Sunday, 3 March 2013

मीडिया, राष्ट्रीयता और पूंजीवाद

भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह

"...आख़िर मीडिया और राष्ट्रवाद के जटिल रिश्तों के पीछे किस तरह का राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन काम करता है? इतना तो तय है कि अगर भारत में निजी मीडिया का इतना विस्तार नहीं हुआ होता तो कुछ ही दिन के भीतर पूरा देश युद्दोन्माद की चपेट में नहीं आता. इसका पुख्ता प्रमाण यह भी है कि हाल के वर्षों में भारत-पाक सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है. लेकिन निजी मीडिया का उभार छोटी-छोटी झड़पों को भी राष्ट्रीयता की चासनी में पेश कर राष्ट्रवाद भड़काने से नहीं चूकता..."

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दो हज़ार तेरह के साल की शुरुआत में आठ जनवरी को जम्मू-कश्मीर में भारत-पाक सीमा पर दो भारतीय जवान मारे गए थे. भारतीय सेना ने कहा कि पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा पार कर उस पर हमले किए और दो सैनिकों को मार डाला. भारतीय टेलीविजन पर तुरंत यह ख़बर छा गई और देश की सबसे बड़ी ख़बर बन गई. चैनलों की देशभक्ति उबाल खाने लगी और पूरे देश में युद्धोन्माद का माहौल बन गया. टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में दुनियाभर की हथियार कंपनियों के लिए सलाहकार का काम करने वाले सेना के कई पूर्व जनरल और रक्षा विशेषज्ञ उछल-उछलकर पाकिस्तान पर हमला बोलने की वकालत करने लगे. 




टाइम्स नाव चैनल का अर्णव गोस्वामी इस मामले मे सबका गुरु साबित हुआ. बाक़ी चैनल भी चीख-चीखकर यह बताना नहीं भूले की मारे गए सैनिकों में से एक का गला काटा गया है. कई ने तो तथ्यों से छेड़छाड़ करते हुए यह भी बताया कि पाकिस्तान ने निर्ममता से दो भारतीय सैनिकों का गला काट दिया है. जबकि पाकिस्तान ने इस घटना में हाथ होने से सीधे मना कर दिया और पूरी घटना की जांच संयुक्त राष्ट्र जैसी स्वतंत्र ऐजेंसी सी कराने की मांग की. इस घटना के ठीक दो दिन पहले पाकिस्तान ने भी भारतीय सेना पर आरोप लगाया था कि उसने नियंत्रण रेखा के पार घुसकर सैनिक चौकी में हमला किया और एक पाकिस्तानी सैनिक की हत्या कर दी. भारतीय सेना ने यह कबूल किया कि दोनों ओर से गोलीबारी हुई थी लेकिन उसक सैनिकों ने सीमा पार नहीं की. पूंजी और सत्ता के गुलाम दोनों देशों के मीडिया ने दूसरे पक्ष की बातों को अहमियत नहीं दी और तथ्यों की अनदेखी करते हुए एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ज़हर उगलते रहा.

मुख्यधारा के मीडिया ने इस तरह का माहौल बनाया कि दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद की प्रवक्ता भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी संगठनों समेत पूंजीपतियों के साथ मिलकर समाजवाद की कल्पना करने वाली समाजवादी पार्टी ने भी तुरंत पाकिस्तान को सबक सिखाने की मांग कर डाली. भारत में दोनों देशों के बीच होने वाली हॉकी लीग रद्द कर दी गई, नतीजतन, पाकिस्तानी खिलाड़ियों को बिना मैच खेले ही वापस जाना पड़ा. कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को भी इसी तरह की स्थितियों का सामना किया. पाकिस्तान की मशहूर रंगकर्मी मदीहा गौहर के ग्रुप अजोका को भी इसका शिकार होना पड़ा. उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से भारत रंग महोत्सव में सहादत हसन मंटो पर केंद्रित नाटक कौन है ये गुस्ताख़ खेलने के लिए दिल्ली आमंत्रित किया गया था. लेकिन सीमा पर तनाव को लेकर मीडिया कवरेज का ही असर था कि ऐन वक़्त पर उनके नाटक को मंचन की इजाज़त देने से मना कर दिया गया. 

यह बात और है कि कुछ प्रगतिशील युवाओं की पहलकदमी पर उसी दिन नाटक का मंचन दिल्ली में दो जगहों पर किया गया. पहला मंचन शाम को केंद्रीय दिल्ली के अक्षरा थियेटर में हुआ और दूसरा शो रात ग्यारह बजे से जेएनयू में हुआ. दोनों जगह ऑडिटोरियम में तिल रखने की भी जगह नही बची थी. युद्धोन्माद भड़काने वाले मीडिया, ख़ास तौर पर टेलीविजन मीडिया को जनता के बीच इस तरह की युद्ध विरोधी सांस्कृतिक एकता की बारीक़ियां नज़र नहीं आई.

उपरोक्त घटना मीडिया और राष्ट्रवाद के रिश्तों की भारतीय परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से पड़ताल करने की मांग करती है. वहीं इससे यह भी सवाल उठता है कि आख़िर मीडिया और राष्ट्रवाद के जटिल रिश्तों के पीछे किस तरह का राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन काम करता है? इतना तो तय है कि अगर भारत में निजी मीडिया का इतना विस्तार नहीं हुआ होता तो कुछ ही दिन के भीतर पूरा देश युद्दोन्माद की चपेट में नहीं आता. इसका पुख्ता प्रमाण यह भी है कि हाल के वर्षों में भारत-पाक सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है. लेकिन निजी मीडिया का उभार छोटी-छोटी झड़पों को भी राष्ट्रीयता की चासनी में पेश कर राष्ट्रवाद भड़काने से नहीं चूकता. इस बार भी मीडिया ने जनता के बीच युद्धोन्माद का एजेंडा सेट कर दिया और अमनपसंद लोग देखते रहे गए. चिंता की बात यह है कि आज भी कुछ कट्टर मार्क्सवादी मीडिया की अहमियत को अच्छी तरह नहीं स्वीकारते और सिर्फ क्रांति में ही जनवादी मीडिया की संभावना को तलाशते हैं.

भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कभी मीडिया से जुड़े कामों (जनमत निर्माण) को अपने प्रमुख कार्यभारों में शामिल नहीं किया. दरअसल इस दृष्टि का मूल, बेस और सुपरस्ट्रक्चर की रूढ़ हो चुकी मार्क्सवादी बहस में टिका है जो यह मानती है कि उत्पादन संबंधों में आए बदलाव या क्रांति के बाद मीडिया और संस्कृति से जुड़े सुपरस्ट्रक्चरल स्थितियां भी अपने आप बदल जाएंगी. क्रांति से पहले सुपर स्ट्रक्चर के मुद्दों को ज़्यादा अहमियत न देने के कारण ही मीडिया और संस्कृति के मुद्दे अक्सर बदलाव की लड़ाई के मुख्य कार्यभारों में शामिल नहीं हो पाते हैं. 

इटली के मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने सुपर स्ट्रक्चर के मुद्दों को पहली बार अच्छी तरह पहचाना और स्वीकार किया कि मार्क्सवाद के हिसाब से तो यूरोप में पूंजीवाद के विकास के साथ सामंतवादी संस्कृति का नाश हो जाना चाहिए था. लेकिन पूंजीवाद की तरफ़ क़दम बढ़ा चुके इटली में फासीवाद और मुसोलिनी के उद्भव ने उन्हें यह समझने में मदद की कि सांस्कृतिक मुद्दे भी बदलाव की लड़ाई के कितने अहम हिस्से बन जाते हैं. ग्राम्शी ने इस बात पर भी जोर दिया कि शासक वर्ग किस तरह सूचना, ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में अपने महारथियों को उतारकर सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करता है. 

इस सिलसिले में जर्मनी में हिटलर के सूचना मंत्री गोयबल्स का यह कथन दुनियाभर में जनपक्षीय बदलाव की चाह रखने वाले कभी नहीं भूल सकते कि कोई झूठ सौ बार दोहराने से सच की तरह लगने लगता है. हिटलर ने एक तरह के छद्म राष्ट्रवाद को उभारकर प्रोपेगेंडा के इस सूत्रवाक्य को यहूदियों, जिप्सियों और बाक़ी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ चरम पर जाकर बर्बर तरीक़े से इस्तेमाल किया. इतिहास गवाह है कि हिटलर और मुसोलिनी ने राष्ट्रवाद और मीडिया का इस्तेमाल फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किस तरह किया. आज भी दुनियाभर में निजी या सरकारी नियंत्रण वाला मीडिया अपनी संरचनात्मक बाध्यता की वजह से हमेशा शासक वर्ग के हित पोषित करता है और राष्ट्रीयता के नाम पर निर्दोष लोगों को बरगलाता है. बड़ी पहुंच वाला स्वतंत्र और जनपक्षीय मीडिया न होने की वजह से वैकल्पिक विचार रखने वालों के पास ऐसा कोई उपाय नहीं होता कि वे राष्ट्रवाद के छद्म से बहुसंख्यक जनता  को आगाह कर पाएं.

वर्तमान भारतीय मीडिया की संचरना और उसकी कार्य पद्धति पर अगर नज़र दौड़ाई जाए तो वह भी उन्हीं विचारों और कामों को ज़्यादा उछालता है जिससे शासक वर्ग को फायदा पहुंचे. अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए वह कभी-कभी अपवाद स्वरूप जनपक्षीय मुद्दों को भी अहमियत देता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह जन पक्षधर है. मौक़ा मिलते ही वह आमूल बदलाव के आंदोलनों का मज़ाक उड़ाने से नहीं चूकता है. भारतीय संदर्भों में द हिंदू और जनसत्ता जैसे प्रगतिशील और वामपंथी रुझान के माने जाने वाले कॉरपोरेट अख़बार भी इसका अपवाद नहीं हैं. 

इन स्थितियों से यह तर्क उभरकर आता है कि क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव चाहने वालों को मीडिया की अहमियत को भी समझना पड़ेगा. जनमत निर्माण तैयार करने की इसकी ताक़त के पूंजीवादी हाथों में केंद्रित होने पर यह बड़े बदलाव के हर रास्ते में रोड़े अटकाने का काम कर सकता है, करता है, इसलिए उन्हें उत्पादन संबंधों में बदलाव की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ मीडिया जैसे सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़ाई जारी रखनी पड़ेगी, वरना बदलाव की ताक़तों के लिए शोषित जनता को झूठी चेतना (फॉल्स कॉन्शियसनेस) से मुक्त करना मुश्किल से मुश्किल होता चला जाएगा. इसका मतलब यह नहीं कि मीडिया के बदलने से दुनिया भी बदल जाएगी इसलिए सारी लड़ाई मीडिया को बदलने में केंद्रित कर दी जाए. यहां पर इस उत्तर आधुनिक तर्क से सावधान रहने की ज़रूरत बनी रहेगी कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की मौत हो चुकी है इसलिए मास मीडिया ही सामाजिक बदलाव का सबसे अहम औज़ार बन चुके हैं.

यह एक स्थापित तथ्य है कि पंद्रहवी शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस ने अस्तिव में आकर राष्ट्रीयता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. प्रिंटिंग तकनीक और पूंजीवाद के विकास ने हस्तलिखित सामग्री को मुद्रित कर मास प्रोडक्शन (बड़े पैमाने पर उत्पादन) करना शुरू कर दिया. जिस वजह से मुद्रित सामग्री ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के बीच पहुंचने लगी. सूचनाओं और विचारों के प्रसार से लोगों की सामुदायिकता (साझी भावनाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों) का विकास हुआ आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा आकार ग्रहण कर मजबूत होने लगी. तब उत्पादन के नए साधन पूंजीपतियों के ही हाथ आ गए थे और वे अपने मुनाफ़े के लिए प्रिंटिग तकनीक का इस्तेमाल कर रहे थे. 

बेनेडिक्ट एंडरसन जैसे विद्वान ने अपनी किताब इमेजिन्ड कम्युनिटी में इस बात पर जोर देते  हुए प्रिंट कैपिटलिज्म की विस्तार से चर्चा की है. एंडरसन राष्ट्र को एक काल्पनिक समुदाय (इमेजिन्ड कम्युनिटी) से ज़्यादा कुछ नहीं मानते हैं. दरअसल राष्ट्र भाषा, संस्कृति और भौगोलिकता समरूपता के आधार पर अपनी एक अस्मिता का निर्माण करता है. लेकिन इस अस्मिता के निर्माण में हमेशा समाज के प्रभावशाली तबके अपनी भूमिका निभाते हैं. ग़रीब और वंचित लोगों के लिए किसी राष्ट्र का कोई मतलब नहीं होता. राष्ट्रीयता की अवधारणा आगे बढ़कर आधुनिक राष्ट्र राज्य के रूप में सामने आयी. आधुनिक राष्ट्र राज्यों का उदय सामंतवाद से पीछा छुड़ाकर हो रहा था. उसी दौरान राष्ट्र राज्य की सम्प्रभुता का दावा भी सामने आया और इसे एक तरह से सार्वभौमिक सत्य की तरह पेश करने की कोशिश शुरू हुई.

औद्योगीकरण और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली कुछ राष्ट्रों को मज़बूत बना रही थी तो वहीं कच्चे माल के लिए दुनिया के ग़रीब इलाक़ों को वे अपना उपनिवेश भी बना रहे थे. इस तरह भारत समेत तीसरी दुनिया के कई उपनिवेशों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास उपनिवेशवाद के दौर में हुआ और उपनिवेशवाद से लड़ने में राष्ट्रीय आज़ादी की लड़ाइयों ने एक अहम भूमिका निभाई. इस लिहाज़ से देखा जाए तो राष्ट्रीयता की लड़ाई एक हद तक आज भी साम्राज्यवाद और आर्थिक वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ लड़ने में भूमिका निभा सकती है लेकिन इसकी प्रतिक्रिया अक्सर संकीर्ण राष्ट्रवाद का गुणगान करने में ही होती है. 

भारत जैसा राष्ट्र-राज्य, भाषा और संस्कृति के मामले में कई विविधताओं से भरा हुआ है इसलिए समाजशास्त्री यहां पर कई तरह की राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व को स्वीकारते हैं. भारतीय मीडिया के समाज शास्त्र का अध्ययन करने वाले राबिन जैफ्री भारत के एक राष्ट्र के रूप में आकार ग्रहण करने या राष्ट्र निर्माण में मीडिया और पूंजीवाद के विकास की अहम भूमिका देखते हैं. अपनी किताब इंडियाज न्यूज़पेपर रिवोल्यूशन और मीडिया एंड मॉडर्निटी में वे इस बात का ज़िक्र विस्तार से करते हैं. पूरे भारतीय भूभाग में भाषाई विविधता के बावजूद किस तरह बाक़ी राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रतीक मीडिया की मदद से एक साझेपन का भाव पैदा करते हैं, इस बात का ज़िक्र उन्होंने किया है. वह यह भी पहचानने की कोशिश करते हैं कि किस तरह बड़ी पूंजी पर टिका मीडिया अपने हित में भारतीय राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बनकर काम करता है. यहीं पर मीडिया के स्वार्थों का एक बिल्कुल स्पष्ट अंतरविरोध सामने आता है, एक तरफ तो कॉरपोरेट मीडिया युद्धोन्माद पर टिके दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को हवा देता है लेकिन वहीं साम्राज्यवाद और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे समर्पण को वह राष्ट्र का विकास मानता है. देशभर के संसाधनों की लूट में जुटी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हमदर्द बनने की पीछे यह एक मुख्य कारण है.

नब्बे के दशक में जब से भारत ने नई आर्थिक नीतियों को अपनाकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के नए प्रयोग शुरू किए, भारतीय बाज़ार नए मीडिया उत्पादों से पट गए हैं. यह स्थिति लगातार देश में मध्यवर्ग का विस्तार कर रही है और इस भ्रम को जीवित रखे हुए है कि ट्रिकल डाउन थ्योरी काम कर रही है और एक दिन विकास का शहद रिस कर सबसे कमज़ोर और ग़रीब इंसान तक ज़रूर पहुंचेगा. मध्यवर्ग के लिए इससे सुविधाजनक तर्क और कुछ नहीं हो सकता. क्रय शक्ति बढ़ने के साथ उसकी इच्छाओं में भी अपार बृद्धि हुई है और बड़ी पूंजी पर टिका मीडिया उसमें उपभोग के नए-नए तरीक़े सुझा रहा है. 

यूरोप में इस तरह की स्थिति काफ़ी पहले ही आ चुकी थी जिसकी पहचान करते हुए जर्मनी में फ्रैंकफर्ट स्कूल के अडोर्नो और होर्खाइमर जैसे विद्वानों ने छह सात दशक पहले ही मीडिया के इस विकास को संस्कृति उद्योग का नाम दिया था. तब उन्होंने कहा था कि यह जनता के वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर एक झूठी चेतना का निर्माण करता है, उसके बीच एक झूठी ज़रूरतें पैदा करता है. आज के भारतीय मीडिया पर अगर नज़र डाली जाए तो यह साफ़ हो जाता है कि वह संस्कृति उद्योग के पूंजीवादी उद्देश्यों को पूरा  करने में जी-जान से जुटा है. उसके लिए सामाजिक सरोकारों या समता पर आधारित समाज का कोई मतलब नहीं है. वह समाजवादी आदर्शों का मज़ाक उड़ाने के साथ मीडिया मालिकों और पूंजीवादी राजसत्ता का गुणगान करता है.

संख्या के लिहाज़ से भारतीय मीडिया के सामने दुनिया को कोई देश नहीं टिकता है. दो हज़ार बारह तक देश में कुल 82,222 समाचार पत्र और 831 टेलीविजन चैनल पंजीकृत हो चुके थे. लेकिन पूंजी का केंद्रीकरण बढ़ने के साथ ही दुनियाभर के मीडिया में भी संकेंद्रण बढ़ रहा है. पूरी दुनिया के मीडिया को अगर टाइम वार्नर, न्यूज़ कॉरपोरेशन, डिज्नी, बर्तेल्स्मान, वायाकॉम, सोनी और विवेंडी इंटरनेशनल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां नियंत्रित कर रही है. भारतीय मीडिया में भी इन कंपनियों की उपस्थिति काफ़ी मजबूत है. 

भारतीय मीडिया को भी किसी न किसी विदेशी कंपनियों की मदद से देश की कुछ  गिनी-चुनी बड़ी कंपनियां नियंत्रित कर रही हैं. बेनेट एंड कोलमैन, टीवी 18, इंडिया टुडे समूह, सन समूह, जी टी.वी, मलयालम मनोरमा समूह, ए.बी.पी समूह, कस्तूरी एंड संस जैसी कंपनियां इनमें प्रमुख हैं. इन कंपनियों में बड़े पैमाने पर नेताओं और देश के उद्योगपतियों का भी पैसा लगा हुआ है. यह विशालकाय कंपनियां छोटी कंपनियों को बाज़ार में टिकने नहीं दे रही हैं जिससे देश में मीडिया के एकाधिकार का ख़तरा बढ़ता ही जा रहा है. 

यह बात बिल्कुल साफ़ है कि अगर मीडिया पर कुछ गिने-चुने पूंजीपतियों का ही अधिकार स्थापित हो जाएगा तो वह हर संभव जनता की परिवर्तनकामी चेतना को कुंद करने का काम करेंगे और मुनाफे के लिए युद्धोन्माद से लेकर भ्रष्ट्राचार का कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकेंगे. ऐसे में विकल्प तलाशने वालों के लिए बड़ी पूंजी पर टिके इस मीडिया का मुकाबला करना कठिन होता जाएगा. वैसे भी वैकल्पिक पत्रकारिता करने वाले छोटा मीडिया पूंजीवादी मीडिया के सामने पूरे समंदर की एक बूंद जितनी जनसंख्या को भी प्रभावित करने में भी सक्षम नहीं है. मीडिया की ताकत और जनमत निर्माण में उसकी भूमिका को ध्यान में रखकर अगर वाम-लोकतांत्रिक ताक़तों ने जनता से संवाद करने के लिए अपना मीडिया तंत्र विकसित करने की कोशिश नहीं की तो उन्हें हाथिये में जाने से कोई रोक नहीं सकता.

प्रख्यात अमेरिकी विद्वान हर्मन और चोम्सकी कई साल पहले अपनी किताब मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट: पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ मास मीडिया में कह चुके हैं कि बड़ी पूंजी पर टिका मास मीडिया जनता में किस तरह झूठी सहमति या राय का निर्माण करता है. वह असली मुद्दों से ध्यान हटाकर पूंजीवादी नीतियों का प्रोपेगेंडा करता है. यहां तक कि अब यह भी कहा जाने लगा है कि पूंजीवादी मीडिया सहमति का ही निर्माण नहीं करता बल्कि वह असहमति का भी निर्माण करने लगा है. हाल के दौर में कई जनआंदोलनों को पूंजीवादी मीडिया का निर्माण माना जा रहा है जो वास्तव में सत्ता पर सवाल उठाने के बजाय कुछ नए कानूनों बनाने तक ही लड़ाई को सीमित कर देते हैं. वे विशाल जनता को इस भ्रम में उलझाकर दावा करते  हैं कि एक कानून बनाने से देश पूरी तरह बदल जाएगा. मीडिया को इस तरह के मुद्दे काफ़ी पसंद आते हैं. बदलाव की चाह रखने वाली ताक़तों को बहुत ही सावधानी से इस तरह के आंदोलनों का मूल्यांकन कर अपना पक्ष तय करना होगा.

विश्व पूंजीवाद और मीडिया से जुड़ी जटिल स्थिति को ध्यान में रखकर आज सामाजिक बदलाव की चाह  रखने वालों के बीच जनपक्षधर मीडिया के निर्माण का सवाल मुंह बाये खड़ा है. मार्क्सवादी नज़रिए से जहां मीडिया के पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र पर चोट करनी  होगी, वहीं इसे आमूल परिवर्तन की लड़ाई से भी जोड़ना पड़ेगा. इसके लिए मीडिया के पूंजीवादी मालिकाने को निशाना बनाना और उन्हें प्रश्रय देने वाली पूंजीवादी राष्ट्रीय नीतियों का विरोध ज़रूरी है. 

पूंजी के गुलाम बन चुके विद्वान दावा करते हैं कि वर्तमान हालात में पूंजीवादी मीडिया का कोई विकल्प नहीं है. ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि बदलाव की लड़ाई एक दिन में पूरी नहीं हो जाती. असंभव को संभव बनाने की इच्छा ही यथास्थिति को तोड़ने में मददगार हो सकती है. नया रचने का साहस ही किसी लड़ाई की मूल प्रेरणा बनता है. ऐसे में भले ही पूरा मीडिया तुरंत न बदले लेकिन स्थितियों में कुछ न कुछ बदलाव दिखने लगते हैं. दूसरी तरह के विद्वान मानते हैं कि पूंजीवादी मीडिया में कुछ सुधार कर, एक तरह का नियमन कर उसे सुधारा जा सकता है.इस तरह का दृष्टिकोण उदारवादी पूंजीवाद के तर्कों से बाहर नहीं निकल पाता है. जिसमें एक तरह से पूंजीवाद को विकल्पहीन ठहराने की हड़बड़ी और स्वार्थ होता है.

अंत में कहा जा सकता है कि भारतीय मीडिया का भविष्य बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि भविष्य के भारत की राजनीति और अर्थनीति कैसी होगी लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि अगर जनपक्षीय भविष्य का कोई सपना देखता है तो वह मीडिया को जनपक्षीय बनाने की लड़ाई छेड़े बिना संभव नहीं हो सकता. इसके लिए अनिवार्य तौर पर मीडिया के पूंजीवादी स्वामित्व का ख़ात्मा करना होगा, तभी अस्मिता से जुड़े राष्ट्रवाद जैसे भावुक मुद्दे शोषित-उत्पीड़ित जनता को ज़्यादा वक़्त के लिए बेवकूफ़ नहीं नहीं बना पाएंगे. कोई बरगलाने की कोशिश करेगा भी तो लोग एकजुट होकर उसे करारा ज़वाब देंगे.

भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। 
कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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