Sunday, 2 December 2012

पाश की एक कविता

हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम के ख़िलाफ़
हम लड़ेंगे साथी
गुलाम इच्छाओं के ख़िलाफ़
हम चुनेंगे साथी
ज़िन्दगी के टुकड़े
हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम के ख़िलाफ़

हथोड़ा अब भी चलता है
उदास निहाई पर
हल की लीकें अब भी बनती हैं
चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता
सवाल नाचता है
सवाल के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए ज़ज्बात की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथों पर पड़ी गाठों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक कि
बीरू बकरिया जब तक
बकरियों की पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूलों को
बीजने वाले जब तक नहीं सूंघते

कि सूजी आँखों वाली गाँव की
अध्यापिका का पति जब तक
जंग से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने ही भाइयों का गला दबाने को विवस हैं
कि बाबू दफ्तरों के जब तक
रक्त से अक्षर लिखते हैं
हम लड़ेंगे
जब तक दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है

जब बन्दूक न हुई तो तलवार होगी
जब तलवार न हुई तो लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ लड़ने की ज़रुरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे कि
लड़ने के बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे कि
अभी तक लड़े क्योँ नहीं

हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वालों की
याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी

Monday, 1 October 2012

चंडीगढ़ डायरी, दूसरी किस्त....!

अगली सुबह जब वो उठा तो उसे लगा जैसे सूरज आज जल्दी निकल आया हो, लेकिन घडी में समय बहुत ज्यादा हो गया था, करीब पौने दस। बरामदे पर पीली धूप थी, सितम्बर के महीने की हलकी-हलकी हवा से आस-पास के पेड़ों के पत्ते सरमरा रहे थे और आसमान एकदम साफ़ था। नीचे मकान मालिक का कुत्ता बड़ी जोरों से भोंक रहा था जैसे की कोई अनजान आदमी घर में घुस आया हो। उसका रूम मेट भी अपने काम में जा चुका था। वह कभी नौकरी नहीं करना चाहता था लेकिन चंडीगढ़ जैसे महेंगे शहर में बिना नौकरी के गुजरा भी संभव नहीं था, इसीलिए लेखन के छोटे-मोटे काम कर लिया करता था और एक लोकल अख़बार में नौकरी भी। लिखने का उसे बहुत शौक था इसलिए उसने अख़बार में नौकरी करनी सही समझी। आज तो उसे न्यूज़ पेपर पढने का भी समय नहीं था, ऑफिस के लिए लेट जो हो रहा था। उसने सोचा की चलो कुछ हेड लाइंस ही पढ़ ले। उसने सिगरेट का पाकिट उठाया और सिगरेट जलाई फिर डेस्क की तरफ गया, वहां डेस्क पर एक चिट चिपकी हुयी थी, जिस पर लिखा था कि "ब्रेकफास्ट रखा है खा लेना, मिलते हैं।" आशीष हमेशा से उसकी अनुपस्थिति में या उसके सोये होने पर डेस्क पर ऐसी चिट चिपकाकर ही कहीं जाता था, और चिट के आंखिरी में "मिलते है" हमेशा ही लिखा रहता था। उसे भी आशीष की ये आदत पसंद थी, शायद इसमें उसे अपनेपन से भी ज्यादा कुछ दीखता था, जिसे वो कभी भी शब्दों में परिभाषित नहीं कर सकता था। उसने किचेन में जाके देखा, कुछ ब्राउन ब्रेड, आमलेट और सांसेस रखे हुए थे।

         आज उसका दफ़्तर जाने का मन नहीं था, कल से एक घबराहट ने उसके अन्दर जगह बना की थी, वह खुद भी नहीं समझ पा रहा था की ये विचित्र सी घबराहट क्या है? पर दफ्तर तो उसे जाना ही था। उसने एक सिगरेट जलाई, अपनी किताब और कुछ जरूरी सामान झोले में डाले और घर के दरवाजे बंद करके बाहर आ गया। मकान मालिक लोन में बैठा हुआ था। कुत्ता अभी भी भोंक रहा था, उसे देख कुत्ता दौड़ते हुए उसके पास चला आया और उसकी पैंट खींचने लगा। उसने कुत्ते के सर पर हाथ फ़ेरा और उसे हटाया। दफ्तर के लिए पहले ही देर हो चुकी थी। गेट से बहार आकर ऑटो लिया और सतारा (सेक्टर-17), जहाँ उसका ऑफिस था चलने को कहा।

"तुम आज फिर लेट हो गए?" उसके कलिग के मजाक के लहेजे में कहा।

वह हलके से मुस्कुराया और अपनी सीट पर बैठ गया।

"अम्बर क्या तुम्हें नहीं लगता, तुम अकेलेपन के शिकार होते जा रहे हो। तुम क्योँ अपने आप में खोये रहते हो? कोई परेशानी है तो बताओ" राकेश बोला।

" नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है, बस आजकल कहीं भी मन नहीं लगता मुझे खुद भी पता नहीं है कि मेरे साथ ऐसा क्योँ हो रहा है?" उसने जवाब दिया।

उसे समझ नहीं आ रहा था की वह राकेश कैसे बताये कि उसके अन्दर क्या उथल-पुथल मची हुयी है, कोई भी शब्द उसके पास नहीं थे ये बताने को। शायद ये भी एक उलझन ही थी उसके लिए। उसे तो कभी यहाँ होना ही न था, उसे लड़ना था, शोषकों से, पूंजीवादियों से, उसने अपने लिए वह ख्वाब नहीं देखे थे जो वह कर रहा था। उसने मीडिया इसीलिए चुना था की वो आवाज उठा सके, गरीबों के हक में और पूंजीवादी हुक्मरानों के खिलाफ़। लेकिन जल्द ही उसे पता चल गया कि आज का मीडिया भी तो पूंजीवादी है, और उसे ऐसी कोई भी जगह नहीं दिखती थी जहाँ पूंजीवाद ने अपनी जडें न जमायीं हों।

जब भी हम कभी किसी चीज़ से भागने लगते हैं तो वो चीज़ अनजाने ही हमारे साथ चलने लगती है। हमारे मन-मस्तिस्क पर भी काबू कर लेती है, उससे बचने या दूर भागने के तरीके सोचते हुए हम कब उसकी ज़द में आ जाते हैं हमें पता नहीं चलता।

"तुम्हारी मर्ज़ी मत बताओ लेकिन इस तरह मत रहा करो। लोगों से मिलो, बात करो, अपने अन्दर के एकाकीपन को दूर करने की कोशिश करो। केवल अपने काम और निजी ज़िन्दगी तक ही सीमित मत रहो।" राकेश ने कहा।

"क्या तुम्हारे पास सिगरेट है? आज में अपना पाकिट घर पर ही भूल आया" उसने बात टालने के लिए कहा।

"तुम कभी नहीं सुधरोगे" राकेश ने हँसते हुए सिगरेट का पाकिट बढाया।

उसने सिगरेट जलाई और अपना काम करने लगा।

         शाम के करीब सवा छः बजे थे। वह दफ़्तर से बाहर आया। खुले आसमान की जगह हल्के-हल्के बादलों ने ले की थी, जो आसमान को अपने आगोश में लेने को आतुर दिखाई दे रहे थे। ढलती धूप कभी-कभी बादलों के बीच से निकल कर और वापस उसके आगोश में आकर लुक्का-छिप्पी खेल रही थी। मद्धिम हवा उसके कानों को छूकर ऐसे निकल रही थी जैसे रुई का फाहा उससे टकराकर निकल रहा हो।

        उसने सुखना का ऑटो लिया। ऑटो में बैठते ही उसे वही जानी पहचानी घबराहट ने फिर जकड लिया। वह सोच रहा था की आज उसे सुखना जाना चाहिए या नहीं। उसे लग रहा था कि छोटी-छोटी बातों में घबराने की उसकी आदत बन गयी है। क्योँ वह हर आम आदमी की तरह नहीं रह सकता? राकेश की बात उसे बिलकुल सही लगने लगी थी। वह वाकई एकाकीपन का शिकार को रहा था। लेकिन अब नहीं, वह अब ऐसे नहीं रहेगा। उसने मन ही मन सोचा।

        इन्ही ख्यालों में खोया था की उसे पता भी नहीं चला कि सुखना झील कब आई। ऑटो वाले को पैसे देकर वह झील की तरफ चले गया। झील का माहौल हमेशा की तरह खुशगवार था। वह जहाँ भीड़-भाड़ कम थी उस ओर चल पड़ा और पेड़ के नीचे की एक बेंच पर बैठ गया। अच्छी खासी भीड़ होने के बावजूद एक रहस्यमयी शांति उसके चरों और फैली हुई थी। झील की नैसर्गिता देखते ही बनती थी, झील में बतखें तैर रही थी और दूर बोटिंग करते लोग भी बतखों से ही प्रतीत होते थे। उसे लगता कि सुखना के हर एक चीज़ से उसका गहरा नाता है। कुछ देर बाद उसने अपनी किताब निकली और पढने लगा।

"हैलो अम्बर!" पीछे से आवाज आई।

"हैलो!" वह आवाज पहचान गया था। वह वर्तिका ही थी। हल्की सी घबराहट ने उसे फिर से घेर लिया।

"मैं आप ही का वेट कर रही थी, मैंने आपको आते हुए देख लिया था, हाथ भी हिलाया पर शायद आपने गौर नहीं किया" वर्तिका ने कहा।

"माफ़ कीजियेगा मैंने वाकई आपको नहीं देखा। कैसी हैं आप ?" वह बोला।

"एक दम बढ़िया" वर्तिका ने बेंच पर बैठते हुए कहा।

"आप वो दूर पहाड़ देख रहे हैं। मैं हमेशा से ही उनके बीच जाना चाहती हूँ, वहीँ रहना चाहती हूँ जिंदगी भर, इस शहरी भागमभाग से दूर शांति में।" वर्तिका ने दूर दीखते हिमांचल के पहाड़ों की ओर इशारा करते हुए कहा।

"वहां जाना किसको अच्छा नहीं लगता है?  दुनिया में कोई आदमी ऐसा भी होगा भला जो वहां नहीं जाना चाहेगा।" उसने उत्तर दिया।

उसके अन्दर एक टीस सी उठ गयी थी। वो भी तो पहाड़ से ही आया था यहाँ, हालातों से मजबूर होकर। जिस शहर की तलाश में वो निकला था ये वो शहर तो नहीं था, शायद दुनिया का कोई भी शहर वो शहर नहीं। और गाँव, गाँव तो हमेशा ही विकास की राह ताकते रह जायेंगे, मूलभूत सुविधायें हो न हो, मकान जरूर बनते जायेंगे। उसने मन ही मन सोचा।

"कहाँ खो गए आप?" वर्तिका ने कहा।

नहीं, कहीं नहीं,! वो जैसे गहरी नींद से जागा।

"तो आप वहां चली क्यों नहीं जाती?" उसने पुछा।

"काश जा पाती तो यहाँ कभी भी लौट कर नहीं आती, कभी भी नहीं, लेकिन परिस्थितियों के आगे हम सब मजबूर हो जाते हैं।" वर्तिका ने कहा।

"हां, हम सब परिस्थितियों के आगे ही तो मजबूर हैं।" उसने कहा। उसकी घबराहट अब ख़त्म हो चुकी थी।

"आप करते क्या हैं?" वर्तिका ने पुछा।

"यहीं के एक लोकल न्यूज़ पेपर में काम करता हूँ।" उसने कहा। "और आप?" उसने पुछा।

"मैं थिएटर करती हूँ।" वर्तिका ने उत्तर दिया।

"अरे वाह! आपसे अब मिलते रहना पड़ेगा। मुझे थिएटर बहुत पसंद है।" उसकी आँखों में ख़ुशी का भाव दौड़ आया। उसे वाकई थिएटर पसंद था। दिल्ली में वह थिएटर जाते रहता था। उसके कुछ दोस्त भी थिएटर करते थे।

"तो आइये कभी हमारा शो देखने।" वर्तिका खुश होकर कहा।

"ज़रूर, आप बुलायेंगी तो क्यों नहीं।" उसने कहा।

"तो आइये हमारे शो में, जल्दी ही होगा शायद अगले महीने के पहले सप्ताह पर ही, 'असग़र वज़ाहत का 'जिस लाहोर नि वेख्या ओ जन्म्या ई  नि'।" वर्तिका ने कहा।

वर्तिका की आँखों में उसे एक नयी चमक दिखाई दी।

"जी ज़रूर आऊंगा, ये मेरा पसंदीदा नाटकों में से एक है" उसने कहा।

"अच्छा मुझे अब चलना चाहिए।"  वर्तिका ने कहा।

"ओके! फिर मुलाकात होगी।" उसने जवाब दिया।

        स्ट्रीट लाइट जल उठी थी, आसमान भी बिलकुल साफ़ हो चुका था। शाम की हल्की-हल्की रौशनी रात के अँधेरे में बदल गयी थी। स्ट्रीट लाइट के मद्दिम प्रकाश में झील की तरंगों का सोंदर्य देखते ही बन रहा था, झील में तैरती नांव किनारे आ चुकी थी। उसने पाकिट से सिगरेट निकाल कर जलाई, और एक लम्बा सा कश लगाया। आज उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। कुछ हल्कापन सा महसूस हुआ उसे, जैसे कोई बंदिश टूट गयी हो। एक नए एहसास ने उसके अंदर जन्म लिया था।


                                                                                                   क्रमश:--------

Saturday, 29 September 2012

पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तां में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ, होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दुस्तां यहाँ..

हितेश सोनिक ने पीयूष मिश्रा के इस गीत को 15 साल पहले सुना था और उसके बाद हाल ही में कोक स्टूडियो में हितेश सोनिक के संगीत में पीयूष मिश्रा ने इस गीत को नए रूप में पेश किया है। पीयूष मिश्रा द्वारा गाया गया यह गीत जावेद के एक पत्र से है जो विभाजन के दौरान अपनी प्रेमिका हुस्ना से बिछड़ गया है। पीछे छूट चूका सब कुछ अंततः उसके अंदर ही अंदर घूम रहा है, गीत में लाचारी और दु: ख के एक उभरते भावना है और विभाजन का दर्द भी। हितेश का संगीत दिलचस्प है और गिटार की धुन में भारतीय शेली साथ पाश्चात्य संगीत का प्रयोग किया गया है। उस समय की उथल-पुथल को ध्यान में रखते हुए विभाजन के उस युग पर विश्राम लगाने की भी कोशिश की है. 
आप भी जरूर सुनें

Friday, 28 September 2012

बाबा नागार्जुन की कविता.

बाबा नागार्जुन की लिखी कविता "ॐ शब्द ही ब्रह्म है " जिसे ज़ुबीन गर्ग ने गाया है आप भी सुनें।

समय हो तो जरूर सुनें.



उस्ताद अशद अमानत अली खान की आवज में सुनें "उमरां लंग्याँ". केवल १० साल की उम्र में अपना पहला गाना रिकॉर्ड करने वाले उस्ताद अशद अमानत अली खान पटियाला घराने से ताल्लुक रखते थे और पटियाला घराने के संस्थापक उस्ताद अल बक्श के परपोते थे.

एक नज़्म.


हर वक्त हर दम उलझती नज़र आती है
ज़िंदगी मौत से न कमतर नज़र आती है

एक सन्नाटा सा घेरा रहता है जहाँ को
हर पड़ाव हर मोड़ पर परेशां नज़र आती है


चाहे कितनी भी शान-ओ-शौकत से रहे उम्रभर

वक़्त कटता चला जाता है बदगुमां नज़र आती है

सर पे चढा रहता है सुलगता सूरज
रात भी तनहाइयों की दास्तां नज़र आती है

फैला है चारों ओर वहशत का समां
दोस्ती भी दुश्मनी से बद्तर नज़र आती है

बैठा है हर शख़्स करने कत्ल किसी का
इंसानियत का कहीं निशां नहीं, बस हैवानियत नज़र आती है।

Thursday, 27 September 2012

एक नज़र यहाँ भी



बाबा नुसरत फ़तेह अली खान साहब की एक बेजोड़ क़व्वाली "सांसों की माला पे सिमरूं में पिय का नाम ", बाबा नुसरत की बंदिशों में सुरों की जो जुगलबंदी देखने को मिलती है वो कहीं और नहीं। समय हो तो जरूर सुनें।

Sunday, 23 September 2012

चंडीगढ़ डायरी पहली किस्त....!

शाम का समय था। चंडीगढ़ की सुखना झील के किनारे बैठा एक लड़का, खोया हुआ न जाने कहाँ? आस-पास फैली भीड़ में भी अकेला। अक्सर ही झील के किनारे बैठ कर वो पढ़ा करता था। इरविंग स्टोन की लस्ट फॉर लाइफ वो हमेशा ही साथ लिए चलता था। पढ़ते-पढ़ते पता नहीं कब वो कहीं खो जाता था, जिसका उसे भी कभी पता नहीं चलता। धीमी-धीमी हवा चल रही थी, इलेक्ट्रोनिक ट्रेन की छुक-छुक, उस पर बैठे शोर मचाते बच्चे, झील के किनारे चहल कदमी करते लोग, भुट्टा बेचती बुढिया, उसके पास ही बैठा एक प्रेमी जोड़ा, बगल में बैठी बातें करती लड़कियां, झील में बोटिंग करते लोग लेकिन उसके लिए जैसे कोई भी नहीं हो आस पास। हमेशा से ही सुखना झील के किनारे बैठना उसे अच्छा लगता था। वो एक अद्भुत शान्ति सी महसूस करता था लेकिन कई बातें ऐसी भी थी जो सुखना के किनारे उसके अंतर्हृदय से खुद-ब-खुद बहार झाँकने लगती थी। उसे लगता था जैसे कुरेद रही हों कोई रहस्यमयी बातें उसके ह्रदय को। कभी सोचता वो क्या कर रहा है यहाँ? क्या उसे यहाँ होना चाहिए था? उसने तो चुन ली थी कोई दूसरी ही दुनिया अपने लिए या फिर ये वो ही दुनिया है उसने जिसके ख्वाब देखे थे। उसे पता था,  नहीं! ये वो दुनिया तो नहीं। कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ, स्टालिन को पढ़ते हुए उसने जिस दुनिया के ख्वाब देखे थे ये वो दुनिया तो नहीं थी। चे गुएवारा की जीवनी पढने के बाद वो भी चे गुएवारा ही बनना चाहता था। उसने आदर्श बना लिया था उसे। उसे पता था की देश के हालत के बारे में, दांतेवाडा, नक्सलबाड़ी की खबरें अक्सर ही सुनता रहता था। जीवन में जब युवावस्था कदम रखती है तो हर युवा के अंदर एक क्रांतिकारी चेतना घर कर जाती हैं, दुनिया और हालातों को बदलने के ख्वाब उमड़ आते हैं। लेकिन उस भावना को अपना मकसद हर कोई नहीं बना सकता। क्या वो भी अब अपने संकल्प को तोड़कर एसो-आराम की तलाश में चल पड़ा था? क्या भटक गया था अपनी राह से। वो चंडीगढ़ उन सपनों को पूरा करने आया है, जो कभी उसने देखे ही नहीं। परिस्थितियां उसे चंडीगढ़ ले आई। पर क्या चे परिस्थितियों से नहीं लड़े थे? उन्होंने तो कभी अपने वैभवपूर्ण जीवन के सपने नहीं देखे। कैसे कोई आदमी अपना सब कुछ त्याग कर समाज की उन्नति के लिए काम करता है? क्योँ उसे अपनी जान की फिक्र नहीं होती? फिर वो सोचता वो भी तो परिस्थितियों से ही लड़ रहा है और अपने वैभव पूर्ण जीवन के सपने तो उसने कभी देखे ही नहीं। कार्ल मार्क्स पढ़ते हुए उसे समझ आया की अमीर ही तो गरीबों के शोषक होते हैं। वह अपने मार्ग से कभी भी नहीं भटकेगा, लडेगा जैसे अभी परिस्थितियों से लड़ रहा है। वह सोचता कि छोड़ दे ये सब कुछ जो वो कर रहा है, ये भी तो गुलामी ही है। जिनके खिलाफ उसे लड़ना है, उनके लिए काम करके उनके खिलाफ कैसे खड़ा होयेगा? इन्हीं सवालों का निष्कर्ष ढूंढते-ढूंढते वो अन्दर ही अन्दर कांप जाता था। सुन्न सा पढ़ जाता उसका शरीर जैसे कि जकड लिया हो किसी ने।

"आप यहाँ रोज आते हैं ना?" पीछे से आवाज आई।

अचानक उसका स्वप्न रुपी ध्यान टूटा, उसने देखा कि सूरज डूब चुका था, झील के किनारे की लाइटें जगमगाने लगी थी, हवा की गति भी पहले की अपेक्षया बढ़ गयी थी। किताब के पन्ने फडफडा रहे थे। अगस्त-सितम्बर महीनों की शामों में जब गर्मी की मार कम पढ़ जाती है तो अक्सर सुखमा में लोगों की भीड़ बढ़ जाती है जो की देर रात तक देखने को मिलती है। उसे कभी पता नहीं चल पता था कि कब सूरज की मद्धिम रौशनी की जगह रात की स्ट्रीट लाइट ले लेती है। उसे लगता है कि वो तो बरसों से यहीं बैठा हुआ है। उसके बगल में बैठी लड़कियां जा चुकी थी जिसकी जगह एक बूढ़े आदमी ने ले ली थी पर प्रेमी जोड़ा अभी भी वहीँ अपनी ही जगह बैठा था, उसे लगा की ये प्रेमी जोड़ा भी उसी की तरह है अपने आप में खोया हुआ, जिसे दुनिया की कोई परवाह ही नहीं। बिलकुल उसी की तरह उनके लिए भी आस-पास कोई नहीं था।

 "जी हाँ!"
उसने पीछे मुड़के देखा। सलेटी रंग के टॉप और नीली जींस में एक सुन्दर और सरल सी दिखने वाली लड़की खड़ी थी।

"मैं भी रोज शाम को यहाँ आती हूँ। आप से थोड़ी ही दूर बैठी रहती हूँ। वो सामने वाली बेंच में, क्या आपके साथ बैठ सकती हूँ?।" वो बोली।

"जी बिलकुल"

"बाय द वे आई अम वर्तिका" लड़की ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा।

"अम्बर" उसने हाथ मिलाया।

"आप को पढने का बहुत शौक है?" उसने पूछा।

"जी हाँ" उसके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान बिखरी। उसे हमेशा ही किताबों के बारे में बातें अच्छी लगती थी।

"मुझे भी, लस्ट फॉर लाइफ मैंने भी कई बार पढ़ी है" वो किताब की ओर देख कर बोली।

"आप बहुत कम बोलते हैं" लड़की ने मजाक में कहा।

वह मुस्कुराया। वह किसी भी अनजान व्यक्ति से बात करने में झिझकता था। और लड़की ने उसकी उसी नब्ज पर हाथ रख दिया था।

उसने घडी में टाइम देखा। रात के करीब 9 बज चुके थे।

"अब मुझे चलना चाहिए, आज समय बहुत हो गया है।" उसने झिझकते हुए कहा।

"जी। क्या कल आप यहाँ मिलेंगे ?" वर्तिका बोली

"जी हाँ कल मुलाकात होगी। गुड नाईट " उसने कहा।

उसने किताब और अपना झोला उठाया और झील से बाहर आ गया। रोड में पहुंचकर उसने ऑटो रिक्शा लिया।
"सेक्टर 23 चलोगे?"
"चलेंगे साब।"
वो ऑटो में बैठा. वो चंडीगढ़ के सेक्टर-23 में रहता था, पेइंग गेस्ट में। उसे हमेशा लगता था की चंडीगढ़ शहर में रोज़ ऑटो रिक्शा का खर्च वहन नहीं कर पायेगा पर सुखना जाये बिना वो रह भी नहीं पता था। कई बार एक स्कूटर लेने की सोची पर कभी भी उसके लिए पैसे इकट्ठे नहीं कर पाया। कई बार सोचा की सुखमा के पास ही कमरा ले ले पर वहां पेइंग गेस्ट बहुत मेहेंगे थे। पैसे की कमी होने के बावजूद उसमें कभी भी पैसे का लोभ नहीं जागा। रोक गार्डेन के पास उसने ऑटो रिक्शा रुकवाया और उतरकर एक डिब्बी सिगरेट ली। ऑटो में बैठकर सिगरेट जलाई, सिगरेट की हर एक कश दिन की सारी थकान उतार देती थी।

"आज बड़ी देर हो गयी तुम्हें कहीं और भी गए थे क्या?" आशीष  बोला

"नहीं सुखना में ही था।"

"क्या तुमने डिनर किया?" आशीष ने पूछा।

उसने हाँ में सर हिलाया।

आज कुछ थक गया हूँ आराम करना चाहता हूँ।" अम्बर ने कहा।

"गुड नाइट ",

"गुड नाइट".

लेकिन आज देर रात तक उसे नीद नहीं आई। एक अजीब सा डर उसे सता रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आया। कल उसे उस लड़की से फिर मिलना था।

                                                                                                          क्रमश:--------

Saturday, 25 August 2012

कल आज और कल

कल आज और कल
फर्क बस इतना है कि
कल चले गया
आज चल रहा है और
कल आएगा
हमेशा की तरह वापस आएगा कल
क्या सच होगा इतिहास लौटने का मुहावरा?
तो क्या हम अपने
कल के वापस आने के इंतजार में
अपने कल को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं करें
हम खुद को ढाल लें परिस्थितियों के अनुरूप
या कोशिश करें परिस्थितियों को बदलने की
समाज तो जैसा कल था वैसा ही आज भी है
लेकिन समाज कल कैसा होगा
ये फैसला केवल हम ही कर सकते हैं
और इस कल की तस्वीर को बदलने के लिए हमें बदलना होगा अपना आज
जब आज की तस्वीर बदलेगी तभी कर पाएंगे कल्पना
हम कल के बदलने की
और समाज के बदलाव की
बदलाव तो हमेशा से ही रही है जरूरत दुनिया की
पर हम तो ये सोचते आये हैं की
वक़्त फिर लौटेगा
कल फिर आयेगा
हमें क्यों जरूरत आन पढ़ती है कल के वापस आने की?
क्यों हम अपना आज नहीं संवार सकते?
इतना अच्छा भी कल नहीं रहा है हमारा कि
 उसके वापस आने का इंतज़ार किया जाये
जिस दिन हम बंद कर देंगे अपने
बीते कल कि पैरवी करना तो
हमारे आने वाले कल को सवारने से क्या कोई रोक सकेगा?
और आने वाला कल भी हमेशा
बीता हुआ कल ही बनता है.

Sunday, 12 August 2012

उपेक्षित गंगोलीहाट.

गंगोलीहाट को तहसील बने तकरीबन 23-24 साल हो गए होंगे पर गंगोलीहाट के हालातों में शायद ही कोई परिवर्तन आया होगा. रोड , पानी, रोज-मर्रा की जरूरतों के मामले में गंगोलीहाट हमेशा से ही पिछड़ा था, अभी भी पिछड़ा है और पिछड़ता ही जा रहा है. अगर हम रोडों की बात करैं तो गंगोलीहाट की रोडों के हाल जग जाहिर हैं, पानी की समस्या ने आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है. चुनाओं के समय वादों कि पोटली लेकर आये ये नेता चुनाओं के बाद कहाँ चले जाते हैं? विकास के नाम पर वोट मांगने वाले इन नेताओं को अपनी जेब भरने से फुर्सत मिलती तो क़स्बे के विकास के बारे में भी कुछ सोचते. करीब 15000 कि आबादी वाले गंगोलीहाट क़स्बे में नगर पंचायत अभी तक नहीं बन पायी है. अगर बमुश्किल सरकार से ऐसी कोई योजना आती भी है तो ये दो कोड़ी के नेता वो भी पास नहीं होने देते.  सड़कों के डामरीकरण और चौड़ीकरण के लिए सरकार से कुछ पैसा आ भी जाता है तो सड़कों के निर्माण के नाम पर सड़कों के बीच गड्ढों में कच्चे डामर के टल्ले लगा दिए जाते हैं. पिछले १ साल से रामेश्वर से राइआगर तक का रोड के चौडीकरण का काम ठप पड़ा है. गंगोलीहाट से राइआगर तक का करीब १८ किमी. का रास्ता तय करने में करीब एक से डेढ़ घंटा लगना आम बात है. अगर मुख्य सड़कों के इतने बुरे हाल हैं तो, क़स्बे की सड़कों के हाल या होंगे? ये कहना मुश्किल है. 

                उत्तराखंड में पिछली सरकार के पेयजल मंत्री भी गंगोलीहाट के ही मूल निवासी हैं. अपने कार्यकाल में उन्होंने क़स्बे के लिए कुछ नहीं किया. पानी कि परियोजना पिछले कई सालों से अधर में लटकी हुई है, पूरे क़स्बे में पानी के साधन केवल कुछ एक हैण्डपम्प ही हैं. औरतों को पानी के लिए सुबह-शाम कई कि मी. दूर तक हैण्डपम्प पर जाना पड़ता है. जाड़ों में ही लोगों का पानी के बिना बुरा हाल हो जाता है, तो गर्मियों के क्या कहने? कई बार तो रात-रात भर हैण्डपम्प के पास अपनी बारी का इंतजार करती महिलाएं दिखती हैं, फिर भी पानी मिले या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं. दिन भर खेतों में काम करने वाली महिलाओं को रात में भी पानी के कारण दो घडी चैन नहीं मिल पता. हमारे मंत्रियों को इन समस्याओं से इतर लोगों की शादियों, बच्चों का नामकरण इत्यादि में जाने से फुर्सत नहीं मिलती. अगर कोई आम आदमी इनके पास अपने क्षेत्र से जुडी समस्याएँ लेकर जाता है तो ये जनाब घर से ही गायब हो जाते हैं. दोष विकल्फिनता का ही है, जिसने इन अराजकों को सत्ता के गलियारे तक पहुँचाया.
                 इन तेईस सालों में गंगोलीहाट का नाम केवल अवैध शराब तस्करी के लिए ही आगे आया. सन 2006  में शराब की दुकानें बंद करवाने को गंगोलीहाट में एक आन्दोलन हुआ, जनता का पूर्ण समर्थन आन्दोलन को था, एक महिला आन्दोलनकरी से बलात्कार की घटना ने इस आन्दोलन की आग में घी का काम किया और आन्दोलन सफल भी रहा जिसके फलस्वरूप गंगोलीहाट में शराब की दुकानें बंद करवा दी गयी. पर गंगोलीहाट में शराब की तस्करी अपने पैर फ़ैलाने लगी. पहले पिथोरागढ़ और बेरीनाग इत्यादि जगहों से शराब की तस्करी होने लगी. बाद में हरियाणा और पंजाब से तक अवैध शराब आने लगी. जिस शराब को आदमी 200 ₹ में पीता था, वोही शराब उसे 500 ₹ में मिलती थी. कुछ लोग कच्ची शराब बनाकर बेचने लगे. जो लोग कल तक २ वक़्त की रोटी खाने में असमर्थ थे, वो ही लोग शराब की तस्करी की बदोलत चोपहिया वाहनों में घुमने लगे. प्रशासन क्योँ अपने हाथ में हाथ धरे बैठा रहा? बात साफ़ जाहिर है की हमारे प्रशासन की नियत ही में कुछ खोट रहा होगा. ऐसा तो नहीं हो सकता की प्रशासन को इस बात की खबर ही नहीं थी की गंगोलीहाट जैसे छोटे से क़स्बे में तस्करी ने अपनी जडें जमा ली हैं. ऐसा कहने में मुझे कोई झिझक नहीं की प्रशासन की इन तस्करों से जरूर कोई सांठ-गांठ होगी. सच्चाई भी यही है. प्रशासन अगर कार्यवाही करता तो गंगोलीहाट में तस्कर कभी अपने पाँव नहीं फैला पाते. अब फिर से गंगोलीहाट में कुछ १ महीने पहले शराब के ठेके खुल गए हैं. कभी शराब की दुकानें बंद करने के लिए आन्दोलन किये गए बाद में वही आनदोलन दुकानें खुलवाने के लिए हुए. पिछले ६ सालों से तस्करी के जाल में फंसे गंगोलीहाट में दोबारा से ठेके खुलवाने को तो क्षेत्रीय लोग, जनप्रतिनिधि आन्दोलन करने लगे, पर कोई भी तस्करी को रुकवाने के प्रयासों में सामने नहीं आया. क्या फायदा ऐसे आन्दोलन का जो सफल होकर भी सफल नहीं हो पाया. अगर शराब का ठेका खुलवाना ही था तो बंद करवाने को आन्दोलन क्योँ किया?

               अंधविश्वास गंगोलीहाट के बुजुर्गों से लेकर नयी पीढ़ी तक फैला है, क़स्बे का हर एक आदमी अंधविश्वास की चपेट में फंसा हुआ दिखाई  देता है . बलि प्रथा अब तक गंगोलीहाट में अपने पैर फैलाये बैठी है. 21 वीं सदी में भी गंगोलीहाट जैसे कस्बों के लोगों में बलि प्रथा जैसी कुरीतियों का फैलाव इतना अधिक है कि मंदिरों में रोज आस्था के नाम पर न जाने कितने बेजुबान जानवरों की बलि दी जाती है. मदिरों के निर्माण के नाम पर जितना पैसा ये नेता और ठेकेदार खा जाते हैं उससे न जाने कितने विकास कार्य गंगोलीहाट में हो जाते, विकास के नाम पर केवल मंदिरों का अधूरा निर्माण ही गंगोलीहाट को मिल पाता है. क़स्बे में रोड ठीक नहीं, पानी नहीं, जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पाती, अच्छे स्कूल नहीं तो इन मंदिरों से लोग क्या करेंगे? जब हर जगह से तकरीबन बलि प्रथा का अंत होने को आया है तब गंगोलीहाट जैसी जगहों में इस प्रथा को ख़त्म करने को न ही सरकार द्वारा कोई कदम उठाए गए और न ही वहां के बुद्धिजीवियों द्वारा इस समस्या के बारे में सोचा गया. गंगोलीहाट में कई ऐसे बुद्धिजीवी भी है जिनका नाम काफी ऊँचा है, इतिहास से लेकर कई अन्य विषयों में कई किताबें लिख चुके हैं, पर गंगोलीहाट कि आम समस्याओं के बारे में इन्हें कभी न कुछ बोलते देखा गया और न ही इन्होने गंगोलीहाट कि समस्याओं को हल करने कि कोशिश की. कम से कम समाज में फैली इन कुरीतियों को ख़त्म करने के प्रयास तो इन बुद्धिजीवियों द्वारा करने चाहिए थे. इतिहास और कविताएँ लिखने से हालत नहीं सुधरते, जरूरत है आने वाले कल को बदलने की, विकास की जरूरत को समझने की. 

              आज से तकरीबन १२-१३ साल पहले बचपने में हम कुछ बच्चों के बीच अफवाह उड़ी थी कि गंगोलीहाट जिला बनने वाला है. एक ख़ुशी जहन में थी कि गंगोलीहाट जिला बनेगा. समझ नहीं थी तब. जरूरतों का कोई ज्ञान नहीं था. न ये पता था कि विकास क्या होता है? ये पता नहीं था कि जिला बनके गंगोलीहाट का क्या होगा? बस इतना पता था कि गंगोलीहाट भी अन्य जिलों कि तरह बढ़ा शहर बन जायेगा. उस समय पिथोरागढ़, अल्मोड़ा जैसे शहर हमारे लिए बहुत बड़े शहर हुआ करते थे, विकास के नाम पर समझ बस इतनी ही थी कि बड़ा शहर बनने पर गंगोलीहाट की समस्याएँ भी दूर हो जाएँगी. चाह बस इतनी ही थी कि गंगोलीहाट भी बड़ा बन जाये, पिथोरागढ़ और अल्मोड़ा कि तरह. बस बचपना था, आज युवा पीढ़ी में इस बात को लेकर कोई समझ नज़र नहीं आती कि उनका क्षेत्र भी तरक्की की ओर आगे बढे. गंगोलीहाट जैसी जगहों के लोगों में अभी भी समझ और जागरूकता का आभाव देखने को मिलता है. पहाड़ से पलायन कर चुके शहरी पहाड़ियों को भी केवल गर्मियों के दिनों पर पहाड़ कि याद आती है. अपनी लग्जरी गाड़ियों में जब ये पहाड़ आते हैं तो क्या रोडों कि हालत पर इन्हें तरस  भी आता है? क्या पानी, बिजली कि समस्या इन्हें भी सताती है? जाते-जाते ये भी रो जाते हैं हर साल पहाड़ कि बदहाली का दिखावटी रोना पर कोई भी इन मसलों को सुलझाने कि बात करता दिखाई नहीं देता. कुछ फर्क नहीं पढता उन्हें, अब न वह पहाड़ में रहते हैं और न है कभी रहेंगे बस हर बार गर्मी में आके पहाड़ की बदहाली की लिए मगरमच्छ के आसूं बहा जायेंगे.

              रोज मर्रा की समस्याओं का रोना रो रहे गंगोलीहाट ओर ऐसे कई कस्बों के आम लोगों को जरूरत है की जागरूकता का फैलाव उन तक हो. जब तक आम आदमी नहीं जागेगा तब तक किसी भी सामाजिक समस्या का निदान संभव नहीं है. सरकार के बंद कानों को पूरी जनता की एकजुट आवाज के बलबूते ही खोला जा सकता है. यही वक्त है सोये हुए हुक्मरानों को जगाने का. गंगोलीहाट के लोगों को समझना होगा इन भ्रस्टाचारी नेताओं और बुद्धिजीवियों के भरोसे गंगोलीहाट में विकास के नाम पर कुछ नहीं हो सकता. आम आदमी को इन सब बातों की समझ आ गयी तो उन्हें इन नेताओं के तलवे तो नहीं चाटने पड़ेंगे. क्षेत्र विकास के लिए चुने गए ये जनप्रतिनिधि ही विकास की राह में रोड़ा बन रहे है, इनको दरकिनार कर एक गंगोलीहाट जैसे कस्बों की जनता को सामने आना होगा. इन्हें इनकी असली औकात दिखानी होगी. केवल भाषडों और बहसों से ये काम संभव नहीं है, हुक्मरानों को जगाने के किये लोगों की बुलंद आवाज की दरकार है. गंगोलीहाट जैसे कस्बों के विकास के लिए आम आदमी को ही जागना पढ़ेगा, अगर नहीं तो न इन जगहों का विकास संभव है और न ही हालातों में कोई परिवर्तन आएगा.

थारू जनजाति की जमीनें और भूमाफिया


खटीमा, नानकमत्ता और सितारगंज छेत्र में भू माफिया पूरी तरह से सक्रिय हैं. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारु जनजाति को आबंटित जमीन पर भू-माफियाओं के कब्जे और क्रय-विक्रय भी शुरू हो चुके हैं. थारू जनजाति को कृषि के लिए सरकार द्वारा खटीमा और तराई के अन्य इलाकों में जमीन आबंटित की गयी थी. लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत थारू जनजाति के लोगों को बांटी गयी जमीन का क्रय - विक्रय, थारू जनजाति का व्यक्ति किसी अन्य थारू व्यक्ति को ही कर सकता है, किसी अन्य व्यक्ति से नहीं. लेकिन कानून और नियमों को ताक पर रखते हुए थारुओं की जमीनों को, थारुओं से सस्ते दामों में खरीद कर गैर जनजातीय लोगों को महेंगे दामों में बेचा जा रहा है.

       देश की आज़ादी के समय थारू एवं बुक्सा जनजाति के लोगों को तराई में जमीन मुहैया कराइ गयी थी. ये जमीनें केवल खेती के लिए थी. लेकिन करीब ५० के दशक  में थारू जनजाति के लोगों ने अपनी जमीनों को गैर जनजाति के लोगों को बेचना प्रारंभ कर दिया. जबकि लैंड कण्ट्रोल एक्ट के तहत ये जमीनें किसी अन्य गैर थारू व्यक्ति को नहीं बेचीं जा सकती. उस समय उत्तर प्रदेश सरकार ने १९८१ में जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार एक्ट के तहत जनजाति के लोगों की संपत्ति की खरीद फरोख्त पर रोक लगा दी थी. इसके बावजूद जमीन की खरीद फरोख्त जारी रही. जमीन को खरीदने वाले लोगों में मुख्य रूप से पूर्व सैनिक , पंजाब और हरियाणा और अन्य जगहों से आये कृषक थे. १९८६ में केंद्र द्वारा चलाये गए जनजाति बचाओ अभियान तहत, उत्तर प्रदेश सरकार ने चेक बंदी द्वारा गैर थारू जनजाति के लोगों को जमीनों से बेदखल करके थारू जनजाति के लोगों को उनकी जमीनें वापस दिलवाने की कवायद शुरू की , लेकिन गैर जनजातीय कृषकों ने इसका विरोध किया. स्थिति को समझते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. डी. तिवारी ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. १९९९ में एक बार फिर से उत्तर प्रदेश सरकार ने चेक बंदी के आदेश दिए. सभी जनजातीय और गैर जनजातीय कृषकों ने मिलकर सुधार समीति का गठन किया. २००२ में नैनीताल हाई कार्ट ने भी चेक बंदी लागु करने के निर्देश दिए. गैर जनजातीय लोगों के विरोध के कारन २००३ में फिर से हाई कार्ट ने चेक बंदी पर रोक लगा दी. बाद में एन. डी. तिवारी के कार्यकाल में विजय बहुगुणा की अध्यक्षयता में भूमि संसोधन समिति का गठन कीया गया. लेकिन भूमि संशोधक समिति द्वारा भी कोई उचित हल सामने नहीं आ पाया. तब से आज तक खटीमा और तराई के इलाकों में थारू जनजाति की जमीनों की खरीद फरोक्त होती रही है. लोगों के बसने और जमीन के दाम बढ़ने की वजह से भू- माफिया भी खटीमा और तराई के अन्य इलाकों में सक्रिय हो गए. प्रशासन और भू माफियाओं की मिली भगत से जमीनों पर अवैध कब्जे किये जाने लगे. 

           खटीमा शहर का अधिकांश भाग थारू लैंड में ही बसा हुआ है. थारू जनजाति के लोग भू-माफियाओं को सस्ते दामों में अपनी जमीन बेचते हैं और भू-माफिया उन जमीनों को २-३ गुने प्रोफिट पर बेचते हैं. प्रशासन और पुलिश की सह पर थारूओं द्वारा जमीन न बेचने पर थारू जनजाति की जमीनों पर अवैध कब्जे भी भू-माफियाओं द्वारा किये जा रहे हैं. विरोध करने पर डराया और धमकाया जाता है, यहाँ तक कई लोगों की हत्याएं भी की जा चुकी है. हाल ही में नवम्बर २०११ को इसी तरह भू-माफियाओं द्वारा हत्या की घटना खटीमा में सामने आई, पुलिश और गैर जनजातीय भू-माफियाओं की मिली भगत से अपने खेत में जुताई कर रहे कुछ थारू जनजाति के लोगों पर निजी लाईसेसी  बंदूकों से गोलियां दाग दी जिसमें २ लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और लगभग ८ लोग घायल हो गए. ये घटना उक्त भूमि पर कब्ज़ा करने की नियत से ही सामने आयी. 

          आज के समय पर कानूनों को ताक पर रखते हुए थारू जनजाति के लोगों की जमीनों को बेचा जा रहा है और अवैध कब्जे किये जा रहे हैं. थारू जनजाति की बिना रजिस्ट्री वाली जमीनों को सस्ते दामों में खरीद कर कुछ छोटे पूंजीपति भी पानी राइस, मैदा एवं अन्य मिलैं खड़ी कर रहे हैं. जमीन की प्लोटिंग का अधिकांश हिस्सा थारू जनजाती की जमीनों पर ही हो रहा है. खटीमा जैसी जगहों में जहाँ रजिस्ट्री वाली जगहें नाम मात्र ही हैं वहां थारू जनजाती की जमीनों पर कब्जे कर और डरा धमकाकर कम दामों में खरीद फरोख्त रहे भू-माफियाओं की चांदी ही चांदी है.  प्रशासन तो पूरे देश में हर जगह नाकाम है तो यहाँ भी प्रशासन द्वारा भू-माफियाओं पर कोई सिकंजा कसने के आसार नजर नहीं आते. जो नीतियाँ जमीन की खरीद फरोख्त को रोकने के लिए बनायीं जाती हैं वो लागु नहीं हो पाती.. भू-माफियाओं को तराई से अच्छे हालत कहीं और मिल भी नहीं सकते. पहाड़ों से पलायन कर रहे लोग भी खटीमा, सितारगंज आदि जगहों में आ कर बस रहे हैं.  जमीन के दाम आसमान छु रहे हैं. बिना रजिस्ट्री वाली थारू जनजाती की सस्ती जमीनें भू-माफियाओं के व्यवसाय को बढ़ावा ही दे रही हैं.

Monday, 16 April 2012

तीन कविताएँ

१- आकाश में उड़ता परिंदा.


आकाश में उड़ता परिंदा
छुंता हुआ ऊँचाइयाँ नभ की
वहसी दुनिया से दूर है
परिंदा
पर ओझल नहीं है दुनिया की नज़रों से
और 
दुनिया भी ओझल नहीं है उसकी पैनी निगाहों से
देखता है उड़ता हुआ परिंदा
सड़क पर दोड़ते वाहन
फूटपाथ, चौराहों की भीड़
औरत का पर्श छीनता हुआ चोर
भीख मांगते बच्चे
चौराहे पर रोती हुई बच्ची,
औरत को पीटता शराबी,
और वो सब कुछ जो धरती पर हो रहा है
आकाश में उड़ता परिंदा
देखता है सच्चाई दुनिया की
सोचता है
वह न होए कभी पैदा इस जालिम मनुष्य की योनी में 
मिलती रहे पक्षी योनी
मोक्ष प्राप्ति तक
आकाश में उड़ता परिंदा
अचानक
गिरता है नीचे
फड़फाड़ाते हुए, खून में लतपथ परिंदा
हो गया है मरणासन्न किसी जालिम मनुष्य  की बन्दूक के छर्रे से
करता है प्रार्थना इश्वर से
नीचे किसी छत में गिरा परिंदा
वह न होए कभी पैदा, जालिम मनुष्य योनी में
मोक्ष प्राप्ति तक.



२-  पहाड़


पहाड़
लपेटे हुए सफ़ेद, हरी चादर
बुलंद और अडिग दिखता है
पर अन्दर से बिलकुल खाली हो गया है
और भर रहा है बाहर से
करोड़ों साल से पहाड़ खड़ा है अपनी जगह
कभी थका नहीं
लेकिन अब थकने लगा है मनुष्यों के भार की वजह से
अपने ह्रदय में एक टीस लिए इंतजार करता है कि
एक छोटी सी प्लेट उसके भीतर की टूटे
और सरक जाये कुछ आगे
हो सकता है बाँट जाए दो हिस्सों में
कर दे सब कुछ तहस-नहस
पहाड़
कभी ऐसा चाहता नहीं था पर कर दिया है विवस उसे मनुष्यों ने
वह दूर करना चाहता है अपने मन की वेदना
जो दी है मनुष्यों ने उसे
काट के जंगल, काट के पहाड़
छीन के वस्त्र पहाड़ के
पहाड़ जो कभी अदम्य साहस  अडिगता की मिसाल था
आज इंतजार कर रहा है अपने अन्दर की
कोई एक प्लेट टूटने का.



३- बादल


आकाश में तैरते बादल
सरकते एक दुसरे के निकट
करते आलिंगन प्रेमियों के जैसे
आकाश की नीलिमा को करते
सफेद-काला
भिगोते अपनी अंश्रुधारा से धरती को
प्यास बुझाते धरती की
टप-टप गिराकर बूँदें
सूर्य की धधकती आग भी
नही टिकती इनके आगे
पल भर में ले लेते हैं आगोश में सूर्य को
देते है चुनोती पहाड़ की ऊँचाइयों को 
भीषण अट्टहास के साथ
जाड़ों में फैलाते एक सफ़ेद चादर धरती पर
बनाते हिमालय जैसे पहाड़ और महासागर भी
बादल
जिनके बिना जीवन संभव नहीं है.

उत्तराखंड में शराब विरोधी आन्दोलन और तस्करी.



हाल ही में कुमायूं, गढ़वाल  की छोटी-बढ़ी जगहों में शराब विरोधी आन्दोलन जोरों पर था और शायद है भी. हमेशा की ही तरह शराब विरोधी मोर्चा की शुरुवात महिलाओं ने ही की है. सभी जगहों पर महिलाएं उग्रता से शराब के ठेकों को बंद करवाने की मांग कर रही हैं. बाकायदा पहल न्यूज़ पेपर इत्यादि में छाई हुई है. महिलाओं में शराब के प्रति रोष फूट-फूट कर बाहर निकल रहा है.

        कहने को तो ये आन्दोलन पूरे  कुमायूं को शराब मुक्त बनाने को है पर इस आन्दोलन को देखते हुए आज से कुछ ६ साल पहले का एक आन्दोलन याद आ जाता है, जो सफल होते हुए भी असफल हो गया. इस घटना से शायद आप सभी परिचित होंगे.

     सन २००६ मई-जून का महिना होगा, गंगोलीहाट जो  पिथोरागढ़ जिले की एक तहसील है में भी शराब की दुकानों को बंद करने के लिए एक उग्र आन्दोलन हुआ. जिसमें गंगोलीहाट की सारी जनता ने बराबर सहयोग दिया, कुछ अप्रिय घटनायें भी इसमें घटी, यहाँ तक कि एक आन्दोलनकारी महिला के साथ बलात्कार की घटना भी सामने आई.

         लोकल और नेशनल न्यूज़ चैनलों और अखबारों में ये आन्दोलन छाया रहा और ज्यादा प्रबल बनता गया. काफी संघर्ष के बाद ये आन्दोलन सफल हो गया. गंगोलीहाट से शराब की सारी दुकानें बंद करवा दी गयी. परन्तु गंगोलीहाट से शराब नहीं हट सकी. "भाई जो आदमी शराब का लती है या जो शराब पिता है उसे तो शराब चाहिए ही चाहिए", और शराब मिलने की अब दो ही सूरतें बची...
१- शराब के ठेके का खुलना जो संभव नहीं.
२- शराब की तस्करी.

          बहरहाल गंगोलीहाट में शराब के तस्कर पाँव पसारने लगे. तस्करी का गोरखधंधा तो चल ही पढना था, सो चल पढ़ा. शुरवात में बेरीनाग और पिथोरागढ़ अदि नजदीकी जगहों से शराब की तस्करी की जाने लगी, तस्करी के पैर जैसे ही पसारने लगे तो शराब की तस्करी हरियाणा और पंजाब से भी होने लगी. सस्ते दामों में शराब को लाकर दुगने दामों में बेचा जाने लगा. कल तक जो लोग दो वक़्त की रोटी के भी मोहताज थे वे शराब तस्करी की बदोलत आज चोपहिया गाड़ियों में घूम रहे हैं.

            तस्करी बढती गयी लेकिन किसी प्रसासनिक अधिकारी ने तस्करी रोकने का प्रयास नहीं किया.
        ख़ास बात तो ये है की किसी भी प्रसासनिक अधिकारी ने तस्करी को लेकर कोई कदम क्यों नहीं उठाया? क्यों ये सब तस्करों के आगे चुप दिखाई देते हैं? देखा जाये तो यहाँ आने वाले प्रसासनिक अधिकारीयों को उनकी निजी ज़िन्दगी के लिए मीडिया में छाया रहना ज्यादा अच्छा लगता है न की तस्करी को रोककर मीडिया और देश में नाम कमाना. सुनने में आ रहा है कि गंगोलीहाट में शराब की दूकान फिर से खुल रही हैं. क्या फायदा ऐसे आन्दोलन का? ये तो आजादी मिलने के बाद भी ग़ुलाम होने कि तरह है.
  
    बात गंगोलीहाट की ही नहीं है, आज जहाँ कहीं भी शराब विरोधी आन्दोलन की बात आती है तो गंगोलीहाट  में होने वाली शराब तस्करी की तस्वीर सामने आ जाती है. हमें ये समझना होगा की केवल शराब के ठेके बंद करवाने से कुछ नहीं होगा, बल्कि प्रशासन और तस्करी के खिलाफ भी खड़ा होना होगा. लोगों को पहले ये सोच लेना होगा कि वे शराब को ख़त्म करना चाहते हैं या तस्करी को बढ़ावा देना चाहते हैं.