिखी जानी है।
बेबस स्त्री की तरहा
बेमन से जाती है हर बेबस जिस्म पर।
यकीन मानो मौत खुद नहीं आती
वो भी चाहती है जिंदगी को।
और शान से आना चाहती है॥
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दीप पाठक |
दीप पाठक सामानांतर के साहित्यिक संपादक है. इनसे deeppathak421@facebook.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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