Wednesday, 2 October 2013

दंगे आखिर रुकें तो कैसे?

सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...अगर इस समझ को लेकर हाल के मुजफ्फरनगर के दंगों पर नजर डालें तो ये इस मामले में अपवाद नजर आते हैं कि वे एक ऐसी पार्टी के शासन में हुए, जिसका मुस्लिम वोटों में बड़ा दांव माना जाता है। दरअसल, यही बात अचरज में डालती है कि मायावती के राज में सांप्रदायिक रूप से लगभग शांत राज्य में पिछले साल नई सरकार बनने के बाद ऐसा क्या हो गया कि अब तक सांप्रदायिक तनाव की 50 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं? फिर मुजफ्फरनगर में अशांति की शुरुआत होने के दो हफ्ते बाद तक हिंसा कैसे जारी रही?..."


 
 
स्टीवन विल्किनसन ने सांप्रदायिक दंगों के विस्तृत अध्ययन पर आधारित अपनी किताब वोट्स एंड वायलेंस में दलील दी है कि उस राज्य/देश में सांप्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका नहीं रहती जहां की सरकार अल्पसंख्यकों के वोटों पर राजनीतिक रूप से अत्यधिक निर्भर रहती है। ऐसी सरकारें दंगे रोकने में पूरी प्रशासनिक ताकत लगा देती हैं। यह तो जग-जाहिर है कि दंगों की मार असल में अल्पसंख्यक समुदाय पर ही पड़ती है। इसलिए न सिर्फ भारत, बल्कि अनेक दूसरे देशों का भी अनुभव है कि अल्पसंख्यक समुदायों की प्राथमिक मांग जान-माल की सुरक्षा होती है। विल्किनसन के निष्कर्षों को परखना चाहें तो हाल के भारतीय इतिहास में इसके अनेक उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। मसलन, बिहार में लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी का शासन राज्य में कानून-व्यवस्था की खराब हालत और आम असुरक्षा के लिए बदनाम है। इसके बावजूद 15 वर्ष के इस दौर में बिहार में हिंदू-मुस्लिम का कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ। अगर कहीं छिटपुट घटनाएं हुईं तो उन्हें फ़ौरन दबा दिया गया। जबकि लालू प्रसाद उस समय बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, जब पूरा उत्तर भारत- मंदिर वहीं बनाएंगे- के भावावेश में था और दंगे देखते ही देखते भड़क जाते थे। उनके शासन में आने के ठीक पहले बिहार में भागलपुर का दंगा हुआ था, जो लंबे समय तक खिंचते रहने के लिए कुख्यात है। आखिर लालू यादव के राज में क्या बदल गया? बिहार के राजनीतिक पर्यवेक्षक जानते हैं कि चूंकि लालू का सियासी समीकरण मुस्लिम वोटों पर निर्भर था, इसलिए उनका प्रशासन को सख्त आदेश था कि दंगा बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को इसके लिए खास रूप से जवाबदेह बनाया गया था।

इसके विपरीत दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगे, भागलपुर, मलियाना या बाबरी ध्वंस के बाद मुंबई के दंगे (जो लंबे खिंचे या जिनमें पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत का आरोप लगा) कांग्रेस शासन के उस दौर में हुए, जिसके बारे में अनेक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी तब बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को उभार कर उनका राजनीतिक लाभ उठाने के दांव खेल रही थी। गुजरात-2002 दंगों बारे में आरोप है कि ये इसलिए उतना खौफनाक हुए, क्योंकि वहां के मुख्यमंत्री बहुसंख्यक वर्चस्व की परियोजना का परीक्षण करना एवं उसे ठोस रूप देना चाहते थे। इन उदाहरणों की रोशनी में यह बात जरूर कही जा सकती है कि अगर सरकार या प्रशासन ना चाहे तब भी दंगे भड़क तो सकते हैं, मगर ना तो लंबा खिंच सकते हैं और ना ही उनमें जान-माल की व्यापक क्षति हो सकती है।

अगर इस समझ को लेकर हाल के मुजफ्फरनगर के दंगों पर नजर डालें तो ये इस मामले में अपवाद नजर आते हैं कि वे एक ऐसी पार्टी के शासन में हुए, जिसका मुस्लिम वोटों में बड़ा दांव माना जाता है। दरअसल, यही बात अचरज में डालती है कि मायावती के राज में सांप्रदायिक रूप से लगभग शांत राज्य में पिछले साल नई सरकार बनने के बाद ऐसा क्या हो गया कि अब तक सांप्रदायिक तनाव की 50 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं? फिर मुजफ्फरनगर में अशांति की शुरुआत होने के दो हफ्ते बाद तक हिंसा कैसे जारी रही? अगर हम इन आरोपों में ना जाएं कि समाजवादी पार्टी ने खुद को मुसलमानों का संरक्षक दिखाने के मौके की तलाश में जानबूझ कर स्थिति बिगड़ने दी, तब भी प्रशासन से जिस चुस्ती की अपेक्षा थी वह नहीं दिखी, यह तो कहा ही जा सकता है। तो क्या उप्र की ताजा हालत के मद्देनजर हमें उपरोक्त निष्कर्ष पर पुनर्विचार करने की जरूरत है?

यहां दो बातें अहम हैं- पहली यह कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था में पुलिस एवं कानून-व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी हैं, और दूसरी यह कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के उत्तरोत्तर संघीयकरण के साथ राज्यों की राजधानियां सत्ता एवं सियासत का कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण केंद्र बनती जा रही हैं। ऐसे में जिस तरह विकास योजनाओं पर अमल में राज्य सरकारों की भूमिका बढ़ी है, वैसे ही राजनीति के स्वरूप को तय करने एवं दिशा देने में संबंधित राज्य में प्रासंगिक या मजबूत सियासी ताकतों की भूमिका बढ़ रही है। एक समय जब कांग्रेस का एकछत्र राज था, तब तमाम स्थितियों एवं मुद्दों पर बहस या जवाबदेही का एक राष्ट्रीय चरित्र था। अब ऐसी बहसें राज्यों के दायरे में सिमटती जा रही हैं। ऐसे में सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में राज्य स्तर पर राजनीतिक एवं प्रशासनिक जवाबदेही तय करना निरंतर अधिक महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। 

मुद्दा यह है कि अगर किसी राज्य में कोई एक या अधिक राजनीतिक शक्ति सांप्रदायिक तनाव या दंगे भड़काने में अपना राजनीतिक स्वार्थ देखती हो, तो इस परिघटना से आखिर कैसे निपटा जाए? क्या प्रस्तावित सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण (न्याय प्राप्ति एवं क्षतिपूर्ति) कानून से इस दिशा में कोई मदद मिलेगी? या इसके लिए व्यापक पुलिस सुधारों की जरूरत है, जिस क्रम में पुलिस बल में सभी समुदायों के लोगों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देना आवश्यक है? प्रशासन राजनीतिक आकाओं के निहित स्वार्थ के मुताबिक नहीं, बल्कि पेशेवर ढंग से और संवैधानिक मूल्यों के प्रति आस्था रखते हुए काम करे, इसे कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये तमाम प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो गए हैं। हाल में हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में अगर इन पर गंभीर एवं सार्थक चर्चा हुई होती, तो इसका अंदाजा मिलता कि विभिन्न राजनीतिक शक्तियों में से कौन कहां खड़ा है? मगर बैठक में अफवाह या अवांचित सामग्रियां फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका मुख्य मुद्दा बन गया। इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं खींचा कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग तब होता है, जब तनाव या टकराव की चिनगारी उड़ चुकी होती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कुछ सियासी ताकतें सामाजिक विभाजन या अविश्वास का लाभ उठाने की सुनियोजित कोशिश करती हैं। सांप्रदायिक दंगे अनिवार्य रूप से राजनीतिक मुद्दा हैं। इन्हें रोकने का सिर्फ प्रशासनिक उपाय सोचना निरर्थक है। इसलिए असल मुद्दा यह है कि दंगों की राजनीति का किस वैकल्पिक राजनीतिक रूप से मुकाबला कैसे किया जाए? इसके लिए कौन तैयार है? दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुजफ्फरनगर की मानवीय त्रासदी के बावजूद इस बारे में व्यापक दृष्टि से सोचने को अपनी सरकारें और राजनीतिक दल तैयार नहीं हैं। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

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